राहत की बात है कि अब म्यूजिक-डांस फेस्टिवल्स, लिटफेस्ट, क्राफ्ट और कल्चरल इवेंट्स भव्यता के साथ लौट आए हैं। बेशक, 2020 को भुलाना आसान नहीं होगा जब हर मंच पर नाटक खेले जाने से पहले ही पर्दा गिरता चला गया और संगीत-वाद्यों के स्वर चुप पड़ गए। फिर कुछ दिन ऑनलाइन इवेंट्स का दौर चला। लेकिन अब वास्तविक अनुभव की खातिर लोगों ने फिर थियेटरों, सिनेमा हॉलों, मेला स्थलों, पंडालों, प्रदर्शनी हॉलों, दीर्घाओं तक में लौटने की ठान ली है।
अलका कौशिक
लेखिका ट्रैवल जर्नलिस्ट, ब्लॉगर एवं अनुवादक हैं।
स्मार्टफोन, टैबलेटों से लेकर तमाम तरह के इलेक्ट्रॉनिक्स डिवाइसों के युग में साहित्योत्सव जिंदा हैं और क्या खूब जिंदा हैं, इसकी मिसाल देखने के लिए कहीं दूर क्या जाना। लौटते हैं इसी महीने के शुरू में नयी दिल्ली के मेजर ध्यान चंद स्टेडियम में आयोजित हुए अदब के मेले ‘जश्न-ए-रेख़्ता’ की महफिलों की तरफ। तीन दिनों तक चले इस मेले में फनकारों ने वाहवाही बटोरी तो अदब के दीवानों को भी सुकून मिला कि तीन साल बाद ही सही, मेला अपने पुराने अंदाज़ को संवारकर लौटा तो। तीन दिनों में करीब पचास सेशंस थे जिनमें नौसिखिए शायरों से लेकर नामी-गिरामी फनकारों को वाह-वाही मिली तो साहित्यकारों, गायकों, इतिहासकारों की गुफ्तगू भी खूब सुनी-सराही गई। मेला परिसर में सजा किताबों का बाज़ार भी तीनों दिन खिलखिलाता रहा। और ऐसे मेलों की जान कहे जाने वाले दर्शकों का हाल तो पूछो मत। उन्हें महफिलखाना, दयार-ए-इज़हार समेत अन्य पंडालों में बैठने की जगह नहीं मिली और मेला ग्राउंड भी भर गया तो स्टेडियम की दीवारों पर जा चढ़े। स्टेडियम के आसपास की सड़कों से होते हुए चौराहों तक पर तीनों दिन भीड़ रेंगती रही। मगर क्या मजाल जो किसी ने उफ्फ भी की हो। महामारी की मनहूसियत से बाहर आने के ऐसे मौके कितने कीमती हो चुके हैं, इसका अहसास हर दिल को था।
उल्लासमय वापसी
ट्रैवल की दुनिया में ‘रिवेंज ट्रैवल’का शोर अभी हल्का नहीं पड़ा है और बीते महीनों में हर तीज-त्योहार अपने पुराने उल्लास के साथ वापसी कर चुका है। वहीं तमाम म्यूजिक-डांस फेस्टिवल्स, लिटफेस्ट, क्राफ्ट और कल्चरल इवेंट्स भी अपनी पूरी भव्यता के साथ लौट आए हैं। बेशक, 2020 को भुलाना आसान नहीं होगा जब एक-एक कर हर महफिल सिकुड़ती गई और हर मंच पर नाटक खेले जाने से पहले ही पर्दा गिरता चला गया था। इवेंट मैनेजरों की रातों की नींद उड़ गई थी कि गुजारा कैसे चलेगा, इंडस्ट्री बचेगी भी कि नहीं, या बाद में उसे दोबारा जिंदा भी किया जा सकेगा? नर्तकों के घुंघरू खामोश हो गए और संगीत-वाद्यों के स्वर चुप पड़ गए। फिर सहमते हुए, हौले-हौले ऑनलाइन इवेंट्स का दौर शुरू हुआ जिसने यह साबित कर दिया कि हमें रोटी-कपड़ा-मकान के अलावा