हर्षदेव
एक तरफ सोशल मीडिया पर बढ़ती निर्भरता और दूसरी ओर कानूनी दांवपेच। उपभोक्ता आखिर कहां जाए। इधर, कंपनियों के पास ‘यूजर्स’ की निजी जानकारी और उधर, इंटरनेट की दुनिया में गलाकाट लड़ाई। जिस तरह सबकुछ ‘डिजिटल प्लेटफॉर्म’ के हवाले होता जा रहा है उसमें जीवन की गाड़ी को सही पटरी पर दौड़ाने के लिए सतर्कता के साथ उपभोक्ता को ही चलना होगा क्योंकि ‘आभासी दुनिया’ को चलाने वाले ज़मीनी हकीकत देखकर आपस में उलझते तो दिखते हैं, लेकिन मुनाफे के मामले में ये सब एक हो जाते हैं। क्या है पूरा खेल, बता रहे हैं
सोशल मीडिया पर जैसे-जैसे हमारी निर्भरता बढ़ती जा रही है, ठीक उसी अनुपात में कई प्रकार की चुनौतियां भी सामने आ रही हैं। हमारी निजता ख़तरे में पड़ती जा रही है, हमारी व्यक्तिगत जानकारियां सार्वजनिक हो रही हैं। हमारे सामाजिक और पारिवारिक संस्कार प्रभावित हो रहे हैं। मुनाफ़ाख़ोर पेशेवर कंपनियां हमारे निजी आंकड़ों का बिकाऊ और कमाऊ वस्तु के रूप में उपयोग कर रही हैं। दूसरी ओर, सरकार अभिव्यक्ति की खुली आजादी को प्रतिबंधित करने के लिए नित नए नियम-कानून लागू कर रही है। कारण, यह लोकतांत्रिक सुविधा नागरिकों को सवाल उठाने की जो सुविधा देती है, वह किसी भी सत्ताधारी को स्वीकार नहीं है। दुनिया का कोई भी शासक अपनी नीतियों और फैसलों पर असहमति को लोकतान्त्रिक अधिकार नहीं, चुनौती/विरोध मानता है। परस्पर संवाद की असीमित छूट को नियंत्रित करने की कोशिशों के पीछे यही एक मात्र वजह है।
यूरोप से बाहर के देशों में सरकारें सेवा प्रदाता कंपनियों और उपयोक्ताओं दोनों पर पाबंदी का दायरा बढ़ाते रहने के प्रयास करती रहती हैं। भारत में सुप्रीम कोर्ट सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी को हमारे मूलभूत अधिकारों के तहत मानता है, फिर भी सरकार इस छूट का दायरा लगातार छोटा करती जा रही है। अभी हाल में फ़्रांसिस हौगेन ने फ़ेसबुक के कामकाज की आंतरिक स्थितियों को लेकर जो खुलासे किए हैं, वे चौंकाने वाले तो हैं ही, परेशान भी करते हैं। साथ ही वे दूरगामी खतरों के प्रति भी आगाह करते हैं। हौगेन ने बताया है कि किस प्रकार फ़ेसबुक का प्रबंधन बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को जानते हुए भी उनकी अनदेखी करता और उनको छिपाता है। हालांकि बच्चों पर सोशल मीडिया के कारण पड़ रहे असर में उनका अकेलापन और मानसिक तनाव जैसी समस्याएं शामिल हैं। हौगेन बताती हैं कि इन तथ्यों को फ़ेसबुक सार्वजनिक नहीं होने देता, छुपाए रखता है। छिपाने के लिए अपनाए जाने वाले तरीकों में नयी-नयी योजनाएं और नए-नए आकर्षण शामिल हैं। उनके अनुसार सोशल मीडिया कम्पनियां अनापशनाप कमाई कर रही हैं, लेकिन उनमें काम करने वाले कर्मचारियों के लिए परिस्थितियां पूरी तरह अपारदर्शी और गोपनीय बनाए रखी जाती हैं।
