रहस्य भी कम नहीं नागा साधुओं की दुनिया में
नागा साधुओं को आस्था के साथ-साथ हैरत और रहस्य की दृष्टि से देखा जाता रहा है। हर बार कुंभ के मेले में लोगों में हजारों की संख्या में आये नागा साधुओं के प्रति जिज्ञासा देखने को मिलती है। दरअसल, हरेक कुंभ में भस्म रमाए नागा साधुओं का हुजूम जुटता है और कुंभ खत्म होते ही रातों-रात वे गायब हो जाते हैं। ये कठोर तप करने हिमालय पर चले जाते हैं। अधिकतम लोग नहीं जानते कि नागा साधु हिंदू धर्म की रक्षा करने वाली पवित्र ‘पैदल सेना’ है। यह प्राचीन परंपरा है। शास्त्र व शस्त्र विद्या के माहिर इन बलिदानी संतों ने देश-धर्म की रक्षा के लिए आक्रांताओं से अनेक युद्ध लड़े हैं। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें चालीस हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया।
सुमन बाजपेयी
एक रहस्य, एक कौतूहल, एक अचंभा—न जाने कितने प्रश्न उठ खड़े होते हैं जब बात नागा साधुओं की आती है। देश में जब-जब कुंभ और अर्द्ध कुंभ मेला लगता है, तब-तब नागा साधुओं के दर्शन होते हैं। सदियों से नागा साधुओं को आस्था के साथ-साथ हैरत और रहस्य की दृष्टि से देखा जाता रहा है। लंबी जटाओं और कपड़ों के नाम पर पूरे शरीर पर भस्म लगाए निर्वस्त्र रहने वाले इन नागा साधुओं का बाहरी दुनिया से कोई लेना-देना नहीं होता। इनकी ज़िंदगी कठिनाइयों से भरी होती है जिसके बारे में आम इंसान कल्पना भी नहीं कर सकता। किसी गुफा में ध्यान लगाए बहुत कठोर व अनुशासित जीवन जीने वाले नागा साधु सुख-दुःख से परे होते हैं।
नागा साधुओं का हमारे देश में, हमारी संस्कृति में, हमारी परंपराओं में क्या योगदान है, इससे लोग अनभिज्ञ हैं और उनके विचित्र रूप को देख वे उनके बारे में धारणाएं बनाते हैं। लेकिन नागा साधु परम सत्य हैं, उनसे बड़ा सत्य ब्रह्मांड में कोई नहीं।
महाकुंभ में बने जिज्ञासा का विषय
इस बार 144 साल बाद हुए महाकुंभ में जितनी चर्चा इस मेले की हुई, उतनी ही जिज्ञासा लोगों में नागा साधुओं के प्रति देखने को मिली, जो हजारों की संख्या में वहां मौजूद थे। महाकुंभ, अर्धकुंभ या फिर सिंहस्थ कुंभ में ही नागा साधुओं का हुजूम जुड़ता है और कुंभ खत्म होते ही रातों-रात वे गायब हो जाते हैं। सब सोचते हैं कि न जाने ये कहां चले जाते हैं। ये कहां से आते हैं, किसी को नहीं पता... बस एक भीड़ का सैलाब उमड़ता है और लहरों के शांत होते ही वे न जाने कहां अदृश्य हो जाते हैं। कुंभ के समाप्त होने के बाद अधिकतर साधु अपने शरीर पर भभूत लपेट कर हिमालय की चोटियों के बीच चले जाते हैं। वहां ये अपने गुरु स्थान पर अगले कुंभ तक कठोर तप करते हैं जिस दौरान ये फल-फूल खाकर ही जीवित रहते हैं। सालों तक कठोर तप के कारण उनके बाल कई मीटर लंबे हो जाते हैं। ये तप तभी संपन्न होता है, जब ये कुंभ मेले के दौरान गंगा में डुबकी लगाते हैं।
नागा साधु कभी भी दिन में नहीं चलते, क्योंकि समाज उन्हें स्वीकार और समझ नहीं पाता है। फिर भी नागा साधुओं को देख कर सभी के मन में उनके बारे में जिज्ञासा का जन्म अवश्य होता है। शृंगार किये हुए नागा साधु जब महाकुंभ के समय लाखों की संख्या में नजर आते हैं तो इनके बारे में जानने का ख्याल सभी के मन में आता है। कुंभ के दौरान ये साधु अचानक रहस्यवाद का प्रतीक बन जाते हैं। परंपरागत रूप से नागा साधु का जीवन ध्यान, तपस्या और त्याग से युक्त है, और केवल कुंभ के दौरान ही वे सार्वजनिक रूप से सामने आते हैं।
एक अनसुलझा रहस्य!
