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परफेक्शन की आदत में मनोरोग के जोखिम भी

हरेक काम में परफेक्शन ढूंढने वाले, बहुत चतुर और बेहद विचार करके कोई कदम उठाने वाले लोग समाज में आदर्श-सफल माने जाते हैं। लेकिन कई अध्ययनों के आधार पर मनोवैज्ञानिक इन कथित अच्छी आदतों को पर्सनैलिटी डिसआर्डर यानी मानसिक विकार...
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हरेक काम में परफेक्शन ढूंढने वाले, बहुत चतुर और बेहद विचार करके कोई कदम उठाने वाले लोग समाज में आदर्श-सफल माने जाते हैं। लेकिन कई अध्ययनों के आधार पर मनोवैज्ञानिक इन कथित अच्छी आदतों को पर्सनैलिटी डिसआर्डर यानी मानसिक विकार की श्रेणी में रखते हैं। यह भी कि ये प्रवृत्तियां व्यक्ति को जीवन की खुशियों से वंचित कर देती हैं।

रेखा देशराज

इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसी चुस्त-दुरुस्त और परफेक्शनिस्ट को समाज में लोग अनुशासित, ईमानदार और सफल लोगों की श्रेणी में रखते हैं। लेकिन सही बात यह है कि एक हद से ज्यादा परफेक्शन की तलाश, किसी को पलभर में भांप लेने की काबिलियत, हर बात का मतलब निकाल लेना और किसी काम को करने के पहले उसके बारे में जरूरत से ज्यादा सोचना ये सब अच्छी से कहीं ज्यादा बुरी आदतें हैं। मनोवैज्ञानिक और चिकित्सक इस बात पर सहमत हैं कि ये आदतें वास्तव में पर्सनैलिटी डिसऑर्डर हैं। आइये जानते हैं कि क्यों इन आदतों को पर्सनैलिटी की खामियों में शुमार किया गया है।

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परफेक्शन की तलाश

आपके इर्दगिर्द कई लोग ऐसे मिल जाएंगे, चाहे दफ्तर में हो, मोहल्ले में हो या घर में ही हो, जो गर्व से कहते हैं कि मैं तो चीजों को बहुत परफेक्ट करता हूं। जरा सा भी कमी बर्दाश्त नहीं कर सकता। अच्छी बात है। समाज में ऐसे लोगों को इज्जत से ही देखा जाता है। लेकिन अगर मेडिकल और मनोविज्ञान की नजरों में देखें तो हर चीज में परफेक्शन की तलाश करना यानी बहुत शुद्धतावादी होना, समझदारी नहीं पागलपन है। एक स्थिति के बाद आपका यह पूर्णतावाद दूसरों को ही नहीं बल्कि आपको ही परेशान करने लगता है। पर्थ में कॉर्डिन विश्वविद्यालय की वरिष्ठ शोध फेलो सारा इगन कहती हैं, ‘किसी व्यक्ति में जितना परफेक्शन के प्रति आग्रह होगा, वह उतनी ही ज्यादा मनोवैज्ञानिक विकारों से पीड़ित होगा या भविष्य में हो सकता है।’ सारा इगन पूर्णतावाद के विकार और चिंता की विशेषज्ञ हैं, उनके मुताबिक, ‘परफेक्शन एक ऐसी बीमारी है, जो काम से शुरू होती है और आपकी जिंदगी के हर हिस्से में आ धमकती है।’ इसलिए एक हद के बाद परफेक्शन से तौबा कर लेना चाहिए।

जरूरत से ज्यादा चतुर होना

मनोवैज्ञानिक अध्ययन इस बात को साबित करते हैं कि जरूरत से ज्यादा चतुर होना, फायदेमंद नहीं बल्कि नुकसानदायक होता है। मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक, लोग इस बात को नहीं जानते कि अज्ञानता भी सुख है और बहुत ज्यादा उच्च आईक्यू सुख की बजाय दुख में परिवर्तित हो जाता है। दुनिया के ज्यादातर जीनियस लोगों के किस्से पढ़िए, वे हताशा और अकेलेपन की समस्या से ग्रस्त रहे हैं। चाहे चमकते फिल्मी सितारे हों, प्रसिद्ध खिलाड़ी हों या लोकप्रिय लेखक हों। वर्जीनिया वुल्फ और अर्नेस्ट हेमिंग्वे से लेकर टाइगर वुड तक ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो बहुत सफलता हासिल करने के बाद जीवनभर दुख-परेशानी में डूबे रहे, क्योंकि कहा जा सकता है कि वे जरूरत से ज्यादा बुद्धिमान या चालाक थे। अध्ययन पुष्टि करते हैं कि अगर आपको खुश व बेफिक्र रहना है, तो ज्यादा बुद्धिमान होना नुकसानदायक है। इसलिए अगर आपका बच्चा बहुत शार्प नहीं है तो फिर खुश हो जाइये कि उसमें खुश रहने के गुण मौजूद हैं।

हर बात का मतलब खोजना

कुछ लोग बड़े ओवर थिंकर होते हैं। वे हर चीज का कोई न कोई मतलब जरूर खोजते हैं और कई बार ये बेमतलब होता है। अगर आप साहित्य के आलोचकों को पढ़ें तो हैरान हो जाएंगे कि वे कवियों की सामान्य कविताओं में खो सकते हैं जिनका मतलब सिर्फ शब्द और लय का आनंद लेना हो। पूरे 24 घंटे में किए गए हमारे हर काम का जरूरी नहीं है कोई दूरगामी मतलब ही हो। लेकिन कुछ लोग आपकी अंगुली उठने, अंगुली गिरने से लेकर नजरें उठाने और नजरें गिराने तक के भी गूढ़ अर्थ निकालते हैं। यह विकार है, शार्पनेस नहीं। एक स्थिति के बाद आपकी इस आदत के चलते हर कोई आपसे कटने लगता है और आप खुद इसके बोझ से दब जाते हैं।

जरूरत से ज्यादा सोचना

कुछ लोग किसी भी काम को करने के पहले उस पर इतना ज्यादा सोचते हैं कि ज्यादातर मौकों पर वे उसे करते ही नहीं । इस पर उन्हें कोई पछतावा भी नहीं होता बल्कि वे अपने इस सोचने के तरीके को शुक्रगुजार मानते हैं कि वे उस काम को करने से बच गए, क्योंकि इन्होंने सोच लिया होता है उसमें हर हाल में नुकसान होना था। कुछ और लोग किसी काम करने के पहले बहुत ज्यादा होमवर्क को सही मानते हैं। यह बात हमेशा सही नहीं होती बल्कि ज्यादातर मौकों पर गलत होती है। जब हम किसी योजना के बारे में बहुत ज्यादा सोचते हैं तो 90 फीसदी मौकों पर हम उसे छोड़ देते हैं, काम नहीं करते। ज्यादा सोचने से आदमी का दिमाग भी शरीर की तरह थक जाता है और जिस विषय में ज्यादा सोचते हैं, उससे अरुचि या घृणा हो जाती है। जिस कारण आमतौर पर जिन योजनाओं के बारे में बहुत ज्यादा सोचते हैं, ज्यादातर बार उन्हें छोड़ना पड़ जाता है। इसलिए अगर कुछ करना चाहते हैं तो बिना सोचे करने की सलाह तो कोई नहीं देगा, लेकिन बेहद सोचते रहना भी सही नहीं होगा।

-इ.रि.सें.

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