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नशा नहीं, शरीर की शक्ति ही दूर करेगी दु:ख-कष्ट

नशा निवारण का सिद्धांत
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नशे के विरोध में जन चेतना का दूरगामी प्रभाव है। नशे से दूर रहने के फायदों और मादक पदार्थों के सेवन से कृत्रिम आनंद प्राप्ति के भ्रम को समझाने के लिए उद्विकास सिद्धांत यानी थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन की अवधारणा बहुत उपयोगी है। परिस्थितियों से अनुकूलन की प्रणाली शरीर में ही मौजूद है। जिसके मुताबिक, दुखों से छुटकारे को मादक पदार्थों का सेवन स्थाई व प्राकृतिक उपाय नहीं।

जगदीश राय एवं जयन्ती दत्ता

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समाज से नशे की बुराई को समाप्त करना बेहद जरूरी है। इस दिशा में देश में नशा मुक्त भारत अभियान तीन स्तरों पर काम कर रहा है। पहला, नशे की तस्करी रोकना, दूसरा जागरूकता अभियानों से जन चेतना का विकास तथा तीसरा स्तर नशा ग्रस्त व्यक्तियों का प्रभावी इलाज है। इन तीनों में से नशा विरोधी चेतना फैलाना एक ऐसा उपाय है जो सहज में क्रियान्वित हो सकता है।

थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन की उपयोगिता

नशे के सेवन से पड़ने वाले कुप्रभावों के बारे में कई तरह की लिखित और श्रव्य सामग्री किताबों, फिल्मों तथा सोशल मीडिया कंटेंट के रूप में उपलब्ध भी हैं, परन्तु उनकी प्रभावशीलता बहुत अधिक नहीं। डार्विन द्वारा प्रदान किये गये उद्विकास के सिद्धांत यानी थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन द्वारा नशे के सेवन की निरर्थकता को सहज ही प्रमाणित किया जा सकता है। नशे से दूर रहने के फायदों और नशे के सेवन से मिलने वाले कथित आनंद-मस्ती की व्यर्थता को व्यापक तथा विश्वसनीय तरीके से समझाने के लिए यह अवधारणा बहुत उपयोगी है, क्योंकि इसे बौद्धिक स्तर पर समझा भी जा सकता है तथा प्रयोगात्मक रूप से क्रियान्वित भी सहजता से किया जा सकता है। हालांकि यह विज्ञान आधारित अवधारणा है परन्तु इसे व्यक्ति आसानी से समझ कर अपना जीवन इसके अनुरूप ढाल सकता है।

अनुकूलन में भावनाओं की भूमिका

उद्विकास सिद्धांत के अनुसार हमारे भीतर सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों तरह की भावनाएं स्वाभाविक रूप से जन्म लेती हैं, क्योंकि इसका एक विशेष उद्देश्य होता है, वह है, व्यक्ति के शरीर की अवस्था और व्यवहार को परिस्थितियों के अनुरूप ढालना। मसलन, सकारात्मक भाव जैसे उत्साह और उत्तेजना जीव को ऐसे कामों के लिए प्रेरित करती है जो लाभदायक होते हैं, दूसरी ओर चिंता अथवा पीड़ा जैसी नकारात्मक भावनाएं भी हमें नुकसान नहीं पहुंचाती परंतु उनका कार्य हमें हानिकारक परिस्थितियों में पड़ने से बचाना होता है।

परिस्थिति के मुताबिक प्रतिक्रिया

कोई भी जीव अपने जीवन में विभिन्न प्रकार की स्थितियों का सामना करता है। जीवित रहने के लिए प्रत्येक विशिष्ट स्थिति के अनुसार एक विभिन्न प्रतिक्रिया की जरूरत होती है। यदि परिस्थिति-अनुकूल प्रतिक्रिया की जाए तो जीवन का अस्तित्व तथा उसके फैलाव में सुविधा होती है और बाधा उत्पन्न नहीं होती। अनुकूल प्रतिक्रिया मनुष्य के तंत्रिका तंत्र द्वारा विनियमित होती है। तंत्रिकाएं शरीर में विभिन्न प्रतिक्रियाओं के लिए कई प्रकार के रसायनों का प्रयोग करती हैं। मसलन, व्यक्ति के घायल होने पर, तुरंत दर्द निवारक रसायन स्रावित होते हैं जो उसे निकटतम सहायता तक पहुंचने में सक्षम बनाते हैं। लेकिन कुछ समय बाद इन दर्द निवारक रसायन का स्राव बंद हो जाता है और दर्द महसूस होने लगता है। बढ़े हुए दर्द की वजह से व्यक्ति अपने चोटिल अंग को ज्यादा हिलाता नहीं और इससे चोट ठीक होने की प्रक्रिया तेज हो जाती है।