नाचते-गाते, उछलते-कूदते, डमरू-डफली बजाते, त्रिशूल, चिमटा उठाए नागा साधुओं का जीवन आज इंसान के लिए एक अनसुलझा रहस्य है। वे सत्य हैं, आत्मा रूप हैं और आत्मा के ऊपर वस्त्र नहीं होता है। उनका शरीर ही वस्त्र है, क्योंकि वे आत्मा हैं। इसलिए वे वस्त्र नहीं पहनते हैं। लोग नागा साधुओं को समझ नहीं पाते, वे अपने शरीर पर धूल-मिट्टी लपेटते हैं, रुद्राक्ष धारण करते हैं। वे जो भस्म लगाते हैं वह मुर्दे की होती है और अगर वह न मिले तो हवन की भभूत लगाते हैं। माना जाता है कि जो नागा बनता है वह इस संसार से मुक्त हो जाता है। संसार में रहते हुए भी वह संसार का हिस्सा नहीं होता। नागा को शिव का अवतार माना गया है।
विदेशी इतिहासकारों ने जो कहा...
विडंबना तो यह है कि हमारी पाठ्यपुस्तकों में ,नागा साधुओं ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए जो किया, उसका जिक्र कहीं देखने को नहीं मिलता। दिलचस्प यह कि हमारे इतिहासकारों ने उन्हें बेशक महत्व न दिया हो, पर मेगस्थनीज, जो यूनान का राजदूत था और चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था, ने नागा साधुओं का वर्णन करते हुए उस दौरान लिखा था, ‘भारत में ब्राह्मणों या नागा साधुओं का एक दार्शनिक संप्रदाय है, जो स्वतंत्र जीवन व्यतीत करता है तथा मांस और पके भोजन से परहेज करता है और केवल फलाहार करके रहता है। पूरा जीवन भी नग्न रहकर बिताता है तथा कहता है कि ईश्वर ने शरीर आत्मा को ढकने के लिए दिया है। उनका मानना है कि ईश्वर प्रकाश है, लेकिन सूर्य अथवा अग्नि की तरह नहीं जिसे हम आंखों से देखते हैं, किंतु ईश्वर से उनका तात्पर्य तर्कपूर्ण प्रवचन से है जिसके द्वारा बुद्धिमान लोग जीवन के गूढ़ रहस्य को पहचानते हैं। वे देवता का नाम आदर के साथ उच्चारित करते हैं तथा मंत्रों के साथ उसकी पूजा करते हैं। ये नग्न रहकर जीवन व्यतीत करते हैं। जाड़ों में खुले आकाश के नीचे धूप में किंतु ग्रीष्म ऋतु में जब सूर्य बहुत तपने लगता है, वे आर्द्र स्थानों में पेड़ों के नीचे रहते हैं।’
धर्म की रक्षा में समर्पित ‘सैन्य बल’
अधिकतम लोग नहीं जानते कि नागा साधु हिंदू धर्म की रक्षा करने वाली ऐसी पवित्र पैदल सेना है जो इसके लिए कोई धन नहीं लेती। चाहे इस्लामिक आक्रांताओं की बात हो या फिर अंग्रेज साम्राज्यवादियों की, नागा साधु अपने ‘हिंदू धर्म’ की रक्षा के लिए सदा तत्पर रहे हैं। धर्म की रक्षा करना ये अपना सौभाग्य समझते हैं, पर समाज ने उनके बलिदान को कभी न याद रखा, न ही कृतज्ञ है। नागा साधुओं की परंपरा हजारों सालों से चली आ रही है। इस परंपरा के चिह्न हमें मोहनजोदड़ो के सिक्कों और तस्वीरों में मिलते हैं जहां नागा साधु पशुपति नाथ के रूप में भगवान शिव की पूजा करते हुए मिलते हैं। कहा जाता है सिकंदर और उसके सिपाही जब भारत आए थे तब उनकी मुलाकात नागा साधुओं से हुई थी। यही नहीं, नागा साधुओं की तपस्या और मातृभूमि के प्रति समर्पण से भगवान बुद्ध और भगवान महावीर भी काफी प्रभावित थे।
