सुभाष रस्तोगी
तरसेम गुजराल रूपांतरित एवं सम्पादित अनिरुद्ध के सद्य: प्रकाशित कविता-संग्रह ‘कुदरत रूठ गई हम से’ में कुल 64 कविताएं व 58 लघु कविताएं संकलित हैं। यह कविताएं 22 अगस्त, 1973 से 11 जून, 1992 के बीच रचित हैं। 11 जून, 1992 को अनिरुद्ध का आकस्मिक निधन हो गया जो उनके पिता तरसेम गुजराल के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं था। इसी संग्रह के स्मृति खंड में पुत्र अनिरुद्ध की स्मृति को समर्पित उनकी सात कविताएं भी संकलित हैं। इसी संग्रह के स्मृति खंड-2 में पुत्र की स्मृति को ही समर्पित गुजराल की कुछ अन्य कविताएं भावुक पाठक के मन को गहरे में उद्वेलित करती हैं।
अनिरुद्ध के ‘कुदरत रूठ गई हमसे’ संग्रह में संकलित उनकी कविताएं अपने समवेत पाठ में इस सत्य की तस्दीक करती हैं कि यदि वे आज जीवित होते तो निश्चय ही इस अंचल के समकालीन कविता परिदृश्य में वे एक कद्दावर कवि के रूप में जाने जाते। अनिरुद्ध का यह वादा था, ‘मैं अपनी कविताएं लेकर घर-घर जाऊंगा।’ उनके प्रिय कवि पाश, ब्रेख्त और नागार्जुन थे। ‘वक्त बदलेगा’ पत्रिका के एक अंक का उन्होंने सम्पादन भी किया था। उनका एक पंजाबी कविता-संग्रह ‘जुदा नहीं असीं’ उनके दुनिया से विदा लेने के बाद वर्ष 1993 में प्रकाशित हुआ था।
अनिरुद्ध को शहर के बाजार की और बाजार में राजनीति के चलन की समझ बहुत गहरी थी जो कहीं न कहीं हमें हैरत में डालती है। देखें यह पंक्तियां जो इस लिहाज से गौरतलब हैं ‘मांस खून के बाजार में/ हर चौक पर बहुत सस्ती बिकती है/ मेहनत/ चिड़ियां ने दाना-दाना जोड़कर खिचड़ी बनाई/ और काला कौआ खा गया।’ अचरज होता है कि इतनी छोटी उम्र में उसने ‘बेकरी का लड़का’ जैसी धारदार कविता कैसे सृजी जो ऐन मुहाने पर वार करती है। बेकरी के लड़के के नसीब में भले ही वे केक, वे बिस्टिक न हों जो बेकरी में बनते हैं लेकिन उज्ज्वल कल के प्रति वह आश्वस्त है क्योंकि ‘बाऊ के लड़के ने सीखा दिया है/ मुझे स्कूटी चलाना थोड़ा-थोड़ा/ एक दिन बड़ा होकर/ ब्रेड सप्लाई करने वाले रमेश की तरह/ स्कूटी चलाया करूंगा/ फिर बेकरी में कौन रहेगा/ मैं बहुत से पैसे कमाकर/ फिर जाऊंगा मां के पास।’
अनिरुद्ध की कविता ‘मेरी बहनों’ की मार्फत हम उसके सम्पूर्ण स्नेहिल व्यक्तित्व के आरपार सहसा ही झांक सकते हैं। देखें यह पंक्तियां जो पाठक को गहरे में भावाभिभूत कर देती हैं ‘मैं नहीं चाहता/ जहाज के फासले से आपको देखना/ और जैसे हाथों से/ या पैरों के नीचे से फिसल जाती है रेत/ इस तरह आपके होने का/ अहसास खो देता।’
दरअसल अनिरुद्ध का जीवट और व्यवस्था को बदलने का संकल्प अद्भुत है। बकौल तरसेम गुजराल उसकी ‘कविताएं जीवन, जीवन संघर्ष लोगों से संकट में इकट्ठा होने के संकल्प और मानवीय संबंधों के साथ-साथ अंत:विरोधी व्यवस्था को पहचानने की है।’ तरसेम गुजराल द्वारा रूपांतरित एवं संपादित अनिरुद्ध की कविताओं के बिटविन दी लाइन्ज बड़े गहरे अर्थ हैं। उनका यूं असमय जाना सचमुच हिंदी कविता के लिए दु:खद है।
पुस्तक : कुदरत रूठ गई हमसे कवि : अनिरुद्ध रूपांतरण एवं सम्पादन : तरसेम गुजराल प्रकाशक : आस्था प्रकाशन, जालंधर पृष्ठ : 143 मूल्य : रु. 225.