पाठकों के पत्र
संतुलित विदेश नीति
इक्कीस जून के दैनिक ट्रिब्यून में गुरबचन जगत का लेख पड़ोसी देशों से बेहतर संबंधों की आवश्यकता पर केंद्रित था। लेखक ने चीन की कूटनीति को उदाहरण बनाते हुए बताया कि वह आर्थिक, सैन्य और राजनयिक रूप से भारत से आगे निकल चुका है। पहले रूस जैसे देश हमारे विश्वसनीय मित्र थे, पर अब हालात बदल गए हैं। जरूरत है कि भारत अपनी विदेश नीति को संतुलित और प्रभावशाली बनाए, ताकि वह विश्व में नेतृत्वकारी भूमिका निभा सके।
शामलाल कौशल, रोहतक
जागरूक मतदाता
हाल ही में हुए उपचुनावों के नतीजों से स्पष्ट है कि भारतीय लोकतंत्र अब परिपक्व हो रहा है। मतदाता अब केवल चेहरे, नारों या वादों से प्रभावित नहीं होते, वे उसी को वोट देते हैं जो वास्तव में ज़मीनी स्तर पर काम करता है। भाजपा जैसी बड़ी पार्टी की कुछ स्थानों पर हार इस बदलाव का संकेत है। यह एक सकारात्मक दिशा है, जो राजनीति में जवाबदेही बढ़ाएगी। जागरूक मतदाता ही लोकतंत्र की असली शक्ति है और देश के उज्ज्वल भविष्य की नींव भी।
स्मृति, शूलिनी विवि, सोलन
वास्तविक बदलाव जरूरी
छब्बीस जून के दैनिक ट्रिब्यून में विश्वनाथ सचदेव के लेख में सरकार की कथनी-करनी पर सवाल उठाया गया है। लेख में बताया गया है कि नाम बदलने से हालात नहीं बदलते। बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई और भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं से जूझने के बजाय उनके नाम बदलना नीयत में खोट दर्शाता है। युवाओं को ‘रोजगार खोजने वाला’ कहने से नहीं, रोजगार देने से समाधान होगा। वास्तविक बदलाव नीति और क्रियान्वयन से ही संभव है।
जयभगवान भारद्वाज, नाहड़
मानसिक संकीर्णता
उ.प्र. के इटावा में एक भागवत कथा वाचक के साथ जातीय आधार पर अमानवीय व्यवहार की घटना दर्शाती है कि 78 साल बाद भी देश में जातीय उत्पीड़न और घृणा जारी है। हालांकि, पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करते हुए चार आरोपियों को गिरफ्तार किया है। यह घटना मानसिक संकीर्णता और घृणा की निशानी है।
वीरेन्द्र कुमार जाटव, दिल्ली