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कांच

कहानी
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चित्रांकन : संदीप जोशी
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वे तब भी मुस्कुरा रहे थे। चेहरे पर ज़रा भी क्रोध नहीं। तब मैं उनके पांव छूने के लिए आगे बढ़ा, परंतु वहां कोई नहीं था। कमरा खाली पड़ा था, दरवाज़ा आधा खुला। गर्मी की शाम की तेज़ हवा चली। मैं डर से कांप उठा। अवश्य ही कोई सपना था। जब थोड़ी हिम्मत जुटी तो तेजी से नीचे आया। मां ने मुझे देखकर आश्चर्य से पूछा, ‘कैसे बाहर आए? दरवाज़ा किसने खोला?’

संजीव चट्टोपाध्याय

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बचपन में मैं कुछ अधिक ही शरारती था। सब कहते थे, ‘बड़ा ही दुष्ट है।’ पल भर के लिए भी मैं आराम से नहीं बैठता। मेरी मां कहा करती थीं, ‘इसी को लेकर मैं हमेशा परेशान रहती हूं। सारा दिन नाक में दम किए रहता है। मुझे पल भर के लिए भी शांति नहीं मिलती।’

मैं यह नहीं कहता कि भला लड़का बनने का प्रयास नहीं करता था। किताब-कॉपियां लेकर बैठता, परंतु ज़रा भी मन नहीं लगता। पढ़ते-लिखते समय ही दिमाग न जाने कहां-कहां भटकने लग जाता। नील गगन में नीलू की पतंग उड़ती दिखाई देने लगती, समीप के मैदान में प्रताप और गोपाल गुल्ली-डंडा खेलते नज़र आते। इसमें भला मेरे मस्तिष्क का क्या दोष?

उन दिनों हम एक अत्यंत पुराने घर में रहते थे। घर के दो हिस्से थे—बाहरी और अंदरूनी। उनमें कई कमरे थे। एक लंबा-चौड़ा बरामदा भी था। तीन मंज़िले मकान की छत बहुत बड़ी थी। मन करता तो फुटबॉल भी खेल लेते। आसपास के दो कमरे ऐसे थे, जिनमें कोई एकांत में रहना चाहे तो रह सकता था। एक कमरे में मेरी बड़ी बहन के कई किस्म के खिलौने थे—बड़ी गुड़िया, छोटी गुड़िया। वह अपनी सहेलियों के साथ शाम को जाकर वहां खेलती और मैं बीच-बीच में उनके पास जाकर शरारतें करता। बहन तब अपनी सहेलियों से कहती, ‘देखो, मेरे भाई की बंदर जैसी हरकतें।’ दीदी मुझे बंदर कहती तो मुझे बहुत अच्छा लगता। मेरी दुष्टता और धृष्टता पर दीदी को भी शायद मज़ा आता। कभी-कभार हमारी खूब लड़ाई भी होती। तब दीदी कहती, ‘देखना, जब मैं कहीं चली जाऊंगी तब तुम्हारे होश ठिकाने आएंगे। तब कौन तुम्हें गर्मियों की छुट्टियों में अचार बनाकर खिलाएगा, देखूंगी।’

हर रोज़ रात को घर में कुरुक्षेत्र कांड हो जाता। पिताजी दफ्तर से लौटकर मुझे पढ़ने बिठाते। सारा दिन की भागदौड़ के कारण तब मेरी आंखें बोझिल होतीं। जो कुछ जानता था, वह भी अक्सर भूल जाता। पिताजी बार-बार संख्याओं को जोड़ने के लिए देते। कोई भी उत्तर सही नहीं होता। ‘वीक’ की स्पेलिंग हमेशा ग़लत होती। सप्ताह के लिए ‘कमज़ोर’ और कमज़ोर के लिए ‘सप्ताह’ लिख बैठता। तब वे माताजी को बुलाकर पूछते, ‘सारा दिन दोपहर में तुम करती क्या रहती हो? लड़के पर बिल्कुल ध्यान नहीं देती क्या?’

