इस साल हिंदी सिनेमा की यादगार फिल्म ‘शोले’ के प्रदर्शन को 50 साल पूरे हो रहे हैं। दरअसल, 15 अगस्त 1975 में जब ‘शोले’ रिलीज हुई, उस साल देश में आपातकाल लगा था। जिसके चलते ‘शोले’ के निर्माता को फिल्म का अंत बदलना पड़ा था क्योंकि सेंसर बोर्ड नहीं चाहता था, कि कानून को लाचार बताया जाए और पीड़ित खुद अपना बदला लेने की जुर्रत कर सके। अब ‘शोले’ को उसके ओरिजनल क्लाइमेक्स के साथ फिर रिलीज किया जाएगा, जिसमें ठाकुर को डाकू गब्बर सिंह का अंत करते बताया गया। इसके अलावा भी नयी ‘शोले’ में बहुत कुछ बदला हुआ दिखाई देगा।
हेमंत पाल
हिंदी फिल्म इतिहास में ‘शोले’ ऐसी फिल्म है, जिसे बीते पचास साल से लेकर आजतक हर वर्ग के दर्शक ने सराहा। इस कालजयी फिल्म को ‘फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन’ के सहयोग से नया अवतार मिला है। इसे इटली के विशाल प्लाजा पियाजा मैगिओर सिनेमाघर में प्रदर्शित किया गया। जिस तरह इस फिल्म को प्रतिसाद मिला, उससे यह उम्मीद जागी कि अनकट दृश्यों और मूल अंत के साथ ‘शोले’ भारतीय दर्शकों को भी देखने को मिलेगी। पचास साल पहले जब ‘शोले’ प्रदर्शित हुई, तब फिल्म के मूल अंत में पूर्व पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह द्वारा गब्बर सिंह को अपने स्पाइक वाले जूतों से मारकर अपना बदला लेते हुए दिखाया गया था। तब सेंसर बोर्ड इस अंत से खुश नहीं था। वह चाहता था कि फिल्म का अंत बदला जाए। बोर्ड के सदस्यों की राय थी कि फिल्म में बहुत अधिक हिंसा है। इसलिए निर्देशक रमेश सिप्पी ने अंत को फिर से शूट किया, जिसमें ठाकुर द्वारा पीटे जाने के बाद गब्बर को पुलिस गिरफ्तार कर लेती है। इसे पुराने अंत के साथ फिर से प्रदर्शित करना आसान नहीं था। क्योंकि, इन पचास सालों में ‘शोले’ की निगेटिव पूरी तरह से खराब हो चुकी थी। इसकी रीलें आपस में चिपक चुकी थी। जिसे नया रूप देने के लिए फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन आगे आई और रमेश सिप्पी ने इसके लिए वित्तीय सहायता की। तीन साल की अथक मेहनत के बाद इसे फोर-के तकनीक और डॉल्बी साउंड सिस्टम के साथ नए अवतार में तैयार किया गया। जब शुक्रवार को विश्व प्रीमियर वार्षिक इल सिनेमा रिट्रोवाटो फेस्टिवल के दौरान इटली के बोलोग्ना में एक बड़े ओपन एयर थियेटर वाली स्क्रीन पर ‘शोले’ को उसके मूल अंत के साथ दिखाया गया तो इसे भरपूर तारीफ मिली। अंतर्राष्ट्रीय समारोहों और थिएटरों के साथ ही समझा जा रहा है कि 50 साल पूरा होने पर इसे 15 अगस्त को भारत में भी रिलीज किया जाएगा। सलीम-जावेद की जोड़ी की लिखी यह फिल्म 204 मिनट लंबी है। इसमें संजीव कुमार, हेमा मालिनी, जया भादुड़ी, अमजद खान, हेलेन, सचिन, एके हंगल, विजू खोटे, मैक मोहन, सहित कई कलाकार शामिल है। फिल्म का संगीत आरडी बर्मन ने तैयार किया था और इसे 70 एमएम और स्टीरियोफोनिक साउंड में फिल्माया गया था।
कब शुरू हुआ ‘शोले’ के रेस्टोरेशन का काम
तीन साल पहले ‘शोले’ का निर्माण करने वाली सिप्पी फिल्म्स के शहजाद सिप्पी ने इसके रेस्टोरेशन के लिए फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन से संपर्क किया था। वह मुंबई के एक गोदाम में रखे गए फिल्म के कुछ अंशों को बचाने के लिए यह काम करवाना चाहते थे। परेशानी थी कि फिल्म के डिब्बों से लेबल गायब थे। लेकिन, जांच में पता चला कि उनमें मूल 35 मिमी कैमरा और साउंड निगेटिव थे। शहजाद ने फाउंडेशन को ब्रिटेन के एक स्टोरेज में संरक्षित फिल्म के कुछ एडिशनल कंटेंट्स के बारे में भी जानकारी दी। ब्रिटिश फिल्म संस्थान की मदद से एफएचएफ को इन सामग्रियों तक पहुंच मिली। दोनों जगहों से रीलों को रिस्टोर करने के लिए बोलोग्ना में एक विशेष फिल्म रेस्टोरेशन लैब में ले जाया गया। जहां तीन साल के अथक परिश्रम के बाद इसके रेस्टोरेशन का काम पूरा हुआ। इसमें ओरिजिनल कैमरा निगेटिव की हालत बहुत खराब थी। सबसे बड़ी चुनौती 35 एमएम वाली प्रिंट को 70 एमएम वाइडस्क्रीन में बदलने की थी।
