कोरोना बंदिशों से खुलते देश में होली को लेकर गजब उत्साह है। नई पीढ़ी एकरसता की रस्म अदायगी से इतर नये अंदाज, नयी उमंग और नये उल्लास से होली मनाने को आतुर है। होली के तमाम रंगों और उससे जुड़े विभिन्न आयामों पर एक नजर।
अलका कौशिक
होली, हुड़दंग, पिचकारी, रंग, कीचड़ गुलाल, केसर,कीचड़ चंदन, भांग। यही सब देखते हुए जमाना बीतता जा रहा है पर होली का उल्लास 21वीं सदी के नए रंग में घुलता नजर नहीं आ रहा। होली के दिन दिल खिल जाते हैं रंगों में मिल जाते हैं…या रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे जैसे गाने भी पुराने पड़ चुके हैं। पिचकारियों रूप स्टेनगन की तरह हुए भी एक दशक होने को है। ऐसे में होली में नए रंग, उल्लास और उत्साह के तरीके जोड़ने का समय दस्तक दे रहा है। बरसाने की लठमार होली, वृंदावन की गुलाल से सराबोर होली भी दशकों से हमें कुछ नया करने की ललकार-पुकार दे रही है। अब कोरोना बीत रहा है तो होली को नया रंग दे सकते हैं।
यह मामला सरकारी होता तो हम एक कमेटी बैठाने की सोच सकते थे जो होली के विशेषज्ञों को, बनारस के भांग घोटुओं को, मथुरा के पेड़ेबाजों को शामिल कर मैराथन विचार विमर्श करती और अपनी सिफारिशें संस्कृति मंत्रालय भेजती। होली सरकारी नहीं है, यह रंगों का जनांदोलन है और इसमें लाल फीताशाही की दखल सिर्फ लाल तक ही सीमित रखी जा सकती है। फीताशाही नहीं चाहिए। हमें कुछ ऐसा करना है जो नए जमाने के ढर्रे पर खरा हो। सोशल भी हो और डिस्टेंसिंग भी ज्यादा न करता हो। दो गज की दूरी से होली खेलना कतई नहीं जरूरी। ईद और होली गले लगे या पड़े बिना नहीं मनायी जा सकती। ऐसे में हमें उन देशों का रुख करना होगा जो हुड़दंग तो जमकर करते हैं लेकिन उसे होली के बजाय कुछ और नाम से मनाते हैं। सर्दियों को अलविदा कहने, गुलाल लगाने और रंग बरसाने के तरीके पूरी धरती पर हैं। इन रंगों को समाज में स्वीकारने और साहित्य में उतारने के औजार ही तो चाहिए।
तो चलो पहले रोम चलते हैं। इटली के इस रंगीन शहर में जब वैलेंटाइन का रोमांस उतरता है तो वह युवक-युवतियों तक सीमित नहीं रहता। इसमें परिवार अपने बच्चों के संग कम्युनिटी पार्कों में जमा होते हैं। बच्चे आम पोशाकों के बजाय शेर, बिल्लियों, खरगोशों और कुत्तों जैसे जानवरों के कपड़े पहनकर आते हैं। हाथों में होती हैं पिचकारीनुमा पिस्तौलें और बंदूकें। इनकी नलियां कागज की चिंदियों से ठुंसी होती हैं। धायं की आवाज की तरह गोली चलती है और नलियों से होता है रंगों का विस्फोट। इसी तरह अनार की तरह होती है इन्हीं रंग-बिरंगे कागजों की आतिशबाजी।
इससे आइडिया यही आ सकता है कि क्यों न हमारी होली की आतिशबाजी में भी अनार हों, राकेट हों और वे आग के बजाए गुलाल की बौछार करते हों। हो सकता है इस नई तरह की होली की झलक आपको सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर मिल जाए। फेसबुक, इंस्टाग्राम और गूगल पर नई तरह की पिचकारियों से आपका मनोरंजन करने की तैयारी चल रही है। बस इनके मॉडल आपको जमीन पर, वर्चुअल से असल पर लाने की जरूरत है।
