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अनूठी सहजता और यथार्थ बोध के कवि

विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ पुरस्कार
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डॉ. वेद मित्र शुक्ल

अपने जीवन, परिवेश और समाज में गहरे पैठकर सर्जना प्रक्रिया से गुज़रते हुए लिख-पढ़ देना तो बड़ा साहित्यिक योगदान है ही, लेकिन जब गहराई में उतरते हुए लेखक अपनी बौद्धिक चुनौतियों से युक्त गति और मति के साथ-साथ एक पाठक को भी उसी संवेदनात्मक व बौद्धिक स्तर पर गहराई यानी मर्म तक पहुंचा पाने की साधना में सिद्धहस्त होते हैं तो वह भारतीय साहित्य के सर्वाधिक प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक ज्ञानपीठ पुरस्कार-2024 से सम्मानित विनोद कुमार शुक्ल जैसे विरले ही होते हैं। भारतीय साहित्य के गौरव और हिंदी साहित्य के सिरमौर साहित्यकारों में शामिल विनोद कुमार जी ने न केवल अप्रतिम काव्य संसार रचा। गद्य में भी सार्थक हस्तक्षेप किया।

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उनके महत्वपूर्ण कविता-संग्रहों में लगभग जयहिंद (1971), वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह (1981), सब कुछ होना बचा रहेगा (1992), अतिरिक्त नहीं (2000), कविता से लंबी कविता (2001), आकाश धरती को खटखटाता है (2006), कभी के बाद अभी (2012), कवि ने कहा, चुनी हुई कविताएं (2012), प्रतिनिधि कविताएं (2013) आदि शामिल हैं, तो वहीं उपन्यासों में नौकर की कमीज़ (1979), खिलेगा तो देखेंगे (1996), दीवार में एक खिड़की रहती थी (1997), हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़ (2011), यासि रासात (2017), और एक चुप्पी जगह (2018) उल्लेखनीय कृतियां हैं। शुक्ल के कथा-साहित्य में उनकी कहानियां भी समय-समय पर बहुचर्चित रहीं। इस दृष्टि से विनोद कुमार शुक्ल के कहानी-संग्रह- पेड़ पर कमरा (1988), महाविद्यालय (1996), एक कहानी (2021) और घोड़ा और अन्य कहानियां (2021)– भी उनके रचना-संसार की वैविध्यपूर्ण व्यापकता को समझने में सहायक सिद्ध होते हैं।

कविता संग्रह ‘अतिरिक्त नहीं’ की पहली ही कविता ‘हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था’ जो उनके पाठकों में बहुत लोकप्रिय रही। कविता मानवीयता से परिपूर्ण आंतरिकता तक पहुंचने का सामर्थ्य प्रस्तुत करती है। वहीं उनकी कविताओं में व्याप्त ‘अनूठी सहजता’ का एक सुंदर उदाहरण है। वे कहते हैं :- ‘हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था/ व्यक्ति को मैं नहीं जानता था/ हताशा को जानता था/ इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया/ मैंने हाथ बढ़ाया/ मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ/ मुझे वह नहीं जानता था/ मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था/ हम दोनों साथ चले/ दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे/ साथ चलने को जानते थे।’

कविता मानवीय संवेदनाओं और परस्पर सहयोग का जिस प्रकार से सुंदर चित्रण करती है उस स्थिति में व्यक्ति की पहचान गौण होना इस कविता की विशेषता है। आंतरिक भावनाएं—हताशा और सहारा—मुख्य हैं। अनजान होते हुए भी सहानुभूति और सहायता का संबंध दोनों को जोड़ता है। यह दर्शाता है कि मानवता में परिचय से अधिक महत्वपूर्ण आंतरिकता से उत्पन्न आपसी समझ और सहयोग है।

उनकी कविताओं में यथार्थबोध भी एक अलग ही अंदाज में दिखता है। निश्चित रूप से वह यथार्थ अंत्योदय की स्थापना की जोरदार वकालत कर रही होती है लेकिन एक कवि की भरपूर रचनात्मकता के साथ। यह कविता वंचित समाज, विशेषकर आदिवासियों के विस्थापन और उनकी दुर्दशा को उजागर करते हुए शहरीकरण के उस खौफनाक दृश्य को दिखलाने में समर्थ है जो न केवल जंगलों को, बल्कि जंगलों में रहने वाले समुदायों की जड़ों को भी काट रहा है। वंचित समाज की दृष्टि से उनकी अनेक कविताओं में उन समुदायों की पीड़ा को सामने लाने के प्रयास देखे जा सकते हैं जो अपनी जड़ों से उखाड़े जा रहे हैं।

अब तक गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप, रज़ा पुरस्कार शिखर सम्मान म.प्र. शासन, दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार, हिन्दी गौरव सम्मान उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के सर्वोच्च सम्मान ‘महत्तर सदस्य’ आदि से सम्मानित होने के साथ भारतीय साहित्य-संसार में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त पुरस्कारों में से एक 59वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी हमारे समय के वरिष्ठ साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल जी का सम्मानित होना उनके विपुल साहित्य सहित पूरे हिन्दी-जगत का सम्मान है।

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