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एक नदी : अनेक संस्कृतियों का संगम

सिंधु दर्शन महोत्सव
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सिंधु दर्शन महोत्सव केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक विविधता, धार्मिक एकता और ऐतिहासिक पहचान का जीवंत प्रतीक है। लद्दाख की गोद में होने वाले इस आयोजन में नदियों का संगम, लोक कलाओं की प्रस्तुति और आस्था हिलोरे लेती हैं। सिंधु के तट पर हर साल यह पर्व सांस्कृतिक चेतना को जीवंत करता है।

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धीरज बसाक

सिंधु दर्शन महोत्सव जैसा कि इसके नाम से ही पता चलता है यह सिंधु नदी का एक उत्सव है। आज भारतीय संस्कृति के गौरव का प्रतीक बन चुका यह सिंधु दर्शन महोत्सव साल 1997 में शुुरू किया गया था। अब यह उत्सव अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। महज 29 सालों में इस महोत्सव ने भारत के कोने-कोने में अपनी सांस्कृतिक धमक पहुंचायी है। आज इस महोत्सव में देश के अलग-अलग कोनों से अलग-अलग संस्कृतियों के विशिष्ट मंडल अपनी उपस्थिति दर्शाकर गौरव का आनंद महसूस करते हैं। इस उत्सव के दौरान सिंधु नदी की पूजा-अर्चना की जाती है। वहीं देश के अलग-अलग कोनों से आए कलाकार अपने-अपने क्षेत्र के विशिष्ट सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रदर्शन करते हैं।

सिंधु दर्शन महोत्सव की शुरुआत सिंधी समुदाय के ‘सिंधु दर्शन अभियान’ से शुरू हुई, जो अब सिंधु दर्शन महोत्सव के नाम से जाना जाता है। इस महोत्सव के रूप में लेह कस्बे से करीब 15 किलोमीटर दूर शे नामक स्थान पर महोत्सव का आयोजन किया जाता है। ऐसा आयोजन पहली बार 1996 में हुआ और 1997 में बाद में यह व्यवस्थित रूप से होने लगा। यह उत्सव तीन दिनों तक चलता है, जो कि सिंधु नदी के तट पर पनपी सभ्यता और संस्कृति के संगम को दर्शाता है। आज इस महोत्सव में देश ही नहीं, दुनिया के कोने-कोने से लोग आकर हिस्सा लेते हैं। तीन दिनों के इस महोत्सव में पहला दिन सिंधु दर्शन उत्सव व सिंधु नदी के पूजा-पाठ के साथ-साथ लद्दाख की परंपराओं और संस्कृतियों के सम्मान में किये जाने वाले कार्यक्रमों में बीतता है।

इस पर्व में कई धर्मों का संगम होता है, विशेषकर सनातन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म के विद्वान आपस में मिलकर सिंधु नदी की साझी पूजा-अर्चना करते हैं और उसे अपने फलने फूलने में तरह तरह से योगदान देने के लिए धन्यवाद देते हैं। इस महोत्सव में भारत की समस्त महान नदियों से मिट्टी के घड़ों में भरकर पानी लाया जाता है और उस पानी को सिंधु नदी में विसर्जित किया जाता है। इस तरह समस्त भारत की नदियों से पानी मिलाकर उसे समस्त भारत की पवित्र नदी बनाया जाता है। इस महोत्सव के लिए लद्दाख में एक विशेष परिसर निर्मित किया गया है। इस परिसर में 500 लोगों के बैठने का एक सभागार, एक ओपन थियेटर, एक प्रदर्शनी गैलरी, एक संगीत कक्ष और एक छोटी-सी लाइब्रेरी है, जिसमें सिंधु नदी की महिमा से जुड़ा विशेष साहित्य मौजूद है। इस महोत्सव में भाग लेने वाले लोग, यहां से लद्दाख के हस्तशिल्प की विभिन्न सामग्री खरीदते हैं।

दरअसल, सिंधु नदी का भारत के धर्म और संस्कृति में जो महत्व है, वह तो है ही। इसकी एक ऐतिहासिक और भौगोलिक महत्ता भी है। आज हम जो हिंदू या हिंदुस्तान जैसी पहचान को जानते हैं, दरअसल वह इस सिंधु नदी से बनी पहचान ही है। इसलिए लेह के लेह शे मनला में आयोजित यह महोत्सव हिमालय की खूबसूरती के लिए भी भारत की ऐतिहासिकता और भौगोलिकता का गौरव व महोत्सव होता है। इस साल इस महोत्सव का यह 29वां संस्करण है, जिसमें बड़े पैमाने पर पर्यटक आते हैं। पहली बार दुनिया के धार्मिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में यह महोत्सव तब उभरकर आया था, जब 1997 में यहां फिल्म ‘दिल से’ की शूटिंग हुई थी।

कुल मिलाकर सिंधु दर्शन महोत्सव अपनी सांस्कृतिक पवित्रता, सर्व धर्म, सम्भाव और पर्यटन आधारित उल्लास का एक विशिष्ट मंच है। जून की शुरुआत में होने वाली सिंधु दर्शन यात्रा का आयोजन अब खत्म हो चुका है और 23 से 27 जून तक गुरु पूर्णिमा पर आधारित व्यापक सांस्कृतिक समारोह यानी सिंधु दर्शन महोत्सव बेसब्री से अपने सम्पन्न होने वाली घड़ियों का इंतजार कर रहा है। इ.रि.सें.

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