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लघुकथाएं

अपने-अपने आग्रह बलराम अग्रवाल ‘तुझे मेरा नाम मालूम नहीं है क्या?’ वह उस पर चीखा। ‘है न–रामरक्खा!’ ‘रामरक्खा नहीं, अल्लारक्खा।’ ‘एक ही बात है।’ ‘एक ही बात है तो अल्लारक्खा क्यों नहीं बोलता है?’ ‘मैं तो वही बोलता हूं। तुझे...
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अपने-अपने आग्रह

बलराम अग्रवाल

‘तुझे मेरा नाम मालूम नहीं है क्या?’ वह उस पर चीखा।

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‘है न–रामरक्खा!’

‘रामरक्खा नहीं, अल्लारक्खा।’

‘एक ही बात है।’

‘एक ही बात है तो अल्लारक्खा क्यों नहीं बोलता है?’

‘मैं तो वही बोलता हूं। तुझे पता नहीं, कुछ और क्यों सुनाई देता है!’

टूटे सपनों की टीस

अशोक जैन

खंडित मूर्तियों का ढेर-सा लग गया था उस पीपल के वृक्ष के नीचे जो मंदिर के प्रांगण से बाहर खड़ा था। तभी एक और महिला कुछ मूर्तियों को लेकर वहां आई और ढेर पर रखने लगी तो एक देव की मूर्ति चौंकी और बोली,

‘बेटी! हमें यहां इकट्ठी मत करो। अच्छा नहीं लगता।’

‘अरे! खंडित मूर्ति को न हम घर में रख सकते हैं और न ही इनकी पूजा कर सकते हैं। फिर भला इनका निपटान क्यों न करें?’

मूर्ति चुप हो गई। सभी मूर्तियां आपस में चर्चा करने लगीं।

‘वो भी क्या दिन थे जब हमें हार पहनाकर पूजा जाता था।’

‘तब हम इनके लिए देवी-देवता कहलाते थे।’

‘तरह तरह के मिष्ठान्न बनाकर हमें भोग लगाया जाता था।’ एक अन्य मूर्ति का दर्द भरा स्वर उभरा।

‘नये-नये वस्त्र पहनाकर हमारा अभिषेक किया जाता था।’

‘और आज...! हमें यहां यूं ही फेंक दिया गया है।’

‘सही तो है! जो टूटा वही फेंका गया, मूर्ति हो या मानव!’ देव की एक बड़ी सी मूर्ति के स्वर में उदासी थी।

सभी मूर्तियों की आंखों में टूटे हुए सपनों का दर्द झलक आया था।

कुंडली

बिटिया का बायो-डाटा और फोटो उसके पिता ने लड़के की मां के हाथ में थमा दिया। फोटो को अपने पास रोककर बायो-डाटा उसने पति की ओर बढ़ा दिया। पति ने सरसरी तौर पर उसको पढ़ा और कन्या के पिता से पूछा, ‘कुंडली लाए हैं?’

‘हां जी, वह तो मैं हर समय ही अपने साथ लिए घूमता हूं।’ वह बोला।

‘वह भी दे जाइए।’ उसने कहा।

‘सॉरी भाईसाहब!’ वह बोला, ‘उसे मैं देकर नहीं जा सकता। जिन पंडितजी से उसका मिलान कराना हो, या तो उन्हें यहां बुला लीजिए या मुझे उनके पास ले चलिए।’

लड़के के पिता और माता दोनों को उसकी यह बात एकदम अटपटी लगी। वे आश्चर्य से उसका मुंह देखने लगे।

‘वैसे, जब से बेटी के लिए वर की तलाश में निकलना शुरू किया है, मैं अपनी भी कुंडली साथ में रख लेता हूं।’

उनकी मुख मुद्रा को भांपकर लड़की का पिता बोला, ‘आप लोग अपनी कुंडली इस मेज पर फैला लीजिए, मैं भी अपनी को आपके सामने रख देता हूं। अगर हम लोगों की कुंडलियां आपस में मेल खा गई तो मुझे विश्वास है कि बच्चों की कुंडलियां भी मेल खा ही जाएंगी।’

इतना कहकर उसने अपनी जेब में हाथ डाला और बिटिया के विवाह पर खर्च की जाने वाली रकम लिखा कागज का एक पुर्जा, सोफे पर कुंडली मारे बैठे उस दम्पति की ओर बढ़ा दिया।

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