प्यार के ऑफर को रिजेक्ट करना, लेकिन दोस्त बने रहना जैसी सोच 1960 में बनी फिल्म ‘काला बाजार’ के कथानक का हिस्सा रही। संजीदगी से मनोरंजन शैली में रिश्तों की गरिमा को बनाये रखने का संदेश और ‘एंटी हीरो’ की शुरुआत करने वाली थी यह फिल्म। देव आनंद और वहीदा रहमान की बेहतरीन अदाकारी और विजय आनंद के निर्देशन ने इस ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ फिल्म को ‘सदाबहार’ बना दिया।
‘दो का चार, पांच का दस’ ब्लैक में टिकट धड़ल्ले से बिक रहे हैं। मल्टीप्लैक्स, ऑनलाइन बुकिंग के जमाने में यह नयी बात है। मगर यह कौतूहल भरी शुरुआत भली प्रतीत होती है। यह शुरुआत हमें स्मृतियों के उस गलियारे में ले जाती है जो भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम काल पर जाकर बंद होता था। स्वर्णिम काल इसीलिए क्योंकि तब न टेलीविजन होता था, न मनोरंजन का कोई अन्य साधन। सिर्फ ये फिल्में ही होती थीं जिन्हें सिनेमाहाल में बच्चे-बूढ़े एक साथ देखते थे। इस बात का निर्देशक द्वारा बाकायदा ध्यान रखा जाता था कि हर उम्र के लोग एकसाथ फिल्म देख पाएं। ‘सरकाई लो खटिया जाड़ा लगे’ जैसी छिछोरी फिल्में न बन पाएं। ‘काला बाजार’ फिल्म वो कालजयी क्लासिक है जो किसी समय से नहीं बंध सकती। इसे हर युग का बच्चा एनजॉय करेगा। इसके निर्देशक जमाने को ‘गाइड’ जैसी फिल्म देने वाले विजय आनंद थे, जिन्होंने ठोकठोक कर किरदार ढूंढ़े और उन किरदारों को जिन्होंने अभिनीत किया वह निर्देशक की पकड़ कही जा सकती है। विजय आनंद जानते थे कि किस से कौन-सा काम लेना है। कुछ सीक्वेंस यथार्थ के काफी निकट बन पड़े हैं और यह निर्देशक की फिल्म के बारे में समझ और पकड़ है। देव आनंद और वहीदा रहमान की क्या केमिस्ट्री बन पड़ी है इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म में। शायद इस फिल्म में दोनों की केमिस्ट्री देखते हुए उन्होंने ‘गाइड’ में भी दोनों को लेने का विचार किया। इस पूरी फिल्म में एक भी बोर सीन नहीं है, जिसे देखकर बाहर चाय पीने की तलब तारी हो जाये और इसी बहाने दर्शक सिनेमाहाल से उठ जाये। यह ऐसी फाइन मूवी है जो शिक्षा की महत्ता पर तो सोशल मैसेज देती है, लेकिन यह मैसेज भाषण नहीं लगता। इस फिल्म में वहीदा पर जो शॉट लिये गये हैं, वे एक बारगी तो सोचने पर विवश करेंगे कि यह शॉट कहां से लिया गया होगा और इसका विचार कैसे आया होगा। खासकर मंदिर वाला सीन तो दर्शकों को याद ही होगा। वहीदा काफी ताजगी लिये हुए हैं, देवआनंद के सामने भी वह कमतर नहीं दिखतीं। वह भी ऐसे समय में जब देवआनंद स्टार बन चुके थे। उस सीन की भी याद करा दूं जब ‘रिमझिम के तराने’ गीत गाते हुए एक छाते के नीचे हीरो और हीरोइन साथ-साथ चल रहे थे। इस फिल्म में वहीदा रहमान की देवआनंद के साथ केमिस्ट्री देखकर ही चेतन आनंद ने