अखाड़ों और योद्धा साधुओं की परंपरा
भारतीय सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आदिगुरू शंकराचार्य ने रखी थी। शंकर का जन्म आठवीं शताब्दी के मध्य में हुआ था जब भारतीय जनमानस की दशा-दिशा बहुत बेहतर नहीं थी। भारत की धन संपदा से खिंचे आक्रमणकारी यहां आ रहे थे। कुछ उसके खजाने को अपने साथ वापस ले गए तो कुछ भारत की दिव्य आभा से मोहित होकर यहीं बस गए।
सामान्य शांति-व्यवस्था बाधित थी। ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्रों को तर्क, शस्त्र और शास्त्र सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना के लिए कई कदम उठाए जिनमें से एक था देश के चार कोनों पर चार पीठों का निर्माण करना। आदिगुरू ने मठों-मंदिरों की संपत्ति को लूटने वालों और श्रद्धालुओं को सताने वालों का मुकाबला करने के लिए सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों की सशस्त्र शाखाओं के रूप में अखाड़ों की स्थापना की शुरुआत की।
आदिगुरु शंकराचार्य को लगने लगा था सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को सुदृढ़ बनाएं और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। ऐसे मठ बने जहां इस तरह के व्यायाम या शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, जिन्हें कालांतर में अखाड़ा कहा जाने लगा। शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पड़ने पर शक्ति का प्रयोग करें। बाह्य आक्रमणों के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक सुरक्षा कवच का काम किया। कई बार स्थानीय राजा-महाराजा विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लिया करते थे। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें चालीस हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया।
शास्त्र व शस्त्र विद्या के माहिर संत
भारत की आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया। आदिगुरु शंकराचार्य की वे हुंकार हैं, रणभेरी हैं जो सदियों से बजती आ रही है। लेकिन शिव के जिन भक्तों को दुनिया नागा साधु कहती है, वे सिर्फ युद्ध नाद ही नहीं करते। वे हथियार चलाने में माहिर होते हैं, और महाकुंभ जैसे अवसर पर हथियार चलाकर अपना कौशल भी दिखाते हैं। नागा साधुओं को हर हथियार चलाने में महारत हासिल होती है। शास्त्र के साथ शस्त्र विद्या के हर हुनर में वे माहिर होते हैं। गुस्सा आ जाए तो खैर नहीं, नहीं तो शांत रहते हुए भी अद्भुत योद्धा का अहसास देते रहते हैं नागा साधु। संतों को हथियार से क्या काम, लेकिन नागा साधुओं का सौंदर्य भी बगैर हथियार के पूरा नहीं होता। हथियारों में उनके ईष्ट देव बसते हैं। अखाड़े उनकी पहचान हैं। इतिहास बदला, व्यवस्था बदली, अखाड़ों के तेवर भी बदले, लेकिन नागा साधुओं का हथियार प्रेम नहीं बदला।