तरह-तरह के इवेंट्स और सांस्कृतिक आयोजनों की भी कितनी जरूरत है। मगर ऑनलाइन स्क्रीन असल दुनिया का ‘रिप्लेसमेंट’ नहीं हो सकती थीं। देखने-सुनने वाली कलाएं तो फिर भी ऑनलाइन स्क्रीनों में समा सकती थीं, लेकिन उन अनुभवों का क्या जिनका वास्ता कुछ अलग ही इंद्रियों से होता है? अखाड़ों के दंगल, सड़कों पर गुजरने वाली परेडों से लेकर खान-पान के उत्सव बिखर गए। दुनिया का सबसे बड़ा बियर फेस्टिवल म्युनिख का अक्तूबर फेस्ट उजड़ गया और इस दुनिया का एक और बेहद लोकप्रिय मार्डी ग्रा फेस्टिवल भी गायब हो गया।
इस बीच, एक अमेरिकन अध्ययन से संकेत मिले कि करीब 75 फीसदी दर्शकों/श्रोताओं ने कहा है कि वे असल दुनिया में आयोजनों की वापसी होते ही लौटेंगे। यह इवेंट्स इंडस्ट्री के लिए राहत पहुंचाने वाला भला-सा संकेत था।
टोरंटो बना नजीर
यों भी इतिहास गवाह है कि जब-जब ऐसे संकट आए हैं, वो चाहे दुर्भिक्ष-अकाल, बाढ़, बीमारियों, दुर्घटनाओं या और किसी भी कारण से पैदा हुए हों, उनके गुजरते ही इंसानी जज़्बे की वापसी गज़ब तरीके से देखी गई है। 2003 में टोरंटो (कनाडा) में सार्स संक्रमण इतने बड़े पैमाने पर फैला था कि उसने न सिर्फ नागरिकों को बेहाल किया बल्कि ट्रैवल, एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री से लेकर आर्ट-कल्चर की दुनिया उजाड़कर रख दी। ये वो क्षेत्र हैं जिनकी साख बेहद महीन तारों पर टिकी होती है, इधर मामूली-सा संकट आया या अफवाह फैली नहीं कि पूरा बाज़ार चौपट होने में देर नहीं लगती। लेकिन बीते दो दशकों में टोरंटो ने जिस तरीके से दुनिया के शानदार ट्रैवल डेस्टिनेशंस में से एक के तौर पर खुद को स्थापित करने से लेकर जैज़ फेस्टिवल हो या फोकलोरामा या अपनी प्राइड परेड के झंडे गाड़े हैं, वह नज़ीर है कि कैसे दुनिया हर तकलीफ के दौर के बाद पहले से भी ज्यादा मजबूत हौसलों के साथ लौटती है।
असल अनुभव का जज्बा
लिहाज़ा दुनिया के ‘नॉर्मल’ होते-होते, वास्तविक अनुभवों को सोखने की खातिर लोगों ने फिर थियेटरों, सिनेमा हॉलों, जैज़-बार, रॉक-क्लब, उद्यानों,मेला स्थलों, पंडालों, प्रदर्शनी हॉलों, दीर्घाओं तक में लौटने की ठान ली है। ऐसे में जोश मलीहाबादी का शेर याद आता है –
हम गए थे उससे करने
शिकवा-ए-दर्द-ए-फ़िराक़
मुस्कुराकर उसने देखा
सब गिला जाता रहा ।
वाकई, हालात नरम पड़े तो जैसे पिछली शिकायतें भुलाने की होड़-सी मच गई। हर आयोजक नए अवतार में, बड़े पैमाने पर लौटने की तैयारियों में जुट गया है। 