तब मां दिन भर की मेरी सारी गतिविधियां उनके सामने रख देतीं—कि इसने यह किया, वह किया। तब पिताजी गंभीर मुद्रा में उठकर लंबे बरामदे में टहलने लगते और चिंता व्यक्त करते, ‘नहीं, हो नहीं पाया। कुछ भी तो नहीं हो सका। फेल्योर, फेल्योर।’ रात को खाने बैठते तो कहते, ‘पुलाव खाकर भी क्या होगा अगर बेटा कुछ बन नहीं पाए।’

इतना कुछ होने के बावजूद मुझ पर इसका कोई असर नहीं होता। रात को आराम से निद्रा देवी की गोद में सो जाता। फिर दीदी आकर धीरे से कहती, ‘चलो, चलकर कुछ खा लो। आइंदा से ज़रा ध्यान से पढ़ना। तुम्हें जब भला-बुरा कहा जाता है तो मुझे तनिक भी अच्छा नहीं लगता।’ कभी-कभार दीदी मुझे अपने हाथों से ही खिला दिया करती।

इसी तरह समय बीतते-बीतते गर्मी की छुट्टियां आ गईं। एक दिन दोपहर को सभी सो रहे थे। मैं भी मां के बगल में लेटा हुआ था। दीदी कुछ दिनों के लिए मामा के घर गई हुई थीं। लेटे-लेटे मैं उठ खड़ा हुआ। सोकर समय नष्ट करना उचित नहीं। मैं जिस कमरे में था, उसके बगल के कमरे से एक टेनिस बॉल लेकर अपनी करामात दिखाने लगा। अभी से अभ्यास न किया जाए तो बड़े होकर पेले जैसा खिलाड़ी कैसे बन पाऊंगा? पिताजी ही तो कहते थे कि साधना से ही सिद्धि प्राप्त होती है।

शुरू में सावधानी से ही सब कुछ करता रहा। फिर अत्यंत उत्तेजना में एक शॉट दे मारा और इसके साथ ही पिताजी की पुस्तकों की अलमारी का शीशा चकनाचूर हो गया। बगल के कमरे से मां दौड़कर आईं और मुझ पर दो हाथ जमा दिए। मुझे उनका मारना उचित ही लगा, परंतु पिताजी ने यह कह रखा था कि कभी इसके साथ मारपीट मत करना। इसका डर चला जाएगा। भले दूसरी कोई सज़ा दे देना।

मां मुझे खींचते हुए छत वाले कमरे में ले गईं और मुझे अंदर धकियाते हुए बाहर से दरवाजे की कुंडी बंद कर दी। कहा, ‘अब यहीं रहो, जब तक तुम्हारे पिताजी आ नहीं जाते। कुछ ज़्यादा ही दिमाग ख़राब हो गया तुम्हारा। निर्जला उपवास में रहो।’

धूप चारों ओर से बरस रही थी। दोपहर के नीले आकाश में कई चील उड़ रहे थे। खिड़की के पास बैठा मैं बोझिल मन के साथ बैठा रहा। पिताजी का मैं बहुत आदर करता हूं। अलमारी का सारा कांच टूटकर बिखर गया था। अन्याय हो गया था मुझसे। न जाने मुझमें कब अक्ल आएगी। यही सब सोचे जा रहा था। गर्मी बहुत अधिक थी। ज़रा भी हवा नहीं थी। पेड़ के एक भी पत्ते हिल नहीं रहे थे। आख़िरकार थोड़ी ही देर में मुझे नींद आ ही गई।