रंगों के लिए बाल्टियां छोड़ कुछ नए फलों-सब्जियों को होली में घसीटने का वक्त हमें स्पेन से ललकार रहा है। स्पेन का ला टमाटिनो फेस्टिवल अगर होली का हुड़दंग नहीं तो और क्या है? उधर, एक और भूमध्यसागरीय देश इटली में संतरा और कीनू अधिक होता है और इनका इस्तेमाल भी ‘फ्रूट फाइट’के लिए होता है।
पिछले साल ही तो मुझे न्योता मिला था एक अनूठी होली के उल्लास में गुम होने का। यह ऐसी होली थी जिसमें किसी नशे के बजाय हम हंगामे में धुत हो गए थे। होली के इस उत्सव में कीचड़ की बजाय मुलतानी मिट्टी को प्लास्टिक के बड़े-बड़े टबों में घोलकर रखा गया था। पार्क की हरी घास पर पानी की बौछार से रपटन पैदा की गई और कारों की धुलाई में काम आने वाली पानी की ट्यूबों से एक-दूसरे को नहलाया गया था। इस तरह के प्रयोग हर घर को अपने-अपने हिसाब से करने होंगे। होली के हुल्लड़ को बदतमीजी और अश्लीलता से दूर ले जाने का समय आ पहुंचा है।
होली के उल्लास में नयापन जोड़ने का समय यही है। बीते दो साल की मनहूसियत से बाहर निकलने का समय है। सावधानी के साथ एक बार फिर रंग-गुलाल की मस्ती और बसंती सुरूर में डूबने का समय है। कांजी, ठंडाई और मठरी, गुंजिया संग दही-बड़ों के स्वाद जीभ पर फिराने का समय है।
संगीत संग होली
राग काफी में होली की मस्ती सुने बगैर उत्तर भारत की होली कब पूरी हुई है। सच तो यह है कि होरी, कजरी, ठुमरी, चैती गायन और होली एक-दूसरे में इतना गुंथ चुके हैं कि इनके बगैर एक-दूसरे की कल्पना भी नामुमकिन है। बेगम अख़्तर से लेकर शोभा गुर्टू, गिरिजा देवी, सविता देवीसे होते हुए मालिनी अवस्थी तक ने हर दौर में, हर उम्र में होली के गीत गाए हैं। लोक गायन में भी होली है, शास्त्रीय राग-रागिनियों में भी और हिंदी सिनेमाई संगीत ने तो होली को अलग ही पहचान दिलायी है। और पं. छन्नूलाल मिश्र के स्वर में ‘भूत पिसाच बटोरी, दिगंबर खेलैं मसाने में होरी’ नहीं सुनी तो क्या किया। अमीर खुसरो का आज रंग है सखी री आज रंग है, भला किसे भूल सकता है। होली ने संप्रदायों की दीवारें भी लांघी हैं, तभी तो जहांगीर और नूरजहां के होली खेलने के जिक्र मिलते हैं। अकबर भी अपनी हिंदू पत्नी जोधाबाई संग होली खेलते थे। मुगलों के महलों में होली थी तो लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह की होली के किस्से भी
खूब हैं।
और नज़ीर अकबराबादी की शायरी के बगैर तो होली सचमुच अधूरी है –
‘जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की’
खेलें मसाने में होली दिगंबर
कौन सोच सकता है श्मशान में भी होली खेली जा सकती है। काशी में होती है श्मशानघाट पर होली, मसाने की होली इसे ही कहते हैं। काशी की हर शै बाकी हर जगह से अलग है, तो फिर होली भी अलग क्यों न हो! यहां के प्रसिद्ध मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाटों पर धू-धू कर जलती चिताओं की लपटों के साथ ही रंग-गुलाल और भस्म उड़ाकर होली खेलने की परंपरा करीब साढ़े तीन सौ साल पुरानी