चंद कंपनियों के पास सारी जानकारी
दुनिया में इस समय 2.70 अरब से ज्यादा सोशल मीडिया उपभोक्ता हैं। इन तमाम लोगों की निजी जानकारियां उन चार कंपनियों के पास मौजूद हैं जो सेवा प्रदाता हैं। वे इन जानकारियों का बेधड़क उपयोग करती हैं और अपने मुनाफ़े को बढ़ाती रहती हैं। भारत में तो स्थिति और भी सोचनीय है। यहां उपभोक्ताओं को निजी आंकड़ों की सुरक्षा के लिए किसी भी प्रकार का क़ानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है। सरकार भी इस ओर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझती है, जबकि वह सोशल मीडिया पर और अधिक कड़े क़ानूनी प्रतिबंधों को लागू करने की तैयारी कर रही है।
निजता, मुनाफा और कंपनियां
इंटरनेट पर क़ब्ज़े के लिए दुनिया की दो दिग्गज कंपनियों के बीच चलती आ रही पुरानी लड़ाई एक बार फिर नए रूप में सामने आ गई है। अब इसमें उपयोक्ता की निजता का मामला जुड़ गया है। एक और मुद्दा यह भी है कि इस लड़ाई में एपल ने भी ताल ठोक दी है। पहले यह लड़ाई गूगल और फ़ेसबुक के बीच ही सीमित थी। इसको हम इन्टरनेट के कुरुक्षेत्र में यदि महायुद्ध की संज्ञा दें तो ग़लत नहीं होगा क्योंकि इस मुक़ाबले में एक ओर उपयोक्ता की निजता है तो दूसरी तरफ विज्ञापनों से होने वाली कमाई और तकनीकी संसाधनों पर वर्चस्व का लक्ष्य निशाने पर है। इस महायुद्ध की शुरुआत लगभग दो दशक पहले विज्ञापनों को जुटाने और उनको प्रदर्शित करने के साथ हुई थी। वह इंटरनेट के पांव पसारने का समय था जिससे विज्ञापन उद्योग में एक विचित्र क़िस्म की उथल-पुथल और बेचैनी पैदा हो गई थी। इसका एक नतीजा तो उसी समय सामने आ गया था जब विज्ञापनों का बहुत बड़ा हिस्सा टेलिविज़न चैनलों और अख़बारों से छिन गया था और उस पर सोशल मीडिया सेवा प्रदाता कंपनियों ने क़ब्ज़ा कर लिया था। इसके बाद इसके ज्यादा से ज्यादा हिस्से पर कब्जे के लिए सोशल मीडिया सेवा प्रदाता कंपनियों में जंग लगातार चलती रही है। पहले नेट न्यूट्रेलिटी के नाम से यह लड़ाई लड़ी गई। फिर इस में निजता और उपभोक्ताओं के व्यक्तिगत आंकड़ों की हिफ़ाज़त का मुद्दा भी जोड़ दिया गया। सोशल नेटवर्किंग कंपनियों- फेसबुक, गूगल और ट्विटर ने मुफ्त सेवा की सुविधा देकर एक तरफ तो अपने विज्ञापन को और दूसरी उपयोक्ताओं की संख्या में अनापशनाप बढ़ोतरी कर ली, लेकिन उपयोक्ताओं को इसका बहुत बड़ा नुकसान यह हुआ कि उनके निजी आंकड़े विभिन्न तकनीकी कंपनियों के पास पहुंच गए। इन आंकड़ों (कुकीज) के जरिए लोगों को मार्केटिंग कराई गई और इस प्रकार आमदनी बढ़ाने और अपने मुनाफ़े में जबरदस्त बढ़ोतरी करने का काम किया जाता रहा। धीरे-धीरे यह लगभग 35 अरब डॉलर का कारोबार हो चुका है। इसी बीच इस जंग में एपल के कूद पड़ने के बाद यह मुकाबला और भी दिलचस्प हो गया है। हालांकि असली तकरार तो फ़ेसबुक और गूगल के बीच ही है, लेकिन एपल ने उसको थोड़ा रोचक ज़रूर बना दिया हैI अब ये कंपनियां ग्राहकों की निजता को लेकर बड़ा ढोल पीट रही हैं और कह रही हैं कि वे उनकी प्राइवेसी की हर क़ीमत पर रक्षा करेंगी। एपल ने इस निजता की रक्षा के मुद्दे को पूरी मुहिम के केंद्र में ला रखा है। उसने कहा है कि वह अपने फ़ोन में ऐसी व्यवस्था कर रहा है जिससे ग्राहक स्वयं यह तय कर सकेगा कि कौन सा एप उसको इस्तेमाल करना है और कौन सा नहीं करना है। अभी तक स्थिति यह है कि मोबाइल फ़ोनों में एप ज़बरदस्ती घुसकर अपनी जगह बना लेते हैं और ग्राहक को मजबूर करते हैं कि वे उनका इस्तेमाल करें। जब उनका इस्तेमाल होता है तो उनके ज़रिए विज्ञापनों को दिखाने, प्रस्तुत करने का सिलसिला शुरू हो जाता है और इस तरह ग्राहक के समय और ऊर्जा की क़ीमत पर कंपनियां मुनाफ़ा बटोरती हैं।
फेसबुक और गूगल की होड़
फ़ेसबुक और गूगल दोनों ही रोज़मर्रा की ज़िंदगी का एक अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। बेशक ये कम्पनियां हमारे दैनिक जीवन के लिए अनिवार्य बन चुके हैं और हम दिन में कई-कई बार इनकी मदद से सामाजिक और व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करते हैं। इतने अधिक उपयोगी होने के बाद स्वाभाविक है कि इन दोनों कम्पनियों में वर्चस्व की होड़ हो, जो दो दशक से भी अधिक समय से चली आ रही है। इतिहास में जाएं तो इस जंग का आग़ाज़ फ़ेसबुक ने किया था। उसकी उपयोक्ता संख्या ने गूगल को पछाड़ दिया और गूगल को लगा कि उसकी बादशाहत को सीधी चुनौती मिल रही है। उस समय तक गूगल इंटरनेट की दुनिया का सरताज बना हुआ था। फ़ेसबुक ने सबसे पहले गूगल के सोशल नेटवर्किंग ऑरकुट की साइट को बंद करने पर मजबूर कर दिया। इससे गूगल को भारी नुक़सान पहुंचा। गूगल ने पहली बार माना कि उपभोक्ताओं की संख्या और उनके बीच आपसी संपर्क के कारण फ़ेसबुक उसके लिए भविष्य की बहुत बड़ी चुनौती बन गया है। इसका मुक़ाबला करने के लिए गूगल ने गूगल प्लस के नाम से एक नयी साइट बनाई। इस साइट के ज़रिए ऐसे सर्कल फ़ीचर दिए गए जिनके माध्यम से दोस्त आपस में जुड़ सकते हैं और एक दूसरा काम उसने हैंगआउट के ज़रिये वीडियो शेयरिंग की सुविधा प्रदान करने का किया। इस सुविधा का उपयोग करके उपयोक्ता वीडियो चैटिंग के अलावा तस्वीरें, संदेश और टिप्पणियां आपस में बांट सकते हैं। गूगल प्लस की एक और ख़ास बात यह है कि इसमें आदान-प्रदान किए गए फ़ोटो या टिप्पणियां दूसरे लोगों से गोपनीय रखी जा सकती हैं। यह साइट गूगल के लिए फ़ेसबुक से लड़ने का नया हथियार बन गई। इस जवाबी कार्रवाई से विचलित मार्क ज़ुकरबर्ग ने एक और फ़ीचर शुरू किया जो वीडियो चैटिंग की सुविधा देने वाला था। इसको स्काइप