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चुनावी विमर्श के गायब मुद्दे

गैर-जरूरी मुद्दे आज चुनाव आकर्षक वादों और आधारहीन दावों के बल पर लड़ा-लड़ाया जा रहा है। जनता से जुड़े मुद्दों को नज़रंदाज़ कर विकास के दावे किए जा रहे हैं। मतदाता को राजनीतिक दलों से उनके दावों और वादों के...
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गैर-जरूरी मुद्दे

आज चुनाव आकर्षक वादों और आधारहीन दावों के बल पर लड़ा-लड़ाया जा रहा है। जनता से जुड़े मुद्दों को नज़रंदाज़ कर विकास के दावे किए जा रहे हैं। मतदाता को राजनीतिक दलों से उनके दावों और वादों के आधार के बारे में पूछना चाहिए। एक तरफ तो पांचवें पायदान से तीसरे पायदान पर पहुंचने के दावे और वादे किए जा रहे हैं और दूसरी ओर देश की अस्सी करोड़ जनता को मुफ़्त अनाज देने की आवश्यकता पड़ रही है, यह कैसा विकास है? वास्तविकता तो यह है कि चुनावी मुद्दों के नाम पर अनावश्यक मुद्दे उछाल कर जनता का ध्यान विकेंद्रित किया जा रहा है।

मनजीत कौर 'मीत', गुरुग्राम

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प्रतिभा पलायन रुके

चुनाव का मौसम आते ही राजनीतिक दल जन साधारण का ध्यान वास्तविक मुद्दों से भटकाने के लिए ऐसे-ऐसे मुद्दे लाते हैं जो मतदाताओं को भ्रमित करते हैं। देश के आम चुनाव में चुनावी मुद्दे जनसाधारण की समस्याएं होनी चाहिए, जो उनके दैनिक जीवन को प्रभावित करते हैं। आज के मेधावी युवा देश से विदेश में पलायन कर रहे हैं। मुद्दा यह होना चाहिए कि उनका पलायन रोका जाए। उन्हें रोजगार दिया जाए। देश का आर्थिकी विकास के साथ आम आदमी की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो। आम जनता से जुड़े मुद्दे चुनाव का मुद्दा होना चाहिए।

श्रीमती केरा सिंह, नरवाना

जरूरी कारक

चुनाव आते ही सभी राजनीतिक दल लुभावने वादों से जनता को रिझाने में लगे हैं मगर जिन मुद्दों को चुनाव विमर्श में अाना चाहिए वे गायब हैं। सबसे पहला मुद्दा शिक्षा का होना चाहिए। राजनीतिक दलों को चाहिए कि वह नागरिक स्वास्थ्य का भी मुद्दा बनाएं। आज भी स्वच्छ पेयजल हर जगह उपलब्ध नहीं है। कृषि क्षेत्र जल संकट से जूझ रहा है। पर्यावरण सुरक्षा की भी बात होनी चाहिए। बढ़ते प्रदूषण पर कोई भी राजनीतिक दल बात नहीं करता। सबसे अहम मुद्दा बेरोजगारी का तो है ही। मतदाताओं को भी चाहिए कि उचित मुद्दों पर बात करने वाले दलों को ही अपना वोट दें।

पूनम कश्यप, नयी दिल्ली

विवेकशील बनें

आगामी लोकसभा चुनावों पर सबकी नजर है। राजनीतिक पार्टियां अपनी-अपनी चुनावी घोषणाओं से जनमानस को लुभाने की कोशिशों में लगी हैं। भोली जनता सोचती है कि इस बार दिन बहुरेंगे। समस्याओं से निजात मिलेगी। पेयजल, प्रदूषण, आवागमन के साधन, शिक्षा और स्वास्थ्य, बेरोजगारी, नशे की बढ़ती प्रवृत्ति का समाधान होगा। अंततोगत्वा नये थैले में पुरानी समस्याएं ज्यों की त्यों। चुनावी घोषणा केवल दिखावा मात्र साबित होता है। सत्ता हथियाने के लिए जनता से किए वादे धरे के धरे रह जाते हैं। किंकर्तव्यविमूढ़ जनता ऊहापोह की स्थिति में पहुंच जाती है। नयी किरण की उम्मीद में अपने मत का प्रयोग करने मतदान केंद्र पहुंच जाती है।

शीतल ‘नवीन’, सोनीपत

भटकाने की कोशिश

लोकसभा चुनाव की लहर पूरे देश में चल रही है। राजनीतिक दलों के चुनावी वादों और गारंटी से भरे भाषण आकाशवाणी, टीवी चैनल के माध्यम से जनमानस के मन को लुभाकर मतदान करने को प्रेरित कर रहे हैं। लेकिन इनमें ये गारंटी व वादे किस तरीके से पूरे किए जायेंगे, बेरोजगारी, महंगाई कैसे काबू में होगी इसका खुलासा कोई भी पार्टी नहीं कर रही है। आज गरीब पहले से भी ज्यादा गरीब हो रहा है उसे अमीर के समकक्ष कैसे लाया जाएगा। इसका चित्रण कहीं नहीं है, सिर्फ सीटों की संख्या कितनी जीतना होगी ये बता कर जरूरी मुद्दों से भटकाने की कोशिश है।

भगवानदास छारिया, इंदौर

पुरस्कृत पत्र

जरूरी मुद्दों की अनदेखी

चुनावों में राजनीतिक दल प्रायः वही मुद्दे उठाते हैं जिनसे उन्हें वोट मिल सकें। नागरिक सरोकारों से जुड़े मसलों से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं होता। भारत में हर साल 15 लाख लोगों की मौत अकेले प्रदूषण से होती है। पिछले दिनों 60 हजार रिक्तियों के लिए 48 लाख से ज्यादा युवा परीक्षा में बैठे। प्रदूषण, बेरोज़गारी और शिक्षा जैसे ये मूलभूत विषय किस राजनीतिक दल के चुनाव प्रचार में विमर्श का विषय बने। जल, जंगल, जमीन, प्रकृति या पर्यावरण की सीढ़ी चढ़कर सत्ता तक पहुंचने की दृष्टि किस सियासी दल के पास है? गारंटी व वादों की चूसनी को मुंह में लिए किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति को प्राप्त मतदाता कब अपने फ़र्ज़ को पहचानेगा?

ईश्वर चन्द गर्ग, कैथल

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