है। मान्यता है कि भगवान शिव रंगभरी एकादशी के दिन ही मां गौरा का गौना कराकर काशी नगरी लौटे थे और उसके अगले दिन उन्होंने अपने गणों के साथ यहां होली खेलने की परंपरा शुरू की। तो पहले इस दिन खुद बाबा विश्वनाथ अपने औघड़ रूप में यहां अपने गणों, भूतों-पिशाचों की टोली संग होली खेलते हैं। रंगभरी एकादशी के दिन महाश्मशान पर भस्म और राख से जब होली खेली जा रही होती है तो डमरू की डमड-डमड और हर हर महादेव की गूंज से जो अद्भुत दृश्य तैयार होता है, वह रौंगटे खड़े कर देने वाला होता है।
पर्यटन भी जुड़ा है होली से
ब्रज में महीने भर चलता है होली का उत्सव। बरसाने की लट्ठमार होली और वृंदावन में बांके-बिहारी से लेकर मथुरा-गोकुल तक के मंदिरों में उड़ते रंग-गुलाल देखने, उस मस्ती और सुरूर को महसूस करने के लिए बरसों से दूर-दराज से सैलानी इन शहरों-कस्बों में उतरने लगते हैं। पिछले दो बरसों में कोविड ने इन सिलसिलों पर ब्रेक लगायी थी वरना टूरिस्टों के जत्थे हफ्तों पहले से यहां जमा होने लगते थे। यहां तक कि होली के इर्द-गिर्द बाकायदा वॉक/टूर/हेरिटेज ट्रिप वगैरह का भी अच्छा-खासा कारोबार चल निकला था। काशी की होली के बगैर कैसी होली! यहां की होली देखने लोग दूर-दूर से आते हैं। घाटों पर, गलियों में होली के रंगों में सराबोर होने के अलावा एक खास बूटी घुली ठंडाई, पकौड़ियाें की मस्ती में झूमने और हास्य-सम्मेलनों की महफिलों का लुत्फ लेने पहुंचते रहे हैं सैलानी। वहीं आनंदपुर साहिब (पंजाब) में होला-मौहल्ला की रौनक देखते ही बनती है। खालसा पंथ की स्थापना के बाद, गुरु गोविंद सिंह ने 17वीं शताब्दी में चैत्र प्रतिपदा पर होले-मौहल्ले की शुरुआत की थी। मुख्य रूप से निहंग सिखों का यह पर्व भाईचारे, बहादुरी और सामुदायिक भावना का प्रतीक है। युद्ध कौशल, रंग-गुलाल, लंगर और ठंडाई के मेल वाला यह पर्व प्रमुख पर्यटक आकर्षण भी बन चुका है। उधर अरुणाचल प्रदेश का ‘वॉटर फेस्टिवल’ संगकेन पारंपरिक नववर्ष पर (14 से 16 अप्रैल) के दौरान थेरावदा बौद्ध समाज मनाता है जिसमें लोग बौद्ध प्रतिमा को जल-स्नान कराते हैं। इसे घरों-मोहल्लों में नहीं बल्कि बौद्ध मठों में खेला जाता है। भगवान बुद्ध को सराबोर करने के बाद मठ के कोने-कोने को, एक-एक पेड़-पौधे तक को पानी से नहलाया जाता है। थाइलैंड में सोंगक्रन भी जल पर्व है जिसे 13 से 15 अप्रैल तक मनाते हैं। इसमें भी होली वाला हुल्लड़, गली-मोहल्लों में संगीत, गाना-बजाना और पिचकारी में पानी भरकर एक-दूसरे पर डालने की रिवायत है। स्पेन का ला टोमाटिनो हालांकि जल उत्सव तो नहीं है लेकिन पके हुए टमाटरों को जिस तरह से एक-दूसरे पर फेंका जाता है, वो अंदाज़ होली की याद दिलाता है। स्पेन के दक्षिण-पूर्व में बैलेंसिया प्रांत में करीब दस हजार की आबादी वालेबुन्योल शहर में इसे देखने के लिए दुनियाभर से करीब पचास हजार टूरिस्टों की भीड़ जब उमड़ती है तो शहर फूलकर कुप्पा हो जाता है। अगस्त के महीने में हफ्ते भर तक चलती है यह निराली होली या ‘फूड फाइट’।