काटे हुए दृश्यों को खूबसूरती से रिस्टोर किया
इस कवायद में फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन के निदेशक शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने बहुत रुचि से काम किया। उनका कहना है कि वे मूल कैमरा निगेटिव का उपयोग नहीं कर सके और एक भी 70 मिमी प्रिंट भी नहीं बचा था। फिर भी उन्होंने सुनिश्चित किया कि इस ऐतिहासिक फिल्म को खूबसूरती से रिस्टोर किया जाए। ओरिजिनल क्लाइमेक्स और कुछ काटे हुए दृश्यों को यथा स्थान रखकर इसकी रोचकता पहले से बढ़ा दी, ताकि नए व पुराने दर्शक इसका लुत्फ लें। सिप्पी फिल्म्स इसे सिप्पी फिल्म के संस्थापक जीपी सिप्पी की विरासत को विनम्र श्रद्धांजलि मानते हैं।
ऐसे रची गई इस कालजयी फिल्म की स्क्रिप्ट
‘शोले’ जैसी फिल्म बनाना आसान नहीं था। रमेश सिप्पी ने इस फिल्म की मेकिंग का किस्सा एक इंटरव्यू में बताया थाकि ‘शोले’ की राइटर जोड़ी सलीम-जावेद एक दिन मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि एक कहानी है, जरा सुन लो। मेरे हां कहते ही दोनों ने कहानी सुनाना शुरू कर दी। एक ठाकुर है, जो दो कैदियों की मदद से गांव वालों को गब्बर के आतंक से बचाता है। रमेश सिप्पी को भी कहानी अच्छी लगी। वह कहानी फाइनल करने के लिए सलीम-जावेद और रमेश सिप्पी करीब दो महीने तक एक ही कमरे में रहे। एक-एक सीन के बारे में विचार-विमर्श किया। तीनों बार-बार कागज फाड़ते और नए सिरे से लिखते। आखिर ‘शोले’ की स्क्रिप्ट पूरी कर ली गई।
गब्बर की दहशत दिखाना आसान नहीं
सिप्पी ने बताया कि जब हमने अमजद खान को लेकर गब्बर सिंह की शूटिंग शुरू की, तो सबसे बड़ी परेशानी यह आई कि गब्बर की दहशत को कैसे दिखाया जाए, ताकि दर्शक सिहर जाएं। संगीतकार आरडी बर्मन साहब ने अमजद खान की अपीयरेंस के लिए खास बैकग्राउंड म्यूजिक रचा था। गब्बर की डाकू वाली वर्दी का इंतजाम कर लिया गया। मगर जब वह पहली बार परदे पर आता है, तो चलते हुए उसके साथ एक बेल्ट से भी चट्टान से टकराते हुए एक खौफनाक आवाज निकलती है। इसके लिए हमें बहुत ही परेशानी उठानी पड़ी। गब्बर के लिए खास बेल्ट की तलाश शुरू हुई। मुंबई के भंगार बेचने वाले इलाकों, कबाड़ी मार्केट में पुरानी बेल्ट की तलाश शुरू की। करीब एक हफ्ते में हमने 200 बेल्ट जुटाई।
गब्बर की वो खौफनाक बेल्ट
जब बेल्ट को हमने अमजद खान को दिया और उनसे चट्टान पर चलते हुए बेल्ट को घसीटने के अंदाज में चलने को कहते। आरडी बर्मन खुद उस आवाज को सुनते। मगर, हर बार हमें निराशा होती, क्योंकि गब्बर वाली दहशत बेल्ट से नहीं आ पा रही थी। आखिरकार करीब 150 बेल्ट से प्रयोग करने के बाद कामयाबी मिली। जब अमजद खान उस बेल्ट को लेकर चलते तो उससे खास खौफनाक आवाज आती। बस हमने तय कर लिया कि यही परफेक्ट है। अमजद खान ने कामयाबी के साथ वह सीन शूट कर लिया, जिसका डायलॉग था ‘कितने आदमी थे!’
आखिरी सीन और आपातकाल
फिल्म ‘शोले’ के आखिरी सीन में असल में रमेश सिप्पी ने दिखाया था कि ठाकुर कील लगे जूतों से गब्बर को रौंदता है। मगर इमरजेंसी का दौर होने की वजह से सेंसर बोर्ड ने सख्त रुख अपनाया। सरकार नहीं चाहती थी कि फिल्म से ऐसा संदेश जाए कि कोई भी कानून अपने हाथ में ले सकता है। क्लाइमेक्स दोबारा शूट हुआ, जिसमें गब्बर को ठाकुर के पैरों से कुचलने से पहले पुलिस पहुंच जाती है और गब्बर को ले जाती है।