अब्दाली की सेना को चटाई धूल
साधारण लोगों को नागा साधुओं की दुनिया बहुत आकर्षित करती है। लेकिन उनके बलिदान से कोई परिचित नहीं है। अब्दाली के मथुरा-गोकुल आक्रमण के समय वही थे जिन्होंने उसकी सेना को खदेड़ दिया था। साधुओं और अफगानों के मध्य भयंकर संग्राम हुआ था। जब अहमद शाह अब्दाली गोकुल पहुंचा तो वहां उसका सामना नागा साधुओं से हुआ, जो हाथ में चिमटा लिए क्रूर अफगानी सेना के सामने खड़े थे। अब्दाली ने उनका उपहास किया और हल्के में लिया। नागा साधु त्रिशूल और चिमटे के साथ अफगानी सेना को धूल चटाने का संकल्प लेकर उस पर टूट पड़े। तोपों-तलवारों पर चिमटे-त्रिशूल इतने भारी पड़े कि अफगानी सेना तितर-बितर हो गई और युद्ध स्थल से कोसों पीछे हट गई। मथुरा में खून की नदियां बहीं और सारा नगर लाशों से पट गया। संन्यासियों तथा वैरागियों के सिर धड़ से अलग कर दिए गए थे। कहा जाता है कि उस युद्ध के समय नागा साधुओं के एक हाथ में तलवार थी और दूसरे हाथ में शास्त्र। उन्हें धर्म भी बचाना था और देश भी। करीब दो हजार नागा साधु इस भीषण संग्राम में वीरगति को प्राप्त हो गए। लेकिन दुश्मनों की सेना आगे नहीं बढ़ पाई। क्रूर अब्दाली को युद्ध का मैदान छोड़ भागना पड़ा। नागा साधुओं ने कितने युद्ध लड़े हैं, जिनके बारे में कोई नहीं जानता। लगभग 40,000 नागा साधुओं ने काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग की रक्षा करते हुए, लाखों की मुग़ल सेना से लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी।
आसान नहीं नागा साधु बनने की प्रक्रिया
कोई भी साधु यूं ही नागा नहीं बन सकता, इसके लिए साधुओं को गुरु-शिष्य परंपरा में आना पड़ता है। बरगद के पेड़ के नीचे छह महीने तक खड़ा रहना पड़ता है। अगर अखाड़े को यह लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है, तो ही उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है। अखाड़े में शामिल होने के 3 साल तक उसे अपने गुरुओं की सेवा करनी होती है, सभी प्रकार के कर्मकांडों को समझना और उनका हिस्सा बनना होता है। अखाड़े में प्रवेश के बाद उसको ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाती है। उससे लंबे समय तक ब्रह्मचर्य का पालन भी कराया जाता है। इस प्रक्रिया में केवल दैहिक की नहीं, मानसिक नियंत्रण को भी परखा जाता है। उसके तप, ब्रह्मचर्य, वैराग्य, ध्यान, संन्यास और धर्म का अनुशासन तथा निष्ठा आदि प्रमुखता से परखे-देखे जाते हैं। ब्रह्मचर्य व्रत के साथ ही दीक्षा लेने वालों के मन में सेवा भाव होना भी जरूरी है। माना जाता है कि जो नागा बन रहा है, वह धर्म, राष्ट्र, मानव समाज की सेवा और रक्षा के लिए बन रहा है। “दीक्षा लेने से पहले सबसे जरूरी है खुद का श्राद्ध और पिंडदान करना। वे 17 पिंडदान करते हैं जिसमें 16 अपने परिजनों के और 17वां खुद का पिंडदान होता है।
