मैलोडी वाली फिल्मों का इंतजार...
बॉलीवुड में अरसे से म्यूजिकल फिल्में नहीं बनाई जा रही हैं। इसकी एक वजह बेशक रोमांटिक फिल्मों की कमी है जिनमें सिचुएशन के हिसाब से बेहतर सुर रचना होती है। वहीं अब फिल्मकारों में धैर्य की कमी है।
असीम चक्रवर्ती
मैलोडी से युक्त संगीत का पुराना सुनहरा दौर याद आता है, जब सामान्य सी फिल्म के भी सारे गाने कर्णप्रिय होते थे। दरअसल, ऐसे गानों की सिचुएशन रोमांटिक फिल्म में ही बनती है। लेकिन पिछले कुछ साल से बॉलीवुड में शायद ही कोई रोमांटिक फिल्म आई है,जो दर्शकों के दिलोदिमाग में बस गई हो। बात एकदम वाजिब है।
शुद्ध रोमांटिक फिल्मों का अभाव
बरसों बीत गए,बैजू बावरा,बॉबी,लव स्टोरी, एक दूजे के लिए,मैंने प्यार किया,कयामत से कयामत तक,दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे,हम आपके हैं कौन, गदर-एक प्रेम कथा जैसी रोमांटिक फिल्म देखने के लिए बेताब से हैं। अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि म्यूजिकल फिल्मों की भरपूर गुंजाइश रोमांटिक फिल्मों में ही होती है। राज कपूर, देव आनंद,राजेंद्र कुमार आदि पुराने दौर के नायक इस बात को समझते थे, इसलिए उनकी फैमिली ड्रामा वाली फिल्मों में रोमांस का पूरा पुट होता था।
वो यादगार दौर
शायद इसलिए हम चाह कर भी उस दौर को भुला नहीं सकते, जब सामान्य सी फिल्म के भी सारे गाने कर्णप्रिय होते थे। जब यह दौर बदला, तो फिल्मों में हिंसा का प्रभाव बढ़ता चला गया। हालांकि यश चोपड़ा, आदित्य चोपड़ा,संजय लीला भंसाली जैसे कुछ संगीत रसिक फिल्मकारों ने एक्शन प्रधान फिल्मों में भी मेलौडी का दामन नहीं छोड़ा। लेकिन म्यूजिकल फिल्मों की कमी साफ नजर आने लगी। शुद्ध म्यूजिकल फिल्मों की बात बेमानी सी लगती है।
समर्पण भाव चाहिये
कभी लोकप्रिय संगीतकार राहुल देव बर्मन यानी पंचम दा ने संगीतमय फिल्मों के बारे में कहा था कि ‘ऐसी फिल्मों की सुर रचना में बहुत धैर्य की जरूरत पड़ती है। जब तक आप फिल्म की हर सिचुएशन में नहीं डूबते हैं,बेहतर सुर रचना की बात भूल जाइए।’ फिल्मकार महेश भट्ट जहीन संगीतकार जोड़ी नदीम-श्रवण के बारे में बताते हैं- ‘आशिकी के बाद उन्हें अहसास हो गया था कि गानों को सिचुएशन में शामिल करना हमें अच्छी तरह आता है ,इसलिए हमारी सड़क,हम हैं राही प्यार के,दिल है कि मानता नहीं जैसी फिल्मों के सिचुएशन बेस्ड गानों की सुर रचना में उन्होंने काफी वक्त लिया।’
भंसाली से शुरू
फिल्मकार सत्यजित रे,राज कपूर सहित कई निर्देशकों को संगीत की समझ थी। इस मामले में भंसाली नए दौर के बेहतर उदाहरण हैं। अपनी ‘खामोशी’ से लेकर ‘पद्मावती’ तक अपनी हर फिल्म को म्यूजिकल बनाया।
मैलोडी की समझ
दिल तो पागल है,दुश्मन,गदर जैसी कई फिल्मों में सुरीले संगीत बना चुके संगीतकार उत्तम सिंह बताते हैं,‘मैलोडी कभी कृत्रिम नहीं होती है। इसके लिए आपको जोड़-तोड़ की बजाय सुर रचना में डूब जाना पड़ेगा। हर साज की समझ रखनी होगी। आज ज्यादातर संगीतकारों को इसकी पूरी समझ नहीं है। ऐसे में मैलोडी कहां रहेगी।’
सुरीले संगीत की रचना
संगीतकार खय्याम ने पुराने दौर को याद करते हुए कहा था,’संगीत सृजन बिना धैर्य के संभव नहीं। हमारे दौर के ज्यादातर निर्माता-निर्देशक अक्सर म्यूजिक सिटिंग में होते थे। फिल्म की स्क्रिप्ट और एक-एक सिचुएशन पहले हमें समझा दी जाती थी। शुरू होने से पहले फिल्म के सारे गाने बन जाते थे। तब्दीली के लिए समय होता था।’अनु मलिक अपने एक प्रिय जेपी दत्ता को याद कर बताते हैं, ‘ दत्ता साहब ने अपनी फिल्मों बॉर्डर ,रिफ्यूजी ,एलओसी व उमराव जान के लिए मुझसे बहुत मेहनत करवायी थी। मैं चाहता था कि हर निर्माता इतना समय लेकर मुझसे गाना बनवाये ,पर ऐसे निर्माता मुझे बहुत ही कम मिले।’