डॉ. मोनिका शर्मा
हाल ही में एक ट्वीट के जरिए आई ललित मोदी और अभिनेत्री सुष्मिता सेन के शादी कर लेने, सगाई हो जाने या फिर डेटिंग की अस्पष्ट और उलझाऊ सी खबरों के बाद समाज का वही चेहरा सामने आया जो आम जिंदगी में भी दिखता रहता है| ताने, उलाहने, सलाह, आलोचना और कटाक्ष| दो इन्सानों के व्यक्तिगत जीवन से जुड़े फैसले को लेकर एक त्वरित और गैर ज़रूरी सी सामुदायिक प्रतिक्रिया देखने को मिली| विचारणीय है कि यह रिश्ता चाहे जिस पड़ाव पर हो, खबर सामने आने के बाद लगातार इसकी चर्चा होती रही। इस रिश्ते के भविष्य को लेकर मनचाही-अनचाही राय देने और बुनियाद में धन-दौलत को देखने का प्रतिबिम्ब बने विचारों, तस्वीरों और मीम्स की बाढ़ आ गई। हैरान-परेशान लोगों की प्रतिक्रिया के चलते ही सुष्मिता ने मात्र बीस घंटे बाद ही अपनी चुप्पी तोड़ी और लिखा- ‘मैं एक खुश जगह पर हूं! न ही शादी हुई है… न कोई अंगूठी…बिना शर्त प्यार से घिरी हुई हूं|’ बेवजह बहस का मुद्दा बने इस मामले पर सुष्मिता ने सधे शब्दों में यह भी लिखा कि पर्याप्त स्पष्टीकरण दे चुकी हूं। मेरी खुशी में हमेशा साथ देने के लिए धन्यवाद ..और जो साथ नहीं देते हैं उनके लिए ..वैसे भी ‘आपका इससे कोई लेना देना नहीं है|’
ठहराव की दरकार
किसी की जिंदगी से कितना और किस तरह से कुछ लेना-देना होना चाहिए? यह सवाल और इसकी सीमा दोनों ही पक्ष विचारणीय हैं| खासकर तब, जब आमजन से लेकर किसी चर्चित चेहरे के व्यक्तिगत जीवन तक, प्रतिक्रिया देने या न देने के ठहराव का फर्क ही मिट गया हो| कुछ न कुछ कहने की अजब व्याकुलता के चलते इंटरेक्टिव यानी परस्पर संवाद के लिए बने वर्चुअल मंच अब रिएक्टिव-ओवर रिएक्टिव यानि कि प्रतिक्रियावादी टिप्पणियों का ठिकाना बन गए हैं| वर्चुअल दुनिया का यह बर्ताव समाज के उस वास्तविक रुख की याद दिला देता है, जिसमें सामाजिक जीवन में रोक-टोक और ताने-उलाहने कई बंदिशों की वजह रहे हैं| यह व्यवहार सामाजिक बदलाव में बाधा बना है, संबंधों में दूरियां लाने वाला कारण रहा है| ऐसे में किसी के व्यक्तिगत जीवन को लेकर की जा रही टीका-टिप्पणियों को लेकर एक ठहराव की दरकार है|
जरूरी है सोच का बदलाव
भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो अर्थहीन आलोचना का यह बर्ताव पारिवारिक बिखराव का भी अहम कारण रहा है? इतना ही नहीं, बेवजह की दखलअंदाजी के बर्ताव ने सामाजिक दूरियों को भी सदा खाद-पानी ही दिया है | दुखद है कि वर्चुअल दुनिया में सामाजिकता के नाम पर असामाजिक बर्ताव को पोषण मिल रहा है जबकि वास्तविक दुनिया में लोगों की सोच और व्यवहार बहुत हद तक बदल गए हैं| व्यक्तिगत जीवन को लेकर कटाक्ष करने का व्यवहार अब कम देखने को मिलता है| असल दुनिया की सामाजिकता में संवाद से पहले किसी भी मामले के कई पहलुओं पर विचार किया जाता है| आत्म-नियमन का भाव देखने को मिलता है जबकि सोशल मीडिया मंचों पर चल रही चर्चाओं को देखकर लगता है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर कुछ भी कह देने की प्रवृत्ति में पुख्ता जड़ें जमा ली हैं| सही ढंग से किसी घटना, विचार, प्रतिक्रिया या व्यक्तिगत भाव-जुड़ाव के समाचार को जानने के पहले ही आपत्तिजनक भाषा, अभद्र टिप्पणियां और उपहास उड़ाता अति प्रतिक्रियावादी आचरण सामने आ जाता है|
अलगाव पोषित करती विकृत अभिव्यक्ति
अफ़सोस कि कमोबेश हर मामले में मन मुताबिक कहने की बीमार मानसिकता एक विकृत परिवेश बना रही है | पूर्वाग्रहों और आलोचनात्मक विचारों की बुनियाद पर खड़ी अभिव्यक्ति की ऐसी आज़ादी हर क्षेत्र से जुड़े चर्चित चेहरों के मामले में खुलकर सामने आ जाती है| जबकि यह बर्ताव भी द्वेष और दोषारोपण के भाव को बढ़ावा देते हुए समाज को बांटने का ही काम करता है| गौरतलब है कि जोहान्स गुटेनबर्ग यूनिवर्सिटी मेंज के शोधकर्ताओं ने हालिया अध्ययन के निष्कर्ष में बताया है कि सामाजिक अलगाव का इंसान के व्यवहार पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है| हाल के बरसों में तो सोशल मीडिया मंचों के माध्यम से जगह बना रहे अलगाव ने ही मानवीय व्यवहार को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है| मानवीय समझ और व्यवहारगत मोर्चे पर आ रहे बदलाव डिजिटल सामाजिकता का भी नतीजा हैं| समाज से काटने और हर बात में मीन-मेख निकालने वाले ऐसे बदलाव के लिए अपनी कहने की स्वतंत्रता से जुड़ गई विकृत और हद दर्जे की आलोचक सोच ही जिम्मेदार है| जरूरी है कि शब्दों को समझ का साथ मिले|