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समाज की फिक्र करने वाले नायक का जिक्र

गुरुदत्त की जन्मशती

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भारतीय फिल्मोद्योग में ऐसे विरले फिल्मकार हुए हैं जिन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था के खोखलेपन और उससे पैदा होने वाले पतनशील मूल्यों को इस शिद्दत से दिखाने की कोशिश की हो जिसका जमाना मुरीद हो जाए। ऐसे विरले फिल्मकारों में ही शुमार हैं गुरुदत्त। साल 2025 उनका जन्म शताब्दी वर्ष है तो यह विचार स्वाभाविक है कि यह यादगार काम उन्होंने तब किया जब देश आजाद ही हुआ था और राष्ट्र निर्माण की पारी शुरू हो चुकी थी। यह समाज और सिनेमा में आशाओं और उमंगों का दौर था। तब उन्होंने व्यवस्था के स्याह पक्ष को अपनी फिल्मों में मार्मिक और खूबसूरत अंदाज में दर्शाया।

‘प्यासा’ से सामाजिक कथानकों की शुरुआत

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हालांकि शुरुआती दौर की उनकी ‘बाजी’, ‘जाल’, ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ इस जोनर की फिल्में नहीं थीं। अपने शुरुआती दौर में वे प्यार और अपराध के मकड़जाल में फंसे नायक की त्रासदी व्यक्त करते नजर आते हैं। तब तक गुरुदत्त की ऐसे सामाजिक कथानकों वाली फिल्मों का आविर्भाव नहीं हुआ था जहां व्यवस्था के जाल में फंसे व्यक्ति की त्रासदी पर्दे पर नजर आए। यह काम शुरू हुआ उनकी निर्देशित की फिल्म ‘प्यासा’ से। ‘प्यासा’ के कथानक और उसके लिए लिखे साहिर लुधियानवी के गीतों ने न केवल हुक्मरानों को कटघरे में खड़ा किया बल्कि व्यवस्था की त्रासदी को मार्मिक और जीवंत रूप में प्रदर्शित किया।

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जागरूक करने का जरिया बने गीत

‘प्यासा’ समाज की पीड़ा के प्रति हुक्मरानों की आंखें खोल देने वाली फिल्म थी। कथानक तो मजबूत था ही, इसके गीत लिखने वाले शायर साहिर लुधियानवी ने अपने गीतों में कुछ ऐसा फलसफा दिया था जो आत्मा को झकझोर देने वाला था। गीत ‘जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं...’ के एक अंतरे- ‘जरा मुल्क के रहबरों को बुलाओ, ये गलियां ये कूचे ये मंजर दिखाओ’ ने पूरे समाज और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की आत्मा को उद्वेलित किया था। उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया में कहा था कि ‘मैं साहिर और गुरुदत्त को फॉलो कर रहा हूं।’ इसी फिल्म के एक और गीत- ‘ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया, ये इंसां के दुश्मन समाजों की दुनिया , ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’ ने रेड लाइट एरिया की दुनिया को बड़े मार्मिक अंदाज में प्रस्तुत किया था। फिल्म के जरिए यह कहने की कोशिश की गई थी कि इस आजादी को और बेहतर करने की जरूरत है। जहां सबको समानता से जीने के अवसर मिलें।

गुरुदत्त ने ‘प्यासा’ से जो सामाजिक कथानकों का ताना-बाना बुना वो फिर आगे भी जारी रहा। ‘कागज के फूल’ इस कड़ी की दूसरी फिल्म थी जिसने भारतीय फिल्मोद्योग के स्वार्थपरता भरे चेहरे को उजागर किया था। गुरुदत्त की फिल्मों के स्थाई लेखक थे अबरार अल्वी, जिन्होंने प्यासा और कागज के फूल फिल्मों को लेकर इस लेखक को एक इंटरव्यू में कई दिलचस्प बातें बताईं थीं।

कहानी लेखक की योग्यता का सम्मान

अबरार अल्वी के मुताबिक, उनके मामा गुरुदत्त के स्टूडियो में काम करते थे। एक दिन वे अबरार को गुरुदत्त के आफिस ले गए। वहां गुरुदत्त के असिस्टेंट राज खोसला किसी फिल्म का डायलॉग लिख रहे थे। तभी उन्होंने अबरार से पूछा कि क्या वह इस डॉयलाग को और दुरुस्त कर सकते हैं। इस पर अबरार ने कहा- कहानी व किरदार की जानकारी बगैर डॉयलाग कैसे दुरुस्त कर सकते हैं। कहानी मालूम पड़ेगी तो पता चलेगा कि किरदार किस वर्ग से आता है। तब उस वर्ग के हिसाब से उसकी भाषा तय कर पाएंगे। यह बात गुरुदत्त बड़ी बारीकी से सुन रहे थे। उन्होंने अबरार को तभी अपने कहानी डिपार्टमेंट में रखने की इजाजत दे दी।

