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शहर-गांव के अहसास फ़िल्मकारों कोे आयेे रास

हेमंत पाल किसी भी फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण होता है उसका नाम! फिल्म के नाम की रोचकता का उसकी सफलता में बड़ा हाथ होता है। कुछ फिल्मकारों की नाम को लेकर भी अपनी धारणा होती है। जे ओमप्रकाश की...
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हेमंत पाल

किसी भी फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण होता है उसका नाम! फिल्म के नाम की रोचकता का उसकी सफलता में बड़ा हाथ होता है। कुछ फिल्मकारों की नाम को लेकर भी अपनी धारणा होती है। जे ओमप्रकाश की हर फिल्म ‘अ’ शब्द से शुरू होती थी और राकेश रोशन की फिल्मों का नाम ‘क’ से शुरू होता है! लेकिन, इससे भी अलग है फिल्मों के नाम शहरों और गांव के नाम पर रखना! दरअसल, ये भी एक तरह की रोचकता है। न सिर्फ फिल्मों के नाम बल्कि गीतों और कथानकों में भी उन जगहों के नाम शामिल करते हैं, जो दर्शकों के जाने-पहचाने हों या देखने की तमन्ना हो। फिल्म में शहरों, गांवों, स्थानों के नाम का इस्तेमाल किए जाने से वे चर्चित हो जाते हैं। कई बार दर्शक अपने कस्बे या गांव का नाम आने पर फिल्म को बार-बार देखकर लोकप्रिय बना देते हैं। वहीं रियल स्टोरी और लोकेशन की चाह में कई निर्देशक शहरों के नामों का इस्तेमाल भी करते हैं। ये नाम स्क्रिप्ट में ही नहीं, बल्कि कभी-कभी टाइटल में भी जगह बना लेते हैं।

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दर्शकों में पहले बंबई और दिल्ली का बहुत क्रेज था। इसी को भुनाते हुए कई निर्माता, निर्देशकों ने इन शहरों के नाम अपनी फिल्मों के नाम में इस्तेमाल किए। सबसे पहले बंबई, बाम्बे या आज की मुंबई की बात की जाए तो मरीन ड्राइव (1955), मिस बॉम्बे (1957), क्या ये बॉम्बे है (1959), बंबई का बाबू (1960), बॉम्बे का चोर (1962), हॉलिडे इन बॉम्बे (1963), बाम्बे टू गोवा (1972), सलाम बॉम्बे (1988), बॉम्बे बॉयज़ (1998), मुंबई से आया मेरा दोस्त (2003), शूटआउट एट लोखंडवाला (2007), वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई (2010), शूटआउट एट वडाला (2013), बॉम्बे टॉकीज (2013) जैसी फिल्में बनी और इनमें कुछ ने अच्छा बिजनेस किया।

बंबई के बाद नंबर आता है दिल्ली का। इस शहर को लेकर भी कई सफल-असफल फिल्मों का निर्माण हुआ है। सबसे पहले दिल्ली शहर पर आधारित फिल्म थी चांदनी चौक (1954), इसके बाद 1957 में राज कपूर की फिल्म ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ आई। फिर आई किशोर कुमार और वैजयंती माला की ‘नई दिल्ली।’ 1956 में प्रदर्शित इस फिल्म के दो साल बाद फिर किशोर कुमार ने ही ‘दिल्ली का ठग’ में काम किया। इसी क्रम में न्यू दिल्ली टाइम्स (1986), दिल्ली हाइट्स (2007), दिल्ली-6 (2009) चांदनी चौक टू चाइना (2009), दिल्ली बेली (2011) जैसी फिल्मों ने दिल्ली का नाम चमकाया।

शहरों के नामों का यही सिलसिला आगे बढ़ाते हुए पंजाब मेल (1939), झांसी की रानी (1956), हावड़ा ब्रिज (1958), लव इन शिमला (1960), बनारसी ठग (1962), कश्मीर की कली (1964), रोड टू सिक्किम (1969), हैदराबाद ब्लूज़ (1998), बनारसी बाबू (1997), भोपाल एक्सप्रेस (1999), मिशन कश्मीर (2000), कलकत्ता मेल (2003), वेलकम टू सज्जनपुर (2008), गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012), चेन्नई एक्सप्रेस (2013), देहरादून डायरी (2013), मद्रास कैफे (2013), गोवा (1965), गो गोवा गॉन (2013), जिला गाजियाबाद (2013) और बदलापुर (2015) आदि फिल्मों ने अनसुने-अनजान शहरों के नाम से भी दर्शकों को वाकिफ कराया।