नियंत्रण में फायदेमंद अहसास

यदि चोट वाले स्थान में पीड़ा न हो तो सक्रियता के कारण चोट ठीक होना असंभव हो जाएगा। दरअसल,पीड़ा का अनुभव शरीर को एक विशिष्ट तरीके से चलाने के लिए एक नियंत्रक का काम करता है। पीड़ा के मूल सिद्धांत को समझने से हम पीड़ा को खत्म करने की निरर्थक चेष्टा न करके उसके द्वारा शरीर में होने वाले लाभ को अंगीकार कर सकते हैं। दूसरी ओर जब किसी व्यक्ति को अनुकूलन के लिए कोई विशिष्ट प्रयास करना पड़ता है तो उसमें आनंद और उत्साह का संचार होता है जिससे वह दूभर कार्य को भी कर गुजरता है। परन्तु आनंद की यह अवस्था भी सदैव नहीं रहती और कार्य सम्पन्न होने पर आनंद का भाव उपजाने वाले रसायन का स्राव भी बंद हो जाता है।

अनुभूतियों का अस्थायित्व

गौरतलब है कि पीड़ा और आनंद अस्थायी अनुभूतियां हैं। परंतु नशा करने वाले इस भ्रान्ति में जीते हैं कि नशा करने से वे सदा के लिए आनंदित हो जाएंगे और दुःख या पीड़ा उनके हिस्से में कभी आएगी ही नहीं। आनंद, उत्साह अथवा पीड़ा के भावों को उत्पन्न करने वाले रसायन जीवों का शरीर प्राकृतिक रूप से उस विशेष परिस्थिति से निपटने के लिए, स्वयं ही बना लेता है। शरीर में यह जटिल अनुकूलन प्रणाली हजारों वर्षों के उद्विकास से विकसित हुई है और इसलिए यह अत्यंत प्रभावी ढंग से काम करती है।

रास नहीं आने वाले पदार्थ

नशीले पदार्थ भी शरीर में कृत्रिम रूप से रसायनों का उत्पादन करते हैं जिससे मस्ती, खुमारी की अनुभूति हो सकती है। परन्तु नशीले पदार्थों द्वारा उत्पन्न ये रसायन उद्विकासीय क्रियाविधि से प्रेरित न होने की वजह से मनुष्य इनके प्रति अनुकूलित नहीं हैं। अतः ये मनुष्य को प्राकृतिक रूप से रास नहीं आते परन्तु अनुकूलन का झूठा संदेश देकर तंत्रिका तंत्र का दुरुपयोग ही करते हैं।

अस्तित्व बचाना ही मकसद

इस वैज्ञानिक पृष्ठभूमि को समझने के साथ यह जानना भी जरूरी है कि मस्तिष्क का मूल उद्देश्य अंतहीन आनंद की प्राप्ति नहीं बल्कि जीवन को बचाना और बढ़ाना ही उसका मुख्य लक्ष्य है। प्रसन्नता-अप्रसन्नता तो केवल किसी भी स्थिति में जीवित रहने के लिए अनुकूल प्रतिक्रिया के लिए व्यवहार को विनियमित करने के साधन मात्र हैं।

अतः मनुष्य को सुख और दुख दोनों को ही जीवन का अभिन्न अंग समझ कर स्वीकार करना चाहिए- यह केवल एक दार्शनिक विचार ही नहीं अपितु विज्ञान आधारित सत्य है और इसलिए दुखों से पीछा छुड़ाने के लिए नशीले पदार्थों का सेवन करके नशे में धुत हो जाना - इसका उचित प्रतिकार नहीं हो सकता। नशीली दवाओं का उपयोग करके अतिरिक्त खुशी की तलाश करने का कोई भी प्रयास अस्थायी ही होगा क्योंकि इसकी प्रतिपूर्ति बाद में टूटन या परेशानी के प्रभाव से होगी।

-लेखकद्वय पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में प्राध्यापक हैं।

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