काला बाजार के पांच साल बाद ‘गाइड’ बनायी थी। नवकेतन फिल्म प्रोडक्शन की ये दोनों फिल्में शाहकार कही जा सकती हैं। सारे के सारे गीत मोहम्मद रफी के साथ गीतादत्त ने गाये हैं। एकाध गीत गीतादत्त ने सुधा मल्होत्रा के साथ भी गाया है। फिल्म में गीत और संगीत उम्दा होना नवकेतन फिल्मों की निशानी है। यह पहली फिल्म है, जिसमें तीनों आनंद बंधुओं ने काम किया। वर्ष 1960 में रिलीज हुई इस फिल्म के कैमियो में बॉलीवुड के कई सितारे आये। ये सितारे फिल्म में दिखई जा रही मदर इंडिया के प्रीमियर में शामिल होने के लिये आये थे। इस फिल्म में जो देवआनंद का भाई बना था, वह दोस्ती फिल्म वाला सुशील ही था, जो उस फिल्म में रामू बना था। यह फिल्म सुपरहिट रही इस फिल्म ने बॉलीवुड को एंटी हीरो की अवधारणा दी, जिसे भुनाकर ही बाद में अमिताभ बच्चन हीरो बने। लेकिन नवकेतन फिल्मों का यह हीरो दर्शकों के दिल के करीब है, जबकि बाद की फिल्मों के एंटी हीरो को देखकर प्यार नहीं, व्यवस्था पर गुस्सा आता है, हीरो ही हालत पर दया आती है। दिल के करीब लगने वाले ये एक्शन विजय आनंद की फिल्मों के हीरो को ही आते हैं। काला बाजार बाद में भी बनी। अनिल कपूर और जैकी श्राफ के साथ किमी काटकर के नखरे और फरहा के साथ 1989 में रिलीज इस फिल्म को नाम भी काला बाजार दिया गया था। वह काला बाजार गैर-कानूनी ढंग से बनी बिल्डिंगों का है, जिसका नक्शा पास कराने की एवज में म्युनिसिपल कमेटी का स्टाफ रिश्वत खाता है। चेतन आनंद की फिल्म क्लासिक है। जहां रघुवीर (देवआनंद) एक गरीब कंडक्टर होता है, जिसे एक सवारी से बदसलूकी करने के आरोप में नौकरी से निकाल दिया जाता है। घर में गरीबी का यह आलम है कि मां (लीला चिटनिस) बीमार है, उसकी दवा-दारू के अलावा दो भाई-बहनों को भी देखना है। अपने परिवार को पालने की खातिर वह ब्लैक मार्केट में जाना-माना चेहरा बन जाता है। लेकिन यह सब करते हुए उसकी आत्मा उसे झिंझोड़ती है। उसके अंदर का इंसान उसे यह सब करने की इजाजत नहीं देता। वह लोगों का दिल जीतना चाहता है। उसके अंदर का बच्चा अभी जीवित है। वह अलका (वहीदा रहमान) के प्यार में पड़ जाता है। लेकिन अलका नैतिक रूप से ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि उसकी सगाई नंद किशोर से हो चुकी है। नंद किशोर का किरदार विजय आनंद ने निभाया है। यह जानते हुए भी कि अलका की शादी होने वाली है, रघुवीर का प्यार अलका के लिए कम नहीं होता। अब यह विजय आनंद के डायरेक्शन का कमाल है जो जिंदगी में असल रूप में घटता है वह उसी को ही तरजीह देते हैं। जज्बों के सामने नैतिकताएं किस काम की। वह तो समाज को बचाने के लिए समझदार लोगों ने गढ़ी हैं। जज्बात तो नैतिकताओं को खूंटे में बांध कर रखते हैं। अलका के बार-बार समझाने पर वह नहीं मानता तो अलका हथियार डाल देती है और