समाज प्रधान कथानकों की ओर रुझान

लेखक अबरार साहब ने बताया कि ‘बाजी’ और ‘जाल’ सरीखी फिल्मों से पैसा तो आ रहा था पर इन अपराध और रोमांस की फंतासी वाली फिल्मों से गुरुदत्त को बाहर निकालना था। मेरे लिए यह बेहद कठिन टास्क था। गुरुदत्त के फाइनेंसर कोई कपूर साहब थे जो इसी तरह की फिल्मों के तलबगार थे। इन साहिबान ने मुझे कहानी विभाग से निकालवाने की कोशिश की। पर गुरुदत्त मुझे पहचान गए थे इसलिए मैं वहां बना रहा। उन्हीं दिनों मुंबई में मेरी गुलाबो नाम की वेश्या से मुलाकात हुई और मैं उसकी दर्द भरी कहानी सुनता रहा। इस किरदार के बारे में मैंने गुरु को बताया तो ‘प्यासा’ फिल्म में यह किरदार वहीदा रहमान ने बखूबी निभाया। इस तरह गुरुदत्त का रुझान समाज प्रधान कथानकों की ओर हुआ।

इस तरह फ्लाप होने से बच गई ‘प्यासा’

‘प्यासा’ को लेकर एक बार मशहूर फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल ने भी बताया था कि अगर गुरुदत्त फिल्म का एंड हैप्पी नहीं करते तो यह फिल्म फ्लाप होने जा रही थी। गुरुदत्त ने बाद में इसके एंड को बदला। फिल्म को जबरदस्त कामयाबी मिली। इसके बाद उन्होंने ‘कागज के फूल’ बनाने की ठानी । अबरार अल्वी के मुताबिक, इस फिल्म के जरिए वे भारतीय फिल्मोद्योग के कुरुप चेहरे को समाज के सामने लाना चाहते थे। गुरुदत्त फिल्म बनाने से पहले मेरी राय लेते थे। इस फिल्म के निर्माण को लेकर वे जब भी मुझसे कहते तो मैं हर बार इस फिल्म को बनाने से रोकता था।

‘कागज के फूल’ का हश्र

लेखक अबरार अल्वी के मुताबिक, गुरुदत्त ने पूछा -तुम ‘कागज के फूल’ फिल्म बनाने से बार-बार क्यों रोकते हो। तो मैंने कहा कि यह कहानी क्लास की है, इसे आम आदमी देखने नहीं आएगा। फिल्म औंधे मुंह गिरेगी। और हुआ भी यही। हालांकि गुरुदत्त का हौसला कुछ समय के लिए पस्त भी हुआ पर फिर से वे अपने काम में डट गए। आज यह फिल्म क्लासिक फिल्मों की श्रेणी में मानी जाती है। बाद में उन्होंने ‘चौदहवीं का चांद’ और ‘साहिब बीवी और गुलाम’ जैसी सफल फिल्मों का निर्माण भी किया। गुरुदत्त जीनियस थे। महज 39 साल की उम्र में 10 अक्तूबर 1964 को वे इस दुनिया को सदा के लिए अलविदा कह गये।

संगीत की अद्भुत समझ

गुरुदत्त को संगीत की गहरी समझ थी। मशहूर संगीतकार रवि ने एक इंटरव्यू के दौरान बताया था कि फिल्म चौदहवी का चांद के संगीत की जिम्मेदारी उन्होंने मुझे सौंपी थी। गीत शकील बदांयूनी साहब को लिखने थे। तो फिल्म इंडस्ट्री में यह चर्चा फैल गई कि बच्चू अब पता चलेगा रवि को। गुरुदत्त संगीत का उस्ताद है। वह गाना और उसका संगीत आसानी से पास नहीं करता। खैर गाने बनने शुरू हुए। फिल्म का टाइटल सांग नहीं बन पा रहा था। गुरुदत्त जी ने मुझे सिचुएशन बताते हुए कहा था कि वे पलंग पर लेटी वहीदा रहमान के सौंदर्य को निहार रहे हैं। इस पर गीत लिखना है। एक दिन अचानक सूझा कि क्यों न फिल्म के टाइटल को ही मुखड़े में डाल दें। मैंने फौरन शकील साहब को घर बुलाया। मेरे मुंह से निकला चौदहवीं का चांद हो। शकील साहब ने मिसरा आगे बढ़ाते हुए कहा- या आफताब हो, जो भी हो खुदा की कसम लाजवाब हो। इस तरह बड़ा खूबसूरत गीत तैयार हुआ। मैं गीत तैयार होने के बाद गुरुदत्त जी को गीत और उसकी धुन सुनाता। वे हर गीत और उसके संगीत की सराहना करते। फिर मैंने फिल्मजगत में उनकी संगीत की समझ के बारे में बताया। आज भी कहीं मन के अंदर प्यासा का यह गीत- ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो...’ बजता हुआ महसूस होता है।

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