भारत में गर्भधारण के 24 सप्ताह बाद अगर गर्भपात कराना हो तो मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट के आधार पर अदालतें तय करती हैं कि ऐसा कराया जा सकता है या नहीं। इसलिए चोरी-छुपे अवैध गर्भपात कराये जाते हैं जोकि असुरक्षित होते हैं। ऐसे में नया क़ानून लाया जाये, जिसके तहत भ्रूण के अधिकारों पर गर्भवती महिला के अधिकारों को वरीयता दी जाये।
नौशाबा परवीन
महिलाओं के स्वास्थ्य और कल्याण की दिशा में सुरक्षित गर्भपात बहुत मददगार है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या फंड (यूएनएफपीए) के अनुसार भारत में असुरक्षित गर्भपात से संबंधित मामलों में रोज़ाना तकरीबन 8 महिलाओं की मौत होती है। मातृत्व मौतों का यह तीसरा सबसे बड़ा कारण है- हर 3 गर्भपातों में से लगभग 2 असुरक्षित होते हैं। ऐसे में जरूरी है कि गर्भपात को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के संदर्भ में सरकार गंभीर हो और महिलाओं को अपने शरीर पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए। इस पृष्ठभूमि में दिल्ली हाईकोर्ट का नवीनतम फैसला महत्वपूर्ण है। अदालत ने मेडिकल बोर्ड से असहमत होते हुए दुष्कर्म की एक नाबालिग पीड़िता को 27 सप्ताह के गर्भधारण को समाप्त करने की अनुमति प्रदान की है। अक्सर अदालतें इस क़िस्म की अपीलों को ठुकरा देती हैं। गर्भपात को अपराध नहीं माना जाना चाहिये लेकिन यह काम संसद द्वारा क़ानून निर्मित करके या सुप्रीम कोर्ट की नज़ीर से ही संभव है।
हितकारी फैसला
गौरतलब है कि 2022 में जब अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को उनके गर्भपात अधिकारों से वंचित कर दिया था, तो दुनियाभर में गर्भपात अधिकारों को लेकर तीखी बहस छिड़ी। तब भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 21 जुलाई 2022 को प्रगतिशील फैसला सुनाते हुए एमटीपी (मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेगनेंसी) एक्ट-1971 व उसमें 2021 में किये गये संशोधन और प्रासंगिक नियमों में जो वैधानिक खालीपन था, उसे भर दिया था और अविवाहित महिला को भी 20-24 सप्ताह के अनचाहे भ्रूण को गिराने की अनुमति प्रदान की थी बशर्ते कि मेडिकल विशेषज्ञ सुरक्षा को सर्टिफाई कर दें। यह महिला सशक्तिकरण और महिला के अपने शरीर पर अधिकार के संदर्भ में मील का पत्थर था। लेकिन इससे भी आगे बढ़ने की ज़रूरत थी।
इंग्लैंड ने हटाई पाबंदी
भारत में गर्भधारण के 24 सप्ताह बाद अगर गर्भपात कराना हो तो मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट के आधार पर अदालतें तय करती हैं कि ऐसा कराया जा सकता है या नहीं। इसलिए चोरी-छुपे अवैध गर्भपात कराये जाते हैं जोकि असुरक्षित होते हैं। इसके उलट यूनाइटेड किंगडम (यूके) में जून में हाउस ऑफ़ कॉमंस ने भारी बहुमत से 24 सप्ताह की निर्धारित संवैधानिक सीमा के बाद गर्भपात कराने को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है। गर्भपात कराने पर महिलाओं की जांच, गिरफ्तारी, मुकदमे या जेल पर पाबंदी लगा दी गई है।
लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। क़ानून को सख्त कर दिया गया है और कानून के तहत अक्सर गर्भवती महिला पर ज़ोर दिया जाता हैं कि वह गर्भावस्था अवधि को पूरा करे व बच्चे को जन्म दे। इस स्थिति में महिलाएं असुरक्षित गर्भपात की राहें तलाश करती हैं। हालात इस वजह से अधिक जटिल हो जाते हैं; क्योंकि भारत में दाइयों व स्त्री रोग विशेषज्ञों की ज़बरदस्त कमी है।
महिला समानता का उल्लंघन
गौरतलब है कि महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव को समाप्त करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की जो आम सिफारिश 33 है, जिसे भारत ने भी स्वीकार किया है, का स्पष्ट प्रावधान है कि जिन मेडिकल सेवाओं की केवल महिलाओं को आवश्यकता पड़ती है, जैसे गर्भपात, उनका अपराधीकरण करना महिलाओं के बराबरी के अधिकार का उल्लंघन करना है। पुरानी नैतिकता को अपनाना अंतर्राष्ट्रीय क़ानून का भी उल्लंघन करना है।
अधिकारों की विस्तृत परिभाषा लेकिन...
सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में इन अधिकारों को बरकरार रखते हुए विस्तृत परिभाषा दी है। लेकिन महिलाओं को अक्सर प्रेग्नेंसी का टर्म पूरा करने के लिए मजबूर किया जाता है। ज़रूरत इस बात की है कि एमपीटी क़ानून की जगह नया अधिकार आधारित क़ानून लाया जाये, जिसके तहत भ्रूण के अधिकारों पर हर मामले में गर्भवती महिला के अधिकारों को वरीयता दी जाये और डॉक्टर या मेडिकल सिस्टम न इससे इंकार कर सकें और न ही इसमें कटौती कर सकें।
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि किसी भी महिला के लिए गर्भपात का फैसला आसान नहीं होता है। इसलिए जब वह अपने जीवन के सबसे कठिन पल में होती है, तब उस पर अतार्किक नैतिकता थोपना अन्याय है। सुरक्षित गर्भपात का हक़ हर महिला को मिलना चाहिए। -इ.रि.सें.