अनुपम कुमार
महात्मा गांधी की जयंती पर उनका प्रिय भजन देश के कोने-कोने से ध्वनित हो उठता है। यह भजन है, ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए, जो पीड़ पराई जाणे रे।’ दूसरों के दुख को समझने वाला ही तो वैष्णव जन है। वर्तमान में तो यह बात एकदम सामयिक भी है। असल में वैष्णव जन के आचरण को परिभाषित करता यह भजन गांधी जी के जीवन जीने के मकसद को भी संचालित करता था। इस भजन को हर दिन उनकी प्रार्थना में भी शामिल किया जाता था। मामला प्रार्थना तक ही सीमित नहीं था, उनके जीवन में जब भी ऐसा प्रसंग या परिस्थिति सामने आई तब उन्होंने दूसरों की पीड़ा को जानने समझने और उसे दूर करने की कोशिश की। गांधी का यह कर्म सही मायने में धर्म से जोड़ता है। सच्चा मानव धर्म है परोपकार। इस अर्थ में देखें तो वास्तविक तौर पर हिंदू धर्म और वैष्णव भक्त का मतलब है जो दूसरों की पीड़ा को समझता है और अहंकार रहित होकर दूसरों का उपकार करता है।
घोषित सनातनी हिंदू के रूप में महात्मा गांधी अपने को धार्मिक व्यक्ति के रूप में भी सामने लाते हैं। लेकिन उनकी नजर में धर्म-कर्म या धार्मिक कार्य का मतलब किसी ईश्वर का गुणगान और चौबीस घंटे भजन-कीर्तन करना नहीं है। उनके लिए ‘सत्य ही ईश्वर है।’ इस सत्य की खोज करना ही ईश्वर को पाने जैसा है। सत्य की प्रतिष्ठा करना समाज में भगवान की प्रतिष्ठा करना है। इसके लिए बहुत सारे संत महात्मा, विचारक और इस कड़ी में गांधी भी आजीवन प्रत्यनशील रहते हैं। उनकी नजर में अहिंसा उस सत्य को साकार करने का साधन है।
महात्मा गांधी को हिंदू धर्म के उपासक के रूप में देखा गया है। उनका यह हिंदू धर्म पाखंड और आडंबर से कोसों दूर था। उनके लिए हिंदू धर्म सच्चा मानव धर्म है, जो जाति-पाति और छुआछूत से परे जाकर मनुष्य को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित करता है। दुख और पीड़ा में फंसे मनुष्य का परोपकार करता है। और ऐसा करते वक्त किसी तरह का अभिमान नहीं रखता। मानव धर्म के उत्तम आदर्श की परिभाषा वह भक्तिकालीन कवि नरसी मेहता की कविता ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए…’ में पाते हैं। वैष्णवजन के इस रूप को लोगों के समक्ष रखते हुए मेहता कहते हैं, वह यानी वैष्णवजन विनम्र हो, सबका आदर करता हो, दूसरों की निंदा नहीं करता हो। मन, वचन और कर्म तीनों से निश्छल हो। सबको समान नजर से देखता हो और उसका मन तृष्णा से मुक्त हो। पराई स्त्री को मां की नजर से देखता हो। उसकी जिह्वा असत्य न बोले और दूसरों के धन को पाने की इच्छा न करे। इस तरह के आदर्श आचरण से युक्त व्यक्ति ही सच्चा वैष्णव कहलाने का अधिकारी है। इस आदर्श आचरण को अपने जीवन में उतारने की कोशिश गांधी भी करते हैं। उनका यह स्वभाव धर्म का मूलमंत्र है। वह अपने आप को हिंदू धर्म में सनातन परंपरा से जोड़ते हैं।
मानव समाज एक कुटुंब
वेदों के अध्ययन का हवाला देते हुए गांधी जी कहते हैं, वेदों में जाति प्रथा का समर्थन नहीं किया गया है। हिंदू धर्म का अनुयायी समदर्शी होता है। इस बात पर गांधी विशेष जोर देते हैं और दूसरे धर्म का भी आदर सम्मान करते हैं। उसे नीचा दिखाने की कोशिश नहीं करते। उनका धर्म मानव समाज को एक कुटुंब के रूप में देखता है। इस कारण से दूसरे धर्म के लोगों से भी अपनत्व की भावना रखता है। उनका यह आचरण परिस्थिति या प्रसंग विशेष में दूसरों को खटकता है, लेकिन ऐसा है नहीं। जिस धर्म को प्रतिष्ठित कर रहे थे वह सत्य और नैतिकता पर आधारित है। इसमें संपूर्ण मानवता के कल्याण की भावना व्याप्त है। वह इस मूल भावना को प्रतिष्ठित करते हुए कहते हैं, ‘परमात्मा का कोई धर्म नहीं है।… मैं उसे धार्मिक कहता हूं जो दूसरों का दर्द समझता है।’ देखा जाए तो आज धर्म का मूल और सच्चा अर्थ यही है जो अलग-अलग रूपों और माध्यमों से प्रतिध्वनित होता है। वैष्णवजन वाली कविता में भी धर्म के इसी मूल अर्थ को पिरोया गया है, समाज और मनुष्य इससे दिग्भ्रमित है, इसलिए धर्मच्युत है। उसे धर्म का अनुयायी कहने पर सवालिया निशान लगाया जा सकता है।