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जिंंदगी में शुमार यादगार किरदार

असीम चक्रवर्ती अब यह कहना व्यर्थ है कि फिल्में आम आदमी की जिंदगी का एक अहम हिस्सा होती हैं। पर यह सिने प्रेमियों की किस्मत कहिये कि हाल-फिलहाल का कोई भी ऐसा यादगार किरदार नहीं है, जो उसके जीवन के...
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असीम चक्रवर्ती

अब यह कहना व्यर्थ है कि फिल्में आम आदमी की जिंदगी का एक अहम हिस्सा होती हैं। पर यह सिने प्रेमियों की किस्मत कहिये कि हाल-फिलहाल का कोई भी ऐसा यादगार किरदार नहीं है, जो उसके जीवन के साथ जुड़ जाए। ऐसे में वर्षों पहले की ‘सत्यकाम ’ के सत्यप्रिय आचार्य, ‘गोलमाल ’ के भवानी शंकर या फिर ‘छोटी सी बात’ के कर्नल विलफ्रेड नगेंद्रनाथ सिंह जैसे कई श्रेष्ठ फिल्मों के यादगार किरदारों को ढेरों सजग दर्शक आज तक भुला नहीं पाए हैं।

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एक छोटी-सी घटना

अभी कुछ साल पहले इस लेखक का इंश्योरेंस आफिस में जाना हुआ। वहां रिसेप्शनिस्ट ने सुझाव दिया – ‘आप सत्यप्रिय बाबू से मिल लीजिए, वह आपका काम तुरंत कर देंगे।’ रिसेप्शनिस्ट की बात सच निकली। सत्यप्रिय बाबू ने आधे घंटे में सारा काम कर दिया। आभार व्यक्त करते हुए जैसे ही सत्यप्रिय बाबू कहकर संबोधित किया, उन्होंने कहा – ‘माफ कीजिए, मेरा नाम सत्यप्रिय नहीं बल्कि अमर गोस्वामी है। मैं यहां डिविजनल मैनेजर हूं। मेरा यह उपनाम मेरे फिल्म प्रेमी बॉस ने दिया था। ज्यादातर स्टाफ मुझे इसी नाम से संबोधित करता है।’

धरम जी की यादों में सत्यप्रिय

बस, 1969 की फिल्म सत्यकाम का मुख्य किरदार सत्यप्रिय आचार्य साफ तौर पर नजर आने लगा। सच तो यह है कि आज जब ईमानदारी को वापस लाने की एक जंग शुरू हो चुकी है, हृषि दा की यह फिल्म और उसका यह किरदार कुछ ज़हीन दर्शकों को बार-बार याद आते हैं। विडंबना ही कि इस रोल को जीवंत रंग देने वाले कलाकार को दादा साहब फालके सम्मान से वंचित रखा गया। अभी तीन-चार साल पहले जब इस लेखक ने धरम जी को उनकी इस यादगार भूमिका की याद दिलाई तो वह एकदम भावुक हो गए। उनका कहना था, ‘बेटा, मुझे बहुत अच्छा लगा। तुम्हें यह रोल अभी तक याद है। असल में हम सब तो हृषि के शिष्य की तरह थे। उम्मीद नहीं थी कि यह फिल्म और इसमें मेरा रोल इतने वर्षों बाद भी दर्शकों को याद रहेगा।’

और भी हैं कई उदाहरण

हाल के वर्षों में ऐसे उदाहरण न के बराबर हैं। बावजूद इसके सत्यप्रिय आचार्य ही नहीं, ‘साहिब बीवी और गुलाम ’ की छोटी बहू, ‘मदर इंडिया’ के सुखी लाला, ‘उपकार’ के मलंग चाचा, ‘आशीर्वाद’ के जोगी ठाकुर, ‘गोलमाल’ के भवानी शंकर, ‘आनंद’ के आनंद सहगल, ‘शोले’ की बसंती और इसी फिल्म के कालिया और सांबा, ‘हेराफेरी’ के बाबू भाई, ‘सत्या’ के भीखू म्हात्रे, ‘मुन्नाभाई... ’ के मुन्नाभाई और सर्किट, ‘गदर ’ के तारा सिंह, ‘थ्री इडियट्स’ के रणछोड़दास चांचड़ यानी रैंचो आदि ऐसे किरदारों की लंबी फेहरिस्त है, जिन्हें सिने प्रेमी याद करते हैं। पर न जाने क्यों हमारे बॉलीवुड में अब ऐसे किरदारों का क्रिएशन नहीं हो रहा। जबकि हमारे पास अच्छे कलाकारों का अभाव नहीं है।

सभी चित्र : लेखक

प्रासंगिक है मुन्नाभाई

‘मुन्नाभाई’ सीरीज की दो फिल्मों की वजह से अभिनेता संजय दत्त आज भी रसिकों की बड़ी पसंद हैं। अब यह खबर आई है कि इसका सृजन करने वाले राजकुमार इस फिल्म के तीसरे फ्रेंचाइजी ‘मुन्नाभाई-3’ के बारे में सोच रहे हैं। संजय दत्त इस रोल की वजह से घर-घर का परिचित चेहरा है। पत्रकार उमेश चंदेल बताते हैं, ‘ आप आसानी से फिल्म के दर्जनों ऐसे किरदार ढूंढ सकते हैं। आप ‘छोटी सी बात’ में दादा मोनी के पात्र कर्नल जुलियस नगेंद्रनाथ विलफ्रेड सिंह या ‘उपकार’ के मलंग चाचा यानी प्राण को कैसे भूल सकते हैं।’ फिल्मों के शौकीन ऐसे किरदारों के बहुत करीब होते हैं। दूसरी ओर कई बार ऐसा भी होता है कि सिर्फ इन किरदारों की वजह से लोग इन फिल्मों को देखना पसंद करते हैं। समाजशास्त्र की प्रोफेसर डॉ. इति कहती हैं,’मेरे जेहन में भी कई ऐसी फिल्में हैं, जिनका छोटा-बड़ा किरदार समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण बन जाता है। जाहिर है, कई बार जब असल जिंदगी में इन किरदारों से रूबरू होना पड़ता है, तो इस फिल्म की शिद्दत से याद आती है। हम भले ही इसका उदाहरण न दें, ये पात्र हमेशा हमारे जेहन में घर बनाए रहते हैं।

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