खटोला अपना, लाठी बेगानी!
चरणजीत भुल्लर
चंडीगढ़, 8 जुलाई
निहंग सिंह जी को तैरना नहीं आता था, उन्होंने जयकारा लगाकर सरोवर में छलांग लगा दी। लगे हाथ पैर मारने, शोर सुनकर दो व्यक्ति आगे बढ़े तो किसी ने रोक दिया। कहा, सिंह साहिब जूझ रहे हैं। अंततः निहंग सिंह जी का काम पूरा हो गया। हमें डूबने वाले में शिरोमणि अकाली दल का आभास हुआ। बचाने वालों की कोशिश करने वालों में कभी टोहड़ा का चेहरा दिखाई दे तो कभी उसके टकसाली चेले चंदूमाजरा का। राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं भाई, क्या गुरु और क्या चेला। तो फिर हमारे प्रधान जी अपना बचाव करें।
प्रोफेसर साहब उर्फ चंदूमाजरा पहले उस समय जमानत जब्त करवा बैठे, जब टोहड़ा गुट की तरफ से सुनाम का उपचुनाव लड़ा था। अब चंदूमाजरा अकेले नहीं हैं, उनके बाकी 9 जमानत गंवाने वाले भी साथ हैं। प्रधान जी बठिंडा की जीत के जश्न में मस्त थे, घर के आंगन में एक खटोला था, जिस पर प्रधानजी बैठे हुए थे। इधर से, चंदूमाजरा एंड कंपनी पहुंच गई, कंधों पर एक बड़ी लाठी थी। वे कहने लगे, प्रधान जी ये लाठी अपने खटोले के नीचे फेरो। चेले खटोले को घेर कर खड़े हो गये।
फिर गाना तो बजना ही था, ‘मेरे यार नूं मंदा न बोलीं, मेरी भांवें जिंद कढ लै।’ बाबा शेक्सपियर कहते हैं कि जिसके सिर पर ताज, ‘उसी के सिर पर खाज।’ सुख-दुख के साथियों ने चंदूमाजरा से लाठी छीन ली और प्रधान जी को सौंप दी तो अलग ही नजारा दिखा, जब प्रधान जी उसी लाठी के साथ चंदूमाजरा एंड पार्टी के पीछे पड़ गए। रखड़ा एक्सप्रेस सीधे जालंधर जाकर रुकी, जहां यात्री पहले से ही तैयार खड़े थे। ‘तेरे सामने बैठ के रोना दुख तैनूं नहीयों दसना।’ बागी खेमे ने जालंधर में खुलासे कर डाले। बागियों की गतिविधियां देख प्रधानजी थोड़ा घबरा गये। भूंदड़ साहब ने प्रधान जी को इस तरह हौसला दिया, ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना...’
चंडीगढ़ में हर दिन प्रधान जी के पक्ष में दोनों हाथ खड़े करके जयकारे लग रहे हैं। असमय चमकीले का गीत क्यों बजा दिया भाई। ‘मैं ता चक्क दूं घड़े दे उत्तों कौला, करा दूं हत्थ खड़े बल्लिये।’ प्रधान जी का कहना है कि प्रधानगी का कंबल तो मैं छोड़ने को तैयार हूं, पर ये कंबल भी तो मुझे छोड़े। आदमी का मुंह सिर्फ कुलचे खाने के लिए नहीं होता, बल्कि बोलने के लिए भी होता है। जो नहीं बोलते, वो मुंह दिखाने के लायक नहीं रहते। बागियों की भावना को अपना सलमान खान जुबान दे रहा है, ‘मेरे सवालों का जवाब दो...’