तराइन के युद्ध में विजयी भूमिका
जब मोहम्मद गौरी ने उस पर आक्रमण किया था तो पृथ्वीराज चौहान की सेना के पहुंचने से पहले ही नागा साधुओं ने कुरुक्षेत्र में गौरी की सेना को घेर लिया था। इतिहासकार तराइन के दूसरे युद्ध की बात करते हैं जिसमें पृथ्वीराज चौहान की हार हुई थी लेकिन इससे पहला युद्ध जो 1191 में हुआ , उसका उल्लेख नहीं करते जब गौरी की सेना कुरुक्षेत्र और पिहोवा के मंदिरों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रही थी तब कैसे नागा साधुओं ने पृथ्वीराज की सेना के साथ मिलकर गौरी की सेना को तराइन में परास्त कर दिया था। इस युद्ध के बाद, पृथ्वीराज चौहान ने सम्मानस्वरूप कुंभ में नागा योद्धा भिक्षुओं को हिंदू धर्म का ध्वज दिया, वह जानते थे कि ये साधु हमेशा धर्म की रक्षा करेंगे। इस युद्ध के बाद जो कुंभ हुआ, उसमें पृथ्वीराज चौहान ने कुंभ में सबसे पहले स्नान करने का अधिकार उन्हें दिया था। तब से यह परंपरा जारी है कि कुंभ का पहला स्नान नागा साधु करेंगे।
सिकंदर की जब नागा साधु से हुई भेंट
सिकंदर की जब नागा साधु से भेंट हुई थी तो उसने कहा, ‘मैं भारत से लौटते समय आपको अपने साथ ले जाना चाहता हूं।’ साधु ने धैर्य से जवाब दिया, ‘तुम्हारे पास ऐसा कुछ भी नहीं है, जो तुम मुझे दे सको। ऐसा कुछ नहीं है, जो मेरे पास न हो। मैं जहां हूं, जैसा हूं, खुश हूं। मुझे यहीं रहना है। मैं तुम्हारे साथ नहीं आ सकता।’ इस तरह इनकार से सिकंदर गुस्से से आगबबूला हो गया। उसने अपनी तलवार निकाली और साधु की गर्दन पर रख दी और पूछा ‘अब बताओ, जिंदगी चाहिए या मौत?’ सिकंदर ने पूछा। ‘अगर तुम मुझे मार दो तो अपने आपको फिर कभी सिकंदर महान या जैसे कि तुम्हारी फौज तुम्हें कहती है, एलेक्जेंडर द ग्रेट, मत कहना। क्योंकि तुम्हारे में महान जैसी कोई बात नहीं है। तुम तो मेरे गुलाम के गुलाम हो।’ यह सुनकर सिकंदर को झटका लगा। वह एक ऐसा सम्राट है, जिसने पूरी दुनिया को जीता है और एक साधु उसे अपने दास का दास बता रहा है। ‘तुम कहना क्या चाहते हो? इस बात से तुम्हारा अभिप्राय क्या है?’ ‘मैं जब तक नहीं चाहता, तब तक मुझे क्रोध नहीं आता। क्रोध मेरा गुलाम है। जबकि गुस्से का जब मन करता है, वह तुम पर हावी हो जाता है। तुम अपने गुस्से के गुलाम हो। भले ही तुमने पूरी दुनिया को जीता हो, तुमने कई योद्धाओं को पराजित किया होगा, पर क्रोध से नहीं जीत पाए। इसलिए रहोगे तो मेरे दास के दास।’ ये सुनकर सिकंदर दंग रह गया। वह श्रद्धा साधु के आगे नतमस्तक हो गया। सिकंदर का दर्प चूर-चूर हो गया और वह अपनी फौज के साथ वापस लौट गया। इसमें कोई शक नहीं कि आम जनता के लिए ये अचरज का विषय हैं, क्योंकि इनकी वेशभूषा, क्रियाकलाप, साधना-विधि आदि सब हैरत में डालने वाली होती है और इसीलिए शायद उनकी दुनिया रहस्यमयी बनी हुई है आज भी।
-लेखिका वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार हैं।