जिन्हें अपनों ने भी त्यागा, उन्हें दिया सहारा
ललित मोहन
रोपड़, 4 जून
उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और सिक्किम जैसे राज्यों में अपने परिवारों द्वारा छोड़े गये सौ से अधिक मानसिक रूप से विकलांग व्यक्तियों को पंजाब के रोपड़ जिले के नंगल में शरण मिली है। उनका आश्रय कोई सरकारी सुविधा नहीं, बल्कि सत्तर वर्षीय दंपति अशोक और प्रीति सचदेवा द्वारा चलाया जा रहा एक आश्रम है। उन्होंने मानसिक रूप से बीमार लोगों की देखभाल के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है।
उनके आश्रम में रहने वालों में से कई ऐसे हैं, जिन्हें उनके परिजनों ने ट्रेन में बैठाकर अकेला छोड़ दिया, तो किसी को धर्मस्थल के बाहर छोड़ दिया गया था। इनमें शामिल सिक्किम के सालदेव अब आश्रम में शांतिपूर्वक रह रहे हैं। धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते हुए उन्होंने अपनी कहानी साझा की। उन्होंने कहा, ‘बचपन में मैंने अपने माता-पिता को खो दिया और अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाया। मैं आर्थिक और शारीरिक रूप से टूट चुका था। मैं बंगाल से ट्रेन में चढ़ा और नंगल पहुंच गया। मैं सड़कों पर भटक रहा था, तभी ये दयालु लोग मुझे आश्रम ले आए। उन्होंने मुझे जीवन में दूसरा मौका दिया है।’
पंजाब के मोगा जिले के बलविंदर सिंह ने कहा, ‘मेरे परिवार ने मुझे आनंदपुर साहिब में गुरुद्वारा केशगढ़ साहिब के बाहर छोड़ दिया। यहां आश्रम में मेरी देखभाल की जा रही है।’ अशोक सचदेवा ने बताया कि नंगल कभी हिमाचल की ओर जाने वाले रेल मार्गों के लिए ट्रेन-वाशिंग स्टेशन था, इसलिए ट्रेनों में छोड़े गये कई लोग यहां उतरे। सड़कों पर बेसहारा घूमते ऐसे लोगों को आश्रम में जगह दी गयी।
बेसहारों को सहारा देने की सचदेवा की यात्रा 2001 में शुरू हुई, जब उन्हें नंगल की सड़कों पर घूमते हुए मानसिक रूप से विकलांग एक व्यक्ति मिला। उन्होंने कहा, ‘मैं उसे घर ले आया और उसकी देखभाल की। उससे मिले आशीर्वाद ने और अधिक करने के लिए प्रेरित किया।’ वर्ष 2009 में उन्होंने ‘जिंदा और बेसहारा जीव चैरिटेबल सोसाइटी’ की स्थापना की। निजी बचत और सामुदायिक सहायता से उन्होंने तीन कनाल जमीन खरीदकर निराश्रितों की देखभाल के लिए एक सुविधा केंद्र बनाया। आज आश्रम में सौ से ज्यादा मानसिक रूप से विकलांग लोग रहते हैं, जिनमें दस दृष्टिबाधित हैं।
सरकारी सहायता के बिना चला रहे आश्रम सराहनीय कार्य के बावजूद, सचदेवा को सरकार से बहुत कम सहायता मिली है। उन्होंने कहा, ‘14 लाख रुपये के एकमुश्त अनुदान और इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन से एक एम्बुलेंस के अलावा हमें कोई आधिकारिक सहायता नहीं मिली है। ज्यादातर पैसा स्थानीय दाताओं और हमारे अपने संसाधनों से आता है।’ चुनौतियों के बीच वह अडिग हैं। सचदेवा ने कहा, ‘हम यह नाम या पुरस्कार के लिए नहीं कर रहे। यह अहसास सुकून देता है कि समाज द्वारा त्याग दिए गये लोगों को हमने सम्मान दिया, उनकी देखभाल की।’