2022 की विदाई होते-होते जैसे एक बार फिर जश्न का मौसम लौटने लगा है। दुनिया के सबसे बड़े साहित्योत्सव- जयपुर लिटफेस्ट ने अगले महीने (19 से 23 जनवरी, 2023) अपने सोलहवें संस्करण के साथ गुलाबी नगरी में एक बार फिर लफ्ज़ों, जज़्बातों की जादुई महफिल सजाने का ऐलान कर दिया है। उधर, केरल में अरब सागर के तट पर कोझिकोड लिटफेस्ट (12 से 15 जनवरी, 2023)की महफिलें सजने वाली हैं। भारत के सबसे बड़े आर्ट फेस्टिवल होने का दावा करने वाला सेरेन्डिपिटी फेस्टिवल भी पणजी (गोवा) में इसी महीने (15 से 23 दिसंबर) प्रदर्शनियों, प्रस्तुतियों, वर्कशॉप्स, आर्ट, क्राफ्ट, फोटोग्राफी, फूड वगैरह के साथ अपने पांचवें संस्करण की धूमधाम लेकर हाजिर हो रहा है।
कुछ नया गढ़ने का सामान
कहते हैं जब-जब इंसान पर मुसीबत आन पड़ी है, जब-जब उसका मोहभंग हुआ है अपने माहौल और हालातों से, तब-तब उसने जीने का नया सामान जुटाया है। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जब राजनीति और राष्ट्रों की अस्मिता खतरे में पड़ी, हिटलर जैसे निरंकुश ने कला और साहित्य को उजाड़ने के लिए बाकायदा तंत्र खड़ा कर दिया, उन्हीं हालातों ने कलाकारों को कुछ नया गढ़ने का सामान मुहैया कराया। युद्ध ने उन्हें न सिर्फ प्रभावित किया, झकझोरा बल्कि रोमांस और प्रकृति के गुणगान की राहों से मोड़कर नई संवेदनाओं के तानों-बानों से आधुनिक यथार्थवाद का नया चोला बुनने के लिए भी तैयार किया। अतीत के कितने ही दौर इस बात का प्रमाण हैं कि युद्धों की विभीषिकाओं और अत्याचारों, प्रताड़नाओं को झेलने के बाद साहित्य और कला की दुनिया नए ‘वाद’ ही नहीं बल्कि प्रतिक्रियाओं के नए साजो-सामान के साथ लौटती रही है। कला-संस्कृति की दुनिया ने जिस तरह से अपना रूपांतरण किया और नए साजो-सामान के साथ उपस्थिति दर्ज करायी और दुनिया को जिस अंदाज़ में प्रभावित किया, वह वाकई जरूरी था।
हालांकि कोविड महामारी से उपजी मनहूसियतों की तुलना युद्धों के संताप से नहीं की जा सकती, लेकिन दूसरे महायुद्ध का उदाहरण भी हमारे सामने है कि कैसे युद्ध खत्म होने के बाद यूरोप की धरती पर नए बीज बोए गए थे। तब एक के बाद एक कितने ही आर्ट फेस्टिवल्स की ज़मीन तैयार हुई। एडिनबरा (1947), ऑल्डबर्ग (1948), रॉयल फेस्टिवल हॉल (1951) ने आंखें खोली और दर्शकों के साथ संवाद कायम कर उन्हें अभिव्यक्ति के नए रोशनदान दिखाए।
कुछ ऐसा ही बीते पूरे साल दिखायी दिया, खासतौर से 2022 के उत्तरार्ध तक आते-आते आयोजनों की ढोल-थाप ज्यादा सुनाई देने लगी और बीते दो वर्षों में उत्सवों से दूर रहे लोगों की उत्साही भागीदारी को पहले से भांपकर आयोजकों ने भी अपनी तैयारियों के मजबूत शामियाने तान दिए हैं। जश्न-ए-रेख्ता के संस्थापक संजीव सर्राफ ने दर्शकों की उमड़ती भीड़ और पंडालों में फनकारों का हौंसला बढ़ाने वाले नज़ारों को देखकर जब साहिर लुधियानवी को कुछ यों याद किया, तो बहुत कम में सब कुछ कह डाला –
हज़ार बर्क़ गिरे लाख आंधियां उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं।