पीढ़ियों की सोच में तालमेल से लौटेंगी परिवार में खुशियां
सकारात्मक बदलाव है कि युवा पीढ़ी जनरेशन गैप पाटने एवं बुजुर्गों से भावनात्मक संबंध मजबूत रखने की सोच रखती है। उनकी सलाह-सीख के मायने समझती है। हेल्पऐज इंडिया के अध्ययन के अनुसार, युवा बुजुर्गों के अकेलेपन की खाई पाटना चाहते हैं। वहीं बड़ी संख्या में बुजुर्गों ने माना कि उनकी परिवार में अहमियत है हालांकि वे भावनात्मक दूरी व अनसुना महसूस करते हैं। जरूरी भी है, उपेक्षा के बजाय उनसे खूब संवाद हो व संबल भी मिले।
डॉ. मोनिका शर्मा
देश-परिवेश की हर घटना-दुर्घटना मानवीय मन को गहराई से प्रभावित करती है। अप्रत्याशित हादसों, चरम मौसमी स्थितियों और मन विचलित करने वाले हालातों में अपनों का साथ ही मन-जीवन को थामता है। इस मोर्चे पर हेल्पऐज इंडिया का हालिया अध्ययन हमारे सामाजिक-पारिवारिक परिवेश का सकारात्मक रुख सामने रखता है। अध्ययन के अनुसार, देश में 56 प्रतिशत युवा अपने बुजुर्गों को अकेला और 48 प्रतिशत निर्भर मानते हैं। जिसके चलते युवा पीढ़ी जनरेशन गैप को पाटने एवं अपने वरिष्ठजनों के साथ संबंध मजबूत बनाना चाहती है। ‘अंडरस्टैंडिंग इंटरजनरेशनल डायनमिक्स एंड परसेप्शन ऑन एजिंग’ रिपोर्ट के आंकड़े युवाओं और बुजुर्गों के बीच पुख्ता होते जुड़ाव की बात करते हैं।
अपनेपन का पुल
दरअसल, अनुभव और अपनेपन की अनुभूतियों की पोटली लिए घर के बड़े सदस्य पूरे घर-बार को थामे रखते हैं। रिश्तों को स्नेह का आधार देते है। परिवार में साथ और समझ के भाव को सींचते हैं। बावजूद इसके बच्चों और बुजुर्गों के बीच बढ़ी भावनात्मक दूरियां भी मौजूदा दौर का कड़वा सच है। संस्कारों की थाती को सहेजकर रखने वाले बहुत से वृद्धजनों को अपने ही परिवार की नई पीढ़ी से सहायता, सम्बल और सम्मानजनक व्यवहार नहीं मिल पा रहा। हेल्पऐज इंडिया के इस अध्ययन में 86 प्रतिशत बुजुर्गों ने माना कि उनकी अहमियत है लेकिन युवाओं से भावनात्मक रूप से दूर, अनसुना या अलग-थलग भी महसूस करते हैं। वरिष्ठजनों का कहना है कि ‘हमें किसी योजना के बारे में बताया जाता है, मगर पूछा नहीं जाता’। ध्यातव्य है कि दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरू, हैदराबाद, अहमदाबाद, कानपुर, नागपुर, मदुरई जैसे शहरों में 18-30 वर्ष के 70 फीसदी युवाओं और 60 वर्ष के ऊपर के आयुवर्ग में 30 प्रतिशत बुजुर्गों को शामिल किया गया। ये दोनों ही आयुवर्ग समाज और परिवार के आज और बीते हुए कल की बुनियाद बनाने वाले माने जाते हैं। ऐसे में संवाद और सहयोग के मोर्चे पर दोनों पीढ़ियों के बीच दिखती खाई सचमुच चिंतनीय है। हालांकि युवा पीढ़ी द्वारा जनरेशन गैप को स्वीकारने और इसे पाटने के प्रयास को सामने रखती सोच एक सकारात्मक बदलाव है। सहज रूप से देखने में आता है कि नयी पीढ़ी बड़ों की सलाह-समझाइश के मायने समझ रही है।
भावी जीवन की पुख्ता बुनियाद
सुखद है कि आपाधापी में गुम आज की पीढ़ी जरा ठहरकर बड़ों का हाथ थामने की सोचने लगी है। अपने बुजुर्गों के साथ संवाद करने के साथ ही पीढ़ियों के बीच के अंतर को पाटने, रीति-रिवाजों को समझने और सामाजिक विरासत को सहेजने के लिए यह समझ आवश्यक भी है। हेल्पऐज इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में 12 प्रतिशत आबादी 60 वर्ष और उससे अधिक उम्र की है। साल 2050 तक इसके 19 प्रतिशत होने की संभावना है। ऐसे में वरिष्ठजनों के प्रति सहयोग का भाव आवश्यक है। इस सर्वे के अनुसार 68 प्रतिशत बुजुर्ग, 69 प्रतिशत युवा बढ़ती उम्र को अकेलेपन से जोड़कर देखते हैं। वहीं 88 फीसदी युवा एवं 83 फीसदी बुजुर्ग अपने परिवार के साथ रहना चाहते हैं। सार्थक रिश्तों और सामाजिक संबंधों को दिशा देती साथ रहने-जीने की यह सोच दो पीढ़ियों के जीवन की बेहतरी से जुड़ी साझी रूपरेखा बनाने वाली है। बड़ों से मिली सीख कई पीढ़ियों तक काम आती है। मन और जीवन को सही दिशा देती है। परम्पराओं और संस्कारों की मजबूत बुनियाद बनाती है। यह स्थिति किसी एक परिवार के लिए ही नहीं, समग्र समाज के लिए मजबूत आधार बनाती है। असल में परिवार, समाज की सबसे छोटी इकाई जरूर है पर समाज की बुनियाद को मजबूती देने में इस यूनिट के मायने बहुत अहम हैं। दो पीढ़ियों का एक-दूसरे के साथ समन्वय एवं सहयोग भरा भाव ही पारिवारिक संबंधों का संबल होता है।
तालमेल की सुखद सोच
समझना मुश्किल नहीं कि बड़ों के योगदान को सराहने और थकते कदमों को सहारा देने के साथ ही उनकी भूमिका को मन से स्वीकारना इस साथ को व्यावहारिक आधार पर पुख्ता बना सकता है। वहीं आपसी समझ और सार्थक संवाद का धरातल भावनात्मक मजबूती देने वाला साबित हो सकता है। दरअसल, मानवीय अनुभूतियों के मोर्चे पर बहुत सी बातों को मानना ही नहीं मान देना भी आवश्यक होता है। युवा अपने बड़ों से मिले मार्गदर्शन की अहमियत समझते तो हैं पर उनकी प्रतिबद्धता और योगदान को लेकर कम ही बात करते हैं। यह कटु सच है कि वर्चुअल दुनिया में अंजान चेहरों से जुड़ने के इस दौर में अपनों की उपेक्षा की संस्कृति पनप रही है। नयी पीढ़ी की वर्चुअल व्यस्तता से बुजुर्ग उपेक्षित महसूस करते हैं। ऐसी परिस्थितियां बड़ों को भावनात्मक रूप से अकेला कर देती हैं। यही वजह है कि इस अध्ययन में युवाओं द्वारा अकादमिक संस्थानों में उन्हें बुढ़ापे को समझने में मदद करने व पीढ़ियों के तालमेल वाली गतिविधियां रखने की बात कहना भी अहम है। बिखरते रिश्तों और छीजते भरोसे के इस दौर में दोनों पीढ़ियों में जुड़ाव को पोसने वाला यह रुख सचमुच सुखद है। तकनीक की बदौलत कसते वर्चुअल घेरे के बीच समाज के वरिष्ठ नागरिकों को सम्मानित और समर्थित महसूस हो और युवा उनके मार्गदर्शन में जीवन के वास्तविक अर्थ समझें, इससे बेहतर क्या हो सकता है?