के सहयोग से शुरू किया गया। इससे परिचितों और मित्रों के मध्य वीडियो चैट और वीडियो कॉल करना संभव हो गया। यह सुविधा शुरू तो कर दी गई लेकिन इसकी वैसी व्यावसायिक कामयाबी और सफलता संदिग्ध है जो उससे पहले की उसकी योजनाओं को हासिल होती रही है। इसका कारण है कि उपयोक्ताओं द्वारा इसके ज़रिए उत्तेजक सूचनाओं और अश्लील तस्वीरों को प्रदर्शित करना, जिसके कारण डर है कि कुछ समय बाद इसको अश्लील न माना जाना लगे।
खेल तो कुछ और ही है…
दोनों दिग्गज कंपनियों (फेसबुक और गूगल) के बीच महायुद्ध की असली वजह तो वही है अरबों डॉलर के विज्ञापन बाज़ार पर क़ब्ज़ा करना और दूसरे के वर्चस्व को तोड़ देना। दोनों ही कंपनियां इसके लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाती रही हैं और एक-दूसरे के खिलाफ रणनीतियां बनाकर हमले करते रही हैं। मजेदार बात तो यह है कि ये शत्रुता करते हुए भी चुपके से हाथ मिला लेते हैं कि आपस में सहयोग की कसमें खा लेते हैं। यह सचाई अमेरिका में कई राज्यों की ओर से दायर किए गए विश्वासभंजी मुकदमों से सामने आई है। गूगल ने फ़ेसबुक से प्रतिस्पर्धा रोकने के लिए न केवल हाथ मिलाया, बल्कि उसको कई तरह के फ़ायदे भी पहुंचाए और जंग की दिशा में बढ़े हुए कदमों को वापस भी लिया। न्यू यॉर्क एंटी ट्रस्ट ब्यूरो के पूर्व सहायक अटॉर्नी जनरल सेली हवार्ड बताते हैं कि ये कंपनियां एक दूसरे का एकाधिकार मज़बूत करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाती हैं। वे आपस में ऐसे समझौते करती हैं ताकि डिजिटल विज्ञापन की दुनिया में उनका अपना वर्चस्व बना रहे और दूसरी कम्पनियां उनके मुनाफे में हिस्सेदारी न कर सकें। इस दावे की पुष्टि गूगल का समर्थन करने वाली 20 में से छह कंपनियों के अधिकारियों ने भी की है। उनके अनुसार गूगल ने फ़ेसबुक को दूसरी कंपनियों की तुलना में ज़्यादा महत्व दिया और सुविधाएं दीं। आंकड़े बताते हैं कि 2019 में गूगल और फ़ेसबुक का डिजिटल विज्ञापनों के 60 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्से पर आधिपत्य था। कैलीफोर्निया की विज्ञापन तकनीकी कम्पनी ट्रेड डेस्क के सीईओ ज़ेफ़ ग्रीन बड़े मार्के की बात कहते हैं। ग्रीन के अनुसार इंटरनेट खुद बता देता है कि किस कंपनी की कमाई कितनी हुई इससे उन कंपनियों की उम्मीदों को चोट पहुंच सकती है जो पहले से तय कर बैठी हैं कि उनका सामान किसी भी विज्ञापन द्वारा प्रचार से बिक ही जाएगा। यह सचाई सभी को स्वीकार करनी होगी कि विज्ञापन के लिए उसी भीमकाय कंपनी की शरण मे जाना होगा जिसके पास उपभोक्ताओं का सबसे ज्यादा डेटा है। इंटरएक्टिव एडवरटाइजिंग ब्यूरो के सीईओ डेविड कोहेन कहते कि ये दिग्गज कम्पनियां इसी तरह परिवर्तन और बदलाव करती रहेंगी और उनका मुनाफा भी यूं ही जारी रहेगा।