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स्वास्थ्यवर्द्धक गुणों से भरपूर है गोघृत

वात और पित्त दोष का शमन करने वाला गाय का घी बलवर्द्धक होने के साथ ही विभिन्न प्रकार के रोगों में लाभकारी है। आयुर्वेद चिकित्सा ग्रंथों में जहां रोगों के अनुसार घी के विभिन्न नुस्खे वर्णित हैं वहीं इसके सेवन...
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वात और पित्त दोष का शमन करने वाला गाय का घी बलवर्द्धक होने के साथ ही विभिन्न प्रकार के रोगों में लाभकारी है। आयुर्वेद चिकित्सा ग्रंथों में जहां रोगों के अनुसार घी के विभिन्न नुस्खे वर्णित हैं वहीं इसके सेवन के फायदे भी बताये गये हैं।

डॉ. अनूप कुमार गक्खड़

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आयुर्वेद में गाय के घी को सब प्राणियों के दूध से बने घी के मुकाबले अधिक हितकर माना जाता है। दरअसल घी शरीर में चिकनाई पैदा करता है। गोघृत खाने वाले व्यक्ति की कान्ति अलग ही होती है। उसकी वाणी मधुर हो जाती है। शरीर लोचशील हो जाता है। घी पेट में होने वाली जलन को दूर करता है। यह वात और पित्त दोष का नाश करने वाला माना जाता है।

आयु और याद्दाश्त बढ़ाने में मददगार

आयुर्वेद में घी, विशेष तौर पर गोघृत के बारे में कहा गया है कि यह हजारों शक्तियों से युक्त है और हजारों कार्य करने में सक्षम है। बता दें कि रोजाना गाय का दूध और घी का प्रयोग करने वाले को बुढ़ापा समय से पहले नहीं आता। वहीं इसके प्रयोग से बुद्धि बढ़ती है, याददाश्त भी तेज होती है, जठराग्नि बढ़ती है। विभिन्न द्रव्यों से संस्कारित करने पर घी के सेवन से अनेक लाभ होते हैं।

मानसिक रोगों में उपयोगी

मद और मूर्छा रोग की चिकित्सा में दस वर्ष पुराने घृत का प्रयोग निर्दिष्ट है। दही का प्रयोग करते समय उसमें घृत मिलाकर प्रयोग करने का भी निर्देश है। उन्माद रोग की चिकित्सा में घृत सेवन का विशेष महत्व है। इस रोग में संज्ञा प्रबोधन के लिए घृत सेवन का निर्देश है। उन्माद की चिकित्सा में मन्त्र व पूजा आदि के साथ साथ घृतपान कराने का भी निर्देश है। आयुर्वेद के ग्रंथों के अनुसार, उन्माद के रोगी को घृत का भरपेट पान करवाकर तेज हवा से रहित घर में सुखपूर्वक शयन करना चाहिए।

पुराना घृत अधिक गुणकारी

पुराना घी अधिक गुणकारी होता है। यह तीनो दोषों का नाश करता है। राजयक्ष्मा यानी टीबी के रोगी को भोजन के बाद अधिक मात्रा में कुछ दिन लगातार घृतपान करवाने से शिरःशूल , पार्श्वशूल, अंसशूल कास व श्वास रोग नष्ट होते हैं। पुराना घृत मद, अपस्मार, मूर्च्छा, विषम,ज्वर, कर्णशूल एवं शिरशूल जैसी व्याधियों को दूर करता है।

तीनों दोषों का शमन

पुराने बुखार में घृत का प्रयोग इस तरह शान्त करता है जिस तरह जल अग्नि को बुझाने का काम करता है। घृत अपने स्नेह गुण के कारण वात का शमन करता है , शीत गुण के कारण पित्त को नष्ट करता है तथा तुल्य गुण वाले कफ का शमन संस्कार से करता है। ऐसा कोई भी स्नेह नहीं है जो घृत के समान संस्कार का अनुवर्तन करता हो। इसलिये सभी प्रकार के स्नेहों में घृत सबसे श्रेष्ठ है। किसी प्रकार के आघात लगने से पैदा हुयी खांसी में मुख से रक्त निकलता हो तो दूध से निकाले गये घृत की दो बूंदें नाक में डालनी चाहिए। ऐसी अवस्था में शरीर में जकड़न हो तो घृत का खूब सेवन करवाना चाहिए।

विभिन्न रोगों में प्रभावी

हिक्का और श्वास रोग के उपद्रव स्वरूप छाती, कण्ठ और तालु में यदि शुष्कता आ गयी हो अथवा जो रोगी स्वभाव से ही रुक्ष शरीर वाले होते हैं उनकी चिकित्सा में घी का प्रयोग लाभकर होता है। शुक्र का क्षय होने पर क्षीर और घृत का प्रयोग करना चाहिए। वहीं घी खाने से विष का प्रभाव कम होता है। जिन बच्चों का शरीर सूख गया हो उनको घी का प्रयोग लाभ देता है।

प्रेग्नेंसी में घृत का सेवन

गर्भावस्था में घृत का युक्तिपूर्वक प्रयोग लाभदायक है। गर्भावस्था के तीसरे मास मधु के साथ व पांचवें माह दूध के साथ घृत पान करना चाहिए। आठवें माह गर्भिणी को क्षीर यवागू यानी मांड मिश्रित घृत का प्रयोग समय-समय पर कराना चाहिए। इससे उत्तम, आरोग्य व बल युक्त संतान होती है।

सर्दी में घी के बाद पीएं गर्म जल

शरद ऋतु में स्वभाव से ही पित्त का प्रकोप होता है। अतः इस काल में तिक्त घृतपान करना चाहिए। साथ में सभी सब्जियां घी में पकानी चाहिए। घी या घी से बनी वस्तुओं के सेवन करने के बाद सदैव उष्ण जल का प्रयोग करने से घी का पाचन सुगमता से होता है। घृत न केवल आहार के रूप में अपितु औषधि के रूप में भी हमारे स्वास्थ्य का सवंर्धन करता है वहीं यह कई रोगों का प्रतिकार भी करता है।

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