छोटे शहरों के नाम पर बड़ी-बड़ी फ़िल्में

कुछ ऐसी फ़िल्में भी बनीं, जिन्हें उनके नाम ने ही लोकप्रिय दिलाई। 90 के दशक में कश्मीर में बढ़ती आतंकी घटनाओं के बीच ‘मिशन कश्मीर’ फिल्म आई। इस फिल्म में ऋतिक रोशन, संजय दत्त और प्रीति जिंटा मुख्य मुख्य भूमिका में नजर आए थे। ‘मुंबई मेरी जान’ इस शहर के मिडिल क्लास लोगों के अनुभवों पर आधारित फिल्म थी। राकेश ओमप्रकाश द्वारा निर्देशित फिल्म ‘दिल्ली-6’ में दिल्ली के कई हिस्सों को दिखाया गया था। ‘जिला गाजियाबाद’ गैंगस्टर बबलू श्रीवास्तव की जिंदगी पर आधारित थी। फिल्म ‘बरेली की बर्फी’ में छोटे शहर की लाइफ को हल्के-फुल्के अंदाज में पेश किया।

अनुराग कश्यप निर्देशित फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ को देश के साथ विदेशों में भी सराहा गया। विवादित दृश्यों के चलते कुछ संगठनों ने ये भी कहा था कि फिल्म से उनके शहर की इमेज पर नेगेटिव प्रभाव पड़ा है। ‘बॉम्बे’ फिल्म हिंदू-मुस्लिम के बीच मोहब्बत पर आधारित थी। फिल्मों में ही नहीं, वेब सीरीज में भी अब यही फार्मूला आजमाया जाने लगा है। पंकज त्रिपाठी की वेब सीरीज ‘मिर्जापुर’ ने अपने हिंसक और बोल्ड डायलॉग से लोगों का ध्यान आकर्षित किया। सीरीज के बाद से मिर्जापुर शहर चर्चा में आया। देश ही नहीं, विदेशों के कई शहरों को भी हिन्दी फिल्मों ने सेल्यूलाइड पर उतारा। इनमें लव इन टोक्यो, नाइट इन लंदन, सिंगापुर, चाइना गेट, चांदनी चौक टू चाइना जैसी फिल्में शामिल हैं।

गानों में पिरोए शहरों के नाम

फिल्मी शीर्षकों के अलावा फिल्मी गानों में भी देश-विदेश के शहरों के तराने खूब गूंजे। पुरानी फिल्मों से लेकर नई फिल्मों तक में ऐसे कई गाने बने, जिनमें शहरों के नाम आए हैं। कुछ गाने पूरी तरह उन शहरों पर ही आधारित हैं। अशोक कुमार की ‘आशीर्वाद’ ऐसी फिल्म है जिसके गीत रेल गाड़ी में सबसे ज्यादा शहरों के नामों को शामिल किया गया। शहरों को लोकप्रिय करने वाले गीतों में ये दिल्ली है मेरे यार (दिल्ली 6), तुझसे मिलना पुरानी दिल्ली में (बंटी-बबली का कजरारे कजरारे), दिल्ली की सर्दी (जमीन), बंबई से आया मेरा दोस्त (आप की खातिर), ये है बंबई मेरी जान, ई है बंबई नगरिया तू देख बबुआ (डॉन), अपना बॉम्बे टॉकीज (बॉम्बे टॉकीज), केरल में गर्मी है नैनीताल से सर्दी भेजो जो ‘सिर्फ तुम’ फिल्म के गीत ‘पहली पहली बार मोहब्बत की है’ का अंतरा है। इसके अलावा टिकट खरीद के बैठ जा सीट पे निकल न जाए कहीं चेन्नई एक्सप्रेस (चेन्नई एक्सप्रेस), कश्मीर मैं तू कन्याकुमारी (चेन्नई एक्सप्रेस), काश्मीर की कली हूं मैं (जंगली), पंजाब दा पुत्तर है पिंड जलंधर (2 स्टेट्स), झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में (मेरा साया), खईके पान बनारस वाला (डॉन), मैं बंबई का बाबू (नया दौर), ये है बॉम्बे मेरी जान (सीआईडी) को दर्शक बड़े चाव से गुनगुनाते हैं।

शहरों के नाम सुनकर झूमते दर्शक

सदी के महानायक अमिताभ के मुंह से भी फिल्म ‘डॉन’ में इंदौर का जिक्र हुआ। डॉन का अमिताभ जब एक दृश्य में जब वह पहलवानों से घिर जाता है, तब एक पहलवान को धोबी पछाड़ मारकर कहता है ‘हम भी विजय बहादुर पहलवान इंदौर वाले के चेले रह चुके हैं।’ फिल्म ‘नौ दो ग्यारह’ में देवानंद इंदौर से गुजरते हुए इंदौर रेलवे स्टेशन पर जाकर चलो महू महू चलो की आवाज लगाते हैं तो ‘शोले’ में सुरमा भोपाली जगदीप गप्पें मारते हुए कहता है -अपना भोपाल होता तो ...! फिल्म ‘धर्मा’ के क्लाइमेक्स में तवायफ बिंदु खलनायक प्राण से कहती है- ‘दिवाली की रात में इंदौर के राज दरबार से मुजरा करके आ रही थी, तो रास्ते में उसे एक बच्चा मिला।’ फिल्म ‘हमारे तुम्हारे’ में संजीव कुमार इंदौर, भोपाल वालों के उच्चारण पर टिप्पणी करते हैं- तुम इंदौर भोपाल वाले गोरी को गौरी कहते हो! ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म के बाद फिर से ऐसे ही प्रयोग शुरू हो गए!

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