कुछ समय बाद ऐसा लगा कि किसी ने मेरे शरीर पर हाथ रखा हो। मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा। सामने ही खड़े थे पिताजी। आसमान में उस समय भी दिन की अंतिम धूप मौजूद थी। मैं डर से सहम गया। पिताजी की ओर देखा तो वे हंस रहे थे। कहीं सपना तो नहीं देख रहा? दरवाज़े की ओर देखा तो वह अधखुला था। तब मैंने उनसे अचरज से पूछा, ‘पिताजी, आज आप इतनी जल्दी आ गए?’ उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। वे हंसते जा रहे थे। बस हंसते जा रहे थे। मैंने कहा, ‘पिताजी, मैंने सारा कांच तोड़ दिया। मैंने बहुत अन्याय किया है।’

वे तब भी मुस्कुरा रहे थे। चेहरे पर ज़रा भी क्रोध नहीं। तब मैं उनके पांव छूने के लिए आगे बढ़ा, परंतु वहां कोई नहीं था। कमरा खाली पड़ा था, दरवाज़ा आधा खुला। गर्मी की शाम की तेज़ हवा चली। मैं डर से कांप उठा। अवश्य ही कोई सपना था। जब थोड़ी हिम्मत जुटी तो तेजी से नीचे आया। देखा, मां रसोई में पके मटर की सब्ज़ी—घूघनी—बना रही थीं। मुझे देखकर आश्चर्य से पूछा, ‘कैसे बाहर आए? दरवाज़ा किसने खोला?’

पिताजी को घूघनी बहुत पसंद थी, इसलिए मां बना रही थीं। कांच टूटने पर एक बड़ा कांड हो जाने के बाद घूघनी ही आकर परिस्थिति को संभाल लेगी। मैंने मां को सारी घटना सुनाई।

‘तुम्हारे पिताजी आ गए? कहां हैं?’

‘दरवाज़ा तो उन्होंने ही खोला।’

‘परंतु मुख्य द्वार के मेरे न खोलने पर वे अंदर आएंगे कैसे?’

सारे घर में खोजबीन शुरू हुई। पिताजी के पढ़ने के कमरे, शयनकक्ष, पूजाघर, बाथरूम। अलगनी में देखा। वहां पिताजी के दफ्तर के उतरे कपड़े नहीं थे। घर लौटकर जो पोशाक पहनते हैं, वे भी तह करके रखे हुए थे।

तब हम बगल के घर में जाकर पिताजी के दफ्तर में फोन करने गए। किसी अधिकारी से मां ने बात की तो पता चला कि वह बहुत पहले से साइट पर गए हुए हैं, यानी कि उलुबेड़िया। वहां कंपनी की नई फैक्टरी बन रही है।

मां ने उनसे प्रार्थना की, ‘कृपया आप ज़रा पता कीजिए। मुझे लग रहा है, जैसे कुछ हुआ हो।’

फोन नंबर उन्हें दे दिया गया। हम टेलीफोन को घेरे बैठे रहे। बहुत देर तक बैठे रहे। उधर मां की घूघनी जलकर राख हो चुकी थी। तकरीबन घंटे बाद फोन आया। कंस्ट्रक्शन साइट में एक लोहे का बीम क्रेन को तोड़कर पिताजी के सिर पर गिरा था। यह हादसा साढ़े चार बजे के करीब हुआ था।

मैं ऐसा मूर्ख ठहरा कि उस समाचार को सुनने के बाद भी मां से कहा, ‘जानती हो, मैंने कांच तोड़ डाला है, यह जानते हुए भी पिताजी तनिक भी क्रोधित नहीं हुए। बस मुस्कुरा रहे थे।’

उस समय मेरी उम्र आठ वर्ष की थी। आज अस्सी का हूं। मैंने उसके बाद आज तक कुछ नहीं तोड़ा—न कांच, न संपर्क, न परिवार, न जीवन। पिताजी का वह मुस्कुराता चेहरा कभी धूमिल न हो जाए, यही प्रयत्न मैंने हमेशा किया है।

मूल बांग्ला से अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश’

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