एक बार प्रधानमंत्री नेहरू ने मास्टर तारा सिंह को फुसलाते हुए उपराष्ट्रपति बनाने की पेशकश की।
मास्टर जी कुर्सी को लात मारकर सीधे गुरु रामदास जी की नगरी आ गये। ‘रब्ब बनाये बंदे, कोई चंगे कोई मंदे।’ अकाली अब एक-दूसरे से नाराज हैं। प्रेम एंड पार्टी का कहना हैं, ‘वारिस शाह न मुड़ां रांझेटडे तो भांवें बाप दे बाप दा बाप आवे’। उधर, प्रधान जी खटोले से चिपके बैठें हैं। देखना कहीं, फेविकोल वाले अपना ब्रांड एंबेसडर ही न बना दें।
भाजपा कहां हटती है? पहले महाराष्ट्र में शिवसेना के आंगन में दीवार खड़ी की गई। फिर हरियाणा के चौटालों के आंगन में दीवार खींचकर सांस ली। भाजपा की नजर अब अकालियों के खटोले पर है। एक बार टोहड़ा कह बैठे, बादल साहब पार्टी का कार्यकारी प्रधान किसी और को बना दो। 14 मई 1999 को कोर कमेटी का फैसला आया, ‘टोहड़ा पार्टी से आउट’।
टोहड़ा ने सर्व हिंद अकाली दल बनाया, जिस पर बादल ने टैग लगाया कि यह कांग्रेस की ‘बी’ टीम है। टोहड़ा गुट ने 2002 के चुनाव में भारी नुकसान किया। ‘सब कुछ गंवा के होश में आए तो क्या आए’। 13 जून 2003 बादल-टोहड़ा फिर गले मिले। गले मिलते वक्त बड़े बादल ने आंख बचाकर टोहड़ा की बी-टीम का टैग उनके कंधे से हटा दिया। टैग दोबारा नहीं मिला। इसलिए छोटे बादल को अब चंदूमाजरा एंड कंपनी के कंधों पर भाजपा की बी-टीम के साथ नया टैग लगाना पड़ा।
नाटक ‘बाबा बोलदा है’ में बाबा कहते हैं, ‘सरकार कहती है कि देश को खतरा है, जत्थेदार कहते हैं कि पंथ को खतरा है।’ बड़े बादल ये बात सुनाते थे कि नयी-नयी अकाली सरकार बनी तो एक गांव से एक पुराना जत्थेदार आया और कहने लगा, ‘मोर्चा कब लगाना है?’ आगे से बादल ने कहा कि बुजुर्गों अभी तो अपनी सरकार है। अब अकाली दल पर मुश्किल पड़ी है। प्रधान जी के साथ वाली भीड़ कह रही है कि मलाइयां खाने वाले अब आंखें दिखा रहे हैं।
बागीपने की मधानी ने अकाली दल के मंथन से कभी मलाई नहीं निकाली। कई बार नये-नये अकाली दल बने, नये-नये गुट बने, वो भी नये नामों के साथ। इन नामों को देखकर ऐसा लगता है कि जत्थेदार सारी ‘पैंती’ (पंजाबी वर्णमाला) ही न मुका दें। कभी अकाली दल (ड), कभी अकाली दल (स) तो कभी अकाली दल (अ)। टांगें कैसे खींची जाती हैं, ये कला कोई पंजाबियों से सीखे। नये और पुराने अकालियों के पास अपने-अपने शब्दकोष हैं। गांव चंदूमाजरा के प्रेम का कहना है कि प्रधान जी को व्याकरण पढ़ाकर छोडूंगा।
भाजपा अपने ‘महाकोश’ बगल में लिए घूमती है। जिस दल के लिए संत फतेह सिंह कई बार अग्निकुंड में बैठे, अब उस दल की रक्षा के लिए नवयुग के जत्थेदार सजे हैं। कोई मुक्तसर से है, कोई फरीदकोट से है तो कोई फिरोजपुर से है। आप सोचते होगे कि फॉर्च्यूनर गाड़ी वाले, टीनोपाल के कपड़े और क्यानो के जूतों वाले जेल तो छोड़ो धूप भी नहीं सह सकते। बिना मांगे सलाह है प्रधान जी, ‘पार्टी की पीठ पर कवच डालकर रखा करो फिर किसी की क्या मजाल कि कोई पीठ में छुरा घोंप दें।’
साथ ही कार में ये गाना भी सुनाते रहो, ‘बाबू जी धीरे चलना...’ अंत में प्रधान जी और उनके नये विरोधियों से अनुरोध है कि शिव बटालवी के इन शब्दों पर ध्यान देना, ‘सांझा दे बिच्च बरकत वसे, सांझा दे बिच्च खेड़ा, सांझा बिच्च परमेश्वर वसदा, सांझा सबदा जिहडा।’
...मेरी मर्जी अपनों पे गुस्सा सिर्फ प्यार में ही नहीं, राजनीति में भी होता है। समझदार अकालियों ने बड़े बादल को याद किया होगा और मन ही मन कहा होगा, ‘मिस यू बादल साहब।’ हर कोई चाहता है कि अकाली वृक्ष फले-फूले। इस वट वृक्ष का इतिहास बहुत बड़ा है और उससे भी बड़ी कुर्बानी है। 2022 में जब पार्टी हार गई तो इकबाल झूंदा ने प्रधान जी को हाथ में लाठी देते हुए कहा, ‘जरा अपने खटोले के नीचे मारो।’ अब लाठी और खटोला प्रधान जी के पास हैं। गोविंदा के ये बोल गूंज रहे हैं, ‘मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं, मेरी मर्ज़ी...’