चेतनादित्य आलोक
हमारे पूर्वजों ने ‘पहला सुख निरोगी काया’ का सिद्धांत दिया था। होली के अवसर पर ब्रज में गाया जाने वाला एक लोकप्रिय गीत के माध्यम से भी जीवन में शरीर के महत्व को समझा जा सकता है- ‘कन्हैया रंग डारेगो, मैं घुंघटवा ना खोलूं।’ इस गोपी गीत में आत्मा और परमात्मा गौण है, जबकि शरीर प्रधान है। इसमें गोपी अपने आराध्य श्रीकृष्ण से मोक्ष नहीं चाहती, बल्कि वह तो अपने उस परम प्रिय प्रेमी के साकार रूप से ही आबद्ध रहना चाहती है। इसलिए अपने चेहरे से घूंघट नहीं हटाती, क्योंकि घूंघट के हटते ही श्रीकृष्ण का उस पर दृष्टिपात होगा और अनन्य भक्त मीरा बाई के शब्दों में कहें तो वे उसे अपने ही रंग में रंग देंगे अर्थात मुक्ति प्रदान कर देंगे… भव बंधन से मुक्ति… यानी आत्मा का परमात्मा में विलय, जिसके पश्चात गोपी वह आनंद नहीं पा सकेगी, जो श्रीकृष्ण के साकार रूप के साथ ब्रज-भूमि पर सहज ही पाती रही है। भक्तों के इसी भाव को गोस्वामी तुलसीदास ने भी प्रकट किया है- ‘सगुणोपासक मोक्ष न लेहिं।’ अर्थात जो भक्त परमात्मा के सगुण रूप के उपासक हैं, उन्हें मोक्ष नहीं लुभाता। इसी प्रकार मन की निरोगता एवं स्वच्छता का भी बहुत बड़ा महत्व है। मान लीजिए किसी का शरीर ठीक हो और मन ही ठीक नहीं हो तो ऐसे में किसी भी कार्य का सफलतापूर्वक संपादन कर पाना असंभव ही होगा। इसलिए न केवल शरीर का, बल्कि मन का भी स्वस्थ एवं स्वच्छ होना अत्यंत आवश्यक है। फिर यदि जीवन में आध्यात्मिक ऊंचाइयां प्राप्त करनी हों तो आत्मा के उन्नयन की अपरिहार्यता को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इसीलिए हमारे पूर्वजों ने जीवन के किसी एक पक्ष पर ही जोर नहीं दिया, बल्कि जीवन के सर्व-समावेशी स्वरूप को हमारे समक्ष प्रस्तुत करके हमें जीवन के सभी पक्षों एवं पहलुओं की महत्ता बतलाने की कोशिश की। यही कारण है कि हमारे पर्व-त्योहारों में भी प्रायः जीवन की बहुपक्षता एवं बहुरूपता सन्निहित है। चाहे कोई भी पर्व-त्योहार क्यों न हो… दीवाली को ही लीजिए, उसमें भी शरीर, मन और आत्मा अर्थात भौतिकता एवं आध्यात्मिकता का तालमेल है। वैसे हमें इतनी स्वतंत्रता भी है कि यदि हम चाहें तो आत्मा को भूलकर केवल शरीर एवं मन के माध्यम से ही अपने पर्व-त्योहारों को मना सकते हैं, लेकिन हमारा यह प्रयास केवल कर्म-काण्ड अर्थात नियम-कायदों तक ही सीमित होगा, किन्तु यदि हम उसमें आत्मतत्व यानी आध्यात्मिकता को भी शामिल कर लें तो निश्चय ही हम दिवाली के त्योहार का आध्यात्मिक आनंद भी प्राप्त कर सकते हैं। बिल्कुल यही बात हमारे अन्य पर्व-त्योहारों के संदर्भ में भी लागू होती है। होली के संदर्भ में एक विशेष बात यह है कि इसके लिए हमारी संस्कृति में कोई निर्धारित कर्म-कांड नहीं है। इस अवसर पर कोई गुरु, पुरोहित, जाति, गोत्र या रिश्ता भी महत्व नहीं रखता। यहां तक कि इसमें धर्मों का भी बंधन टूट जाता है। तभी तो इस त्योहार का िहंदू ही नहीं, बल्कि सिक्ख, मुस्लिम एवं ईसाई भी आनंद लेते हैं। विदेश में भी इसके विविध रूपों में खेले जाने की परंपराएं मौजूद हैं। तात्पर्य यह है कि होली में सब कुछ निर्भेद और निर्मूल हो जाता है। बस, आनंद ही प्रमुख तत्व रहता है। यहां आनंद ही जाति और आनंद ही गोत्र, आनंद ही कर्म और आनंद ही धर्म, आनंद ही क्रिया और आनंद ही परिणाम, आनंद ही संज्ञा और आनंद ही सर्वनाम, आनंद ही देवता और आनंद ही धाम होता है। होली में आनंद के प्रायः सभी तत्व एक साथ मौजूद रहते हैं- रूप, रस, गंध, गीत, नृत्य इत्यादि। होली से जुड़ी एक महत्वपूर्ण बात ध्यान देने योग्य यह भी है कि अन्य त्योहारों की भांति होली को हम मनाते नहीं, बल्कि इसे खेलते हैं… और यह तो पता ही है कि खेल एवं आनंद का आपस में अन्योन्याश्रय संबंध होता है। सच कहें तो हमारी संस्कृति में उत्सव-क्रीड़ा की समृद्ध परंपरा रही है। हमारे पूर्वज उत्सव-क्रीड़ा करते थे, जिसकी पुष्टि हमारे वेदादि शास्त्र भी करते हैं। इसलिए होली को आनंदोत्सव कहना श्रेयस्कर होगा।