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हाईकोर्ट में अपील के हक से न्याय पाने में सुगमता

कंज्यूमर राइट्स
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श्रीगोपाल नारसन

अभी तक यह माना जा रहा था कि जिला उपभोक्ता आयोग के खिलाफ राज्य उपभोक्ता आयोग को, राज्य उपभोक्ता आयोग के खिलाफ राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग को तथा राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग के खिलाफ केवल सर्वोच्च न्यायालय को सुनवाई का अधिकार है। इस प्रक्रिया में कहीं भी हाईकोर्ट शामिल नहीं था। लेकिन उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 के नए प्रावधान में उपभोक्ता आयोग के खिलाफ हाईकोर्ट को सुनवाई का अधिकार निहित किया गया है।

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अनुच्छेद 227 के तहत सुनवाई

राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग (एनसीडीआरसी) द्वारा उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 58 (1) (ए) (iii) के तहत किसी भी अपील में पारित आदेश के खिलाफ, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत हाईकोर्ट के समक्ष प्रस्तुत रिट याचिका सुनवाई योग्य मानी गई है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 की धारा 67 के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट में अपील केवल राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग (एनसी) द्वारा पारित आदेशों के संबंध में ही हो सकती है, जो कि धारा 58 की उप-धारा (1) खंड (ए) के उप-खंड (i) या (ii) द्वारा प्रदत्त अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए की जाती है। यानि सुप्रीम कोर्ट में अपील या निगरानी केवल राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग द्वारा पारित मूल आदेशों के संबंध में ही हो सकती है।

संविधान पीठ ने की व्याख्या

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस संबंध में अपने अहम आदेश में कहा कि राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग द्वारा उपभोक्ता अधिनियम 2019 की धारा 58 (1) (ए) (iii) या धारा 58 (1) (ए) (iv) के तहत प्रदत्त अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए पारित आदेश के खिलाफ इस न्यायालय में कोई और अपील प्रदान नहीं की गई है। न्यायिक दृष्टि में, धारा 58(1)(ए )(iii) या धारा 58(1) (ए) (iv) के अंतर्गत अपील में राष्ट्रीय आयोग द्वारा पारित आदेश के विरुद्ध पीड़ित पक्ष भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र वाले संबंधित हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है।

‘एनसीडीआरसी एक ट्रिब्यूनल’

एसोसिएटेड सीमेंट कंपनी लिमिटेड बनाम पीएन शर्मा, एआईआर 1965 एससी 1595 की नज़ीर पर भरोसा करते हुए, सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा -‘राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग को एक 'ट्रिब्यूनल' ही कहा जा सकता है, जो क़ानून द्वारा निहित किसी भी मामले के संबंध में दो या दो से अधिक दावेदार पक्षों के अधिकारों को निर्णायक रूप से निर्धारित करने के लिए निहित है।’

आर्थिक सामर्थ्य का सवाल

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने एक अन्य फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि ट्रिब्यूनल के आदेशों से पीड़ित पक्ष अनुच्छेद 227 के तहत संबंधित हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना सभी पक्षों के वहन करने योग्य नहीं हो सकता है। जहां तक भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत उपलब्ध उपचार का संबंध है, यह विवादित नहीं हो सकता है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत विशेष अनुमति द्वारा अपील के माध्यम से उपचार बहुत महंगा हो सकता है, जैसा कि एल चंद्र कुमार केस के मामले में इस न्यायालय द्वारा कहा गया था, उक्त उपाय को वास्तविक और प्रभावी होने के लिए दुर्गम माना जा सकता है। इसलिए, जब भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत संबंधित हाईकोर्ट में उपाय प्रदान करने से पहले, उस मामले में, पीड़ित पक्ष के न्याय तक पहुंच के अधिकार को आगे बढ़ाने के लिए आगे आना होगा, जो एक शिकायतकर्ता का अधिकार भी है, विशेष अनुमति की बजाय संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत अपील करने के लिए कम कीमत पर संबंधित हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया जा सकता है।

निरीक्षण के क्षेत्राधिकार पर सीमा भी

न्यायालय ने माना कि हाईकोर्ट ने रिट याचिका पर विचार करने में गलती नहीं की थी लेकिन साथ ही, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत एक रिट याचिका में अंतरिम रोक/राहत देने पर विचार करते हुए, हाईकोर्ट को संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत निरीक्षण के सीमित क्षेत्राधिकार को ध्यान में रखना होगा। इस बाबत जस्टिस शाह द्वारा लिखित निर्णय में कहा गया है, ‘... यह नहीं कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय आयोग द्वारा पारित आदेश के खिलाफ संबंधित हाईकोर्ट के समक्ष भारतीय संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत एक रिट याचिका 2019 अधिनियम की धारा 58 (1) (ए) (iii) के तहत एक अपील में सुनवाई योग्य नहीं है। हम हाईकोर्ट द्वारा लिए गए विचार से पूरी तरह सहमत हैं।’ इस प्रकार राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग के निर्णय या फिर आदेश के विरुद्ध हाईकोर्ट में चुनौती देने का मार्ग खुल गया, ताकि पीड़ित पक्ष को न्याय का हर अंतिम अवसर भी प्राप्त हो सके।

-लेखक उत्तराखंड राज्य उपभोक्ता आयोग के  वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।

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