केसी अरोड़ा/निस
गोहाना, 30 अप्रैल
सूती निवार का नाम सुनते ही मन में हल्की सी उस चारपाई की याद ताजा हो जाती है, जिसे उठाकर किसी भी कोने में डाल लिया करते थे। मजबूत और सालों-साल चलने वाले इस निवार की जगह अब भले ही पॉलिस्टर ने ले ली है, लेकिन गोहाना का सूती निवार आज भी देश में छाया हुआ है। इसकी पहल 57 साल पहले हुई। धीरे-धीरे, लेकिन मजबूती से कदम आगे बढ़ाते हुए गोहाना निवार के उत्पादन में कानपुर को पछाड़ते हुए देश में नंबर वन बन गया। यह भी तब, जब इस उद्योग को कोई सरकारी सहायता नहीं मिली। आर्मी और पैरामिलिटरी फोर्स में मांग घटने से चुनौतियां भी आईं, लेकिन अपने दम पर आज यह उद्योग पूरी तरह ऑटोमैटिक हो चुका है।
बात वर्ष 1965 की है, जब यहां के ओम प्रकाश गुप्ता किसी काम से मोदीनगर गए थे। वहां उन्होंने निवार का उत्पादन देखा। घर लौटे तो मन बना लिया कि निवार का व्यापार करना है। फिर क्या था, उन्होंने घर में ही निवार की यूनिट लगा ली। आर्मी और पैरामिलिटरी फोर्स की डिमांड के कारण निवार की मांग बढ़ गई। 15 साल में ऐसा बूम आया कि निवार उत्पादन में गोहाना देश में नंबर-2 पर आ गया। नंबर वन पर कानपुर शहर था। धीरे-धीरे आर्मी के टैंट निवार की जगह फ्रेम और पॉलिस्टर के बनने लगे।
पैरामिलिट्री फोर्स की चारपाइयां सूती निवार की जगह प्लाई के बोर्ड की बनने लगीं। कॉटन निवार का चलन बेशक घटा, लेकिन गोहाना में इसके उत्पादन पर ज्यादा असर नहीं दिखा। देखते ही देखते गोहाना सूती निवार के उत्पादन में नंबर वन बन गया। अब भी राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड सहित पूरे देश में निवार गोहाना से जा रहा है। बाद में, ओम प्रकाश गुप्ता 1987 से 1991 तक गोहाना नगर परिषद के चेयरमैन भी रहे। उनके बेटे नरेश गुप्ता अब गोहाना निवार एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं।
लॉकडाउन में लगा झटका : 2 साल पहले कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान निवार उद्योग को बड़ा झटका लगा। यह उद्योग बिहार और उत्तर प्रदेश के श्रमिकों से चलता है। जब ये मजदूर घ्ार जाते थे अपने साथ और मजदूरों को लेकर आते थे, लेकिन लॉकडाउन के दौरान गए मजदूर अपने घरों से खुद भी नहीं लौटे। श्रमिकों के उस संकट से निवार उद्योग अब तक उबर नहीं सका है।
लकड़ी की खड्डियों की जगह ऑटोमैटिक मशीनों ने ली
पहले निवार बनाने के लिए लकड़ी की खड्डियों का इस्तेमाल होता था। वर्ष 1997 में गोहाना में पहली ऑटोमैटिक मशीन लगी। 2007 आते-आते समूचा निवार उद्योग ऑटोमैटिक हो गया। सुबह से शाम तक बिजली की मोटर से चलने वाली लकड़ी की खड्डी केवल 25 किलो माल तैयार कर पाती थी। दो खड्डियों की जगह लगने वाली एक ऑटोमैटिक मशीन 150 किलो माल बना देती है। 2 खड्डियों की कीमत दो लाख है। इतनी ही लागत में एक ऑटोमैटिक मशीन लग जाती है।
नहीं मिली सरकारी मदद
प्रदेश में जब भी कोई नयी फैक्टरी लगती है तो उसे सस्ती बिजली और टैक्स में छूट मिलती है, लेकिन निवार उद्योग ने अपने बूते पर पांव पसारे। सरकार की ओर से उद्योग के लिए कोई मदद नहीं मिली। कॉटन यॉर्न पहले पंजाब के समाना शहर से आता था। ट्रांसपोर्ट महंगा हो गया। अब 95 प्रतिशत से ज्यादा कच्चा माल पानीपत से आ रहा है।
5% ही रखा जाए जीएसटी
निवार उद्योग के लिए इंडस्ट्रियल एरिया की दरकार बढ़ी है। गोहाना में इंडस्ट्रियल एरिया डेवेलप होगा तो निवार की फैक्टरियां ज्यादा विकसित हो सकेंगी। शुरुआत में निवार पर 12 फीसदी जीएसटी लगता था। लंबे संघर्ष के बाद इसे सरकार ने 5 फीसदी किया है। अब दोबारा इसे 12 फीसदी करने की चर्चा है। इसे 5 % ही रखा जाना चाहिए।
– नरेश गुप्ता, अध्यक्ष, गोहाना निवार एसोसिएशन