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दक्षिण भारत की अद्वितीय वास्तुकला और सांस्कृतिक विरासत

चोल मंदिर
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चित्र लेखक
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देवेन्द्रराज सुथार

चोल मंदिर दक्षिण भारत की अद्वितीय वास्तुकला और चोल साम्राज्य की समृद्ध विरासत का प्रतीक हैं। 9वीं से 13वीं शताब्दी के बीच निर्मित ये मंदिर न केवल धार्मिक केंद्र थे, बल्कि कला, संस्कृति और समाज के महत्वपूर्ण स्तंभ भी थे। चोल साम्राज्य 9वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उभरा, जब विजयालय चोल ने पल्लवों को हराया और तंजावुर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद, राजराजा चोल और राजेंद्र चोल-I के शासनकाल में साम्राज्य का अभूतपूर्व विस्तार और समृद्धि देखी गई, जिसका अद्भुत उदाहरण चोल मंदिरों के भव्य निर्माण में देखा जा सकता है।

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बृहदेश्वर: वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना

चोल मंदिरों में सबसे प्रसिद्ध बृहदेश्वर मंदिर है, जिसे पेरुवुदैयार कोविल या राजराजेश्वरम के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर तमिलनाडु के तंजावुर में स्थित है और राजा राजराजा चोल-I द्वारा 1010 ई. में बनवाया गया था। इस मंदिर की विशेषता उसकी 13 फीट ऊंची और 16 फीट चौड़ी भगवान शिव के बैल नंदी की मूर्ति है, जो एक ही चट्टान को तराशकर बनाई गई है। मंदिर के चारों ओर किलेबंद दीवारें विस्तृत नक्काशी से समृद्ध हैं, जो परिसर को भव्य रूप देती हैं। मुख्य मंदिर के गोपुरम (प्रवेश द्वार) शानदार मूर्तियों से सज्जित हैं। मंदिर की शिलालेख और भित्तिचित्र नगर के उत्थान और पतन की कहानियां प्रस्तुत करते हैं। शिवलिंगम मीनार से ढका हुआ है और इसे मोर्टार के बिना बनाया गया है। मंदिर की विशाल शिखर की ऊंचाई 216 फीट या 66 मीटर है, और इसका कुंबम (शीर्ष पर संरचना) लगभग 80 टन का है। मंदिर की वास्तुकला द्रविड़ शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें पिरामिड के आकार का विमान (मुख्य मंदिर), गोपुरम (प्रवेश द्वार) और मंडप (सभा हॉल) शामिल हैं। दीवारों पर जटिल मूर्तिकला पौराणिक कथाओं और देवी-देवताओं को दर्शाती है, जो तत्कालीन समाज और संस्कृति की झलक प्रस्तुत करती है।

अनूठा गंगईकोंडाचोलपुरम

गंगईकोंडाचोलपुरम मंदिर तमिलनाडु के अरियालुर जिले में स्थित है। इसका निर्माण राजेंद्र चोल-I ने करवाया था। यह प्राचीन शहर गंगईकोंडाचोलपुरम के नाम पर है, जो 250 वर्षों तक चोल वंश की राजधानी रहा। मंदिर 170 मीटर ऊंचा और 98 मीटर चौड़ा है, और इसकी वास्तुकला तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर की शैली का अनुसरण करता है। इसी तरह, ऐरावतेश्वर मंदिर कुंभकोणम में स्थित है। इसका निर्माण 12वीं शताब्दी में राजा राजराजा चोल-II के द्वारा हुआ था। भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर का नाम भगवान इंद्र के सफेद हाथी ‘ऐरावत’ के नाम पर रखा गया है। यह मंदिर अपनी नक्काशी और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है।

सामाजिक गतिविधियों में केंद्र

चोल मंदिरों की एक प्रमुख विशेषता उनका विस्तृत परिसर है, जिसमें मुख्य मंदिर के अलावा कई छोटे मंदिर, मंडप, तालाब, पुस्तकालय, स्कूल और अस्पताल होते थे। ये मंदिर केवल पूजा के केंद्र नहीं थे, बल्कि सामाजिक गतिविधियों और त्योहारों के लिए भी महत्वपूर्ण थे। इनका निर्माण एक जटिल और श्रम-गहन प्रक्रिया थी, जिसमें बड़े पैमाने पर पत्थर का उपयोग और कई कारीगरों की भागीदारी शामिल थी। मंदिरों के शिलालेख उस समय के समाज, प्रशासन और अर्थव्यवस्था के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं।

सांस्कृतिक विरासत

चोल मंदिरों ने बाद के राजवंशों की वास्तुकला को गहराई से प्रभावित किया। आज ये मंदिर भारत की सांस्कृतिक विरासत के प्रतीक हैं और महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल भी हैं। हर साल लाखों लोग इन मंदिरों को देखने आते हैं, जो उनकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्ता को दर्शाता है। यूनेस्को ने इन मंदिरों को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है, जो उनके वैश्विक महत्व को रेखांकित करता है। इन मंदिरों का संरक्षण भारतीय इतिहास, संस्कृति और वैश्विक सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

संस्कृति की विकासशील प्रक्रिया

चोल मंदिर दर्शाते हैं कि कला, संस्कृति और आध्यात्मिकता किसी भी सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये मंदिर उस युग के साक्षी हैं जब धर्म, कला और राजनीति गहराई से जुड़े हुए थे और संस्कृति एक विकासशील प्रक्रिया है, जो अतीत से प्रेरित होकर वर्तमान में जीवित रहती है।

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