जन संसद की राय है कि जाति आधारित जनगणना राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित न हो। इसका उद्देश्य सामाजिक न्याय, समावेशी विकास होना चाहिए, न कि जातिगत द्वेष और सौहार्द बिगाड़ना।
आत्म-मंथन का अवसर
जाति आधारित जनगणना केवल आंकड़ों का संग्रह नहीं, बल्कि भारत के सामाजिक आत्म-मंथन का एक सार्थक अवसर है। यह न तो जातिवाद को बढ़ावा देती है और न ही समाज को विभाजित करती है, यदि इसका उद्देश्य न्याय, समावेश और सामाजिक सुधार हो। इसका उपयोग एक राजनीतिक हथियार के रूप में नहीं, बल्कि समाज में संतुलन और समानता लाने के लिए होना चाहिए। भारत को सिर्फ डिजिटल या आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक महाशक्ति भी बनना होगा, जहां हर व्यक्ति की गिनती और हिस्सेदारी सुनिश्चित हो।
सतपाल, कुरुक्षेत्र
वोट बैंक की राजनीति
लोकतांत्रिक देश में हर दस वर्ष बाद जनगणना होना सामान्य प्रक्रिया है, पर विपक्ष इसे राजनीतिक मुद्दा बनाता है। कांग्रेस द्वारा जातीय जनगणना का समर्थन वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित है। नौकरियों में पहले से ही पिछड़े और अनुसूचित वर्गों को 50 प्रतिशत आरक्षण निर्धारित है। ऐसे में जातीय गणना से समाज में आक्रोश, असंतुलन और विभाजन की आशंका है, जिससे राष्ट्रीय एकता प्रभावित हो सकती है। देश में शांति और सौहार्द बनाए रखने के लिए विपक्ष को अपने राजनीतिक स्वार्थ छोड़ने चाहिए।
अनिल कौशिक, क्योड़क, कैथल
उद्देश्य स्पष्ट हो
जातिगत जनगणना से न रोजगार सृजन होगा, न कौशल विकास या उत्पादकता में वृद्धि। इसलिए इसका उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए—जातियों को जोड़कर सामाजिक सशक्तीकरण और हाशिए पर पड़े लोगों के उत्थान के लिए, न कि राजनीतिक स्वार्थ या आरक्षण बढ़ाने के लिए। इससे जातिगत द्वेष न बढ़े और किसी समूह का संसाधनों पर कब्जा न हो। आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों और गरीबों को ही लाभ मिले। शिकायतों का त्वरित समाधान हो ताकि आंकड़े विश्वसनीय और विवादमुक्त रहें।
बृजेश माथुर, गाजियाबाद, उ.प्र.
गोपनीयता जरूरी
भारत की जनगणना जनगणना अधिनियम 1948 और नियम 1990 के तहत होती है। प्रगतिशील भारत में जातिगत जनगणना आवश्यक है, लेकिन इसके आंकड़े गोपनीय रखने चाहिए। इससे जातियों के विकास के लिए उचित योजनाएं बनाना संभव होगा। राजनीतिक या सामाजिक रूप से इससे नुकसान नहीं होगा, क्योंकि भारत एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश है। नागरिकों को संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं, इसलिए जातिगत आंकड़ों की गोपनीयता जरूरी है। इससे कमजोर जातियों के विकास में मदद मिलेगी।
जयभगवान भारद्वाज, नाहड़
राजनीति प्रेरित
जातिगत जनगणना पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है। इसे दलित और पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए जरूरी बताया जाता है, लेकिन देश में बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई और भ्रष्टाचार जैसी बड़ी समस्याओं पर किसी की चिंता नहीं। आज भी लाखों लोग मूलभूत सुविधाओं, शिक्षा और इलाज से वंचित हैं। जाति विशेष की पहचान से ज्यादा जरूरी है कि जनगणना हर वर्ग के गरीबों पर केंद्रित हो। हमें सामाजिक न्याय के बजाय सभी जरूरतमंदों की वास्तविक स्थिति जाननी चाहिए।
राजेश कुमार चौहान, जालंधर
पुरस्कृत पत्र
सौहार्द को चुनौती
राजनीतिक दल भले ही जाति जनगणना को चुनावी जीत का उपकरण मानते हों, पर आम नागरिक को इससे कोई ठोस लाभ नहीं दिखता। नारी, युवा, किसान और ग़रीब को अब तक प्रमुख जातियों के रूप में देखने वाले दल अब जातिगत आंकड़ों के आधार पर पहचान की राजनीति को और हवा देंगे। इससे संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण या सत्ता में समान हिस्सेदारी मिलना तो दूर, सामाजिक सौहार्द बिगड़ने, आरक्षण सीमा के अतिक्रमण और जनाक्रोश बढ़ने की आशंका है। यह कदम देशहित से अधिक राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति का माध्यम बनता दिख रहा है।
ईश्वर चंद गर्ग, कैथल