उसका प्यार स्वीकार कर लेती है। क्योंकि वह भी तो अंदर ही अंदर रघुवीर से प्यार करती है। वह जानती है कि रघुवीर के अंदर एक भला इंसान रहता है, लेकिन बदकिस्मती से रघु पुलिस के हत्थे चढ़ जाता है। अब मूवी यहां से खासा मोड़ लेती है। उससे पहले अलका और उसके परिवार को रिझाने के सीन चलते हैं, कहीं-कहीं गाना बजाना होता है। रघुवीर पर केस चलता है। कोर्ट रूम में ही वकील देसाई (चेतन आनंद, जिन्होंने हकीकत फिल्म बनायी थी) बताते हैं कि किस तरह काला बाजार सफेद बाजार बनकर उभरा है। कोर्ट में वकीलों की बहस देखते ही बनती है। आखिर में रघुवीर अलका से मिल जाता है। अंतिम सीन दर्शकों को एक पॉजिटिव नोट के साथ छोड़ता है कि सच्चा प्यार विश्वास की रोशनी में पनपता है। अंत में अलका और रघुवीर एक ही छाते के नीचे गाना गाते हुए दिखते हैं कि ‘रिमझिम के तराने लेके आई बरसात।’ ‘काला बाजार’ फिल्म ‘नौ दो ग्यारह’ के बाद विजय आनंद के निर्देशन में बनी दूसरी सुपरहिट मूवी है। निर्देशन की खूबी है कि कहानी में हीरो-हीरोइन भावनात्मक रूप से ऊपर उठे होते हैं, इसीलिए कई बार कानूनों को धता बता देते हैं। आठवीं पढ़ा रघुवीर कैसे अलका के प्यार के कारण लिखना-पढ़ना सीखना शुरू करता है। चेतन आनंद ने जैसे नौ दो ग्यारह में महाबलेश्वर की खूबसूरती को हीरो-हीरोइन के सीन में उतारा है। वैसे काला बाजार में ऊटी को दोनों के करीब लाने का साधन बनाया है। ऊटी के बागों में ही रघुवीर ‘खोया खोया चांद’ गीत गाकर अलका को रिझाता है। बांहें पसार कर, अपने सदाबहार स्टाइल में।
आज के जमाने में उनका डांस भले ही अच्छा प्रतीत न हो, लेकिन उस जमाने में उनके डांस के इसी अंदाज के दर्शक दीवाने थे। फिल्म में लव स्टोरी ताजगी भरी है। पटकथा में तब भी इस बात को मामूली-सा ही लिया है जब अलका रघुवीर को रिजेक्ट तो करती है लेकिन उसकी दोस्त बनी रहती है। इससे पता लगता है कि रिश्तों के प्रति निर्देशक की सोच खूब परिपक्व व प्रगतिशील है। जो फिल्मों में कैमियों का रिवाज़ आया है, आधुनिक फिल्मकारों ने ‘काला बाजार’ से ही नकल की है। फिल्म के शुरू होते ही दिलीप कुमार, नरगिस, गुरुदत्त, सोहराब मोदी, किशोर कुमार सरीखे सितारे दिखे। ‘ओम शांति ओम’ फिल्म फराह खान ने सितारों को जो पर्दे पर दिखाया, इसी फिल्म की नकल है।
निर्माण टीम
निर्देशक, कहानी और पटकथा : विजय आनंद
प्रोड्यूसर : देवआनंद
गीतकार : शैलेन्द्र
संगीतकार : एसडी बर्मन
सितारे : देवआनंद, चेतन आनंद, विजय आनंद, वहीदा रहमान, नंदा, हेलन
गीत
खोया-खोया चांद : मोहम्मद रफी
तेरी धूम हर कहीं : रफी
अपनी तो हर आह : रफी
रिमझिम के तराने
ले के : गीतादत्त, मोहम्मद रफी
न मैं धन चाहूं : गीतादत्त, सुधा
सांझ ढली, दिल की लगी : आशा भोलसे, मन्ना डे
संभालो संभालो
अपना दिल : आशा भोसले
सच हुए सपने तेरे : आशा भोसले