सर्दी के इस मौसम में जब कभी तापमान 5 या 10 डिग्री सेल्सियस के आसपास आने लगता है तो हम ठिठुर कर घर में दुबक जाते हैं। कल्पना कीजिए उस मंजर की जहां शून्य से 40 डिग्री सेल्सियस नीचे तक तापमान पहुंच जाता हो, ऑक्सीजन बेहद कम हो, हाथ में राइफल हो और दुश्मनों की नापाक हरकतों पर नजर गड़ाए रखनी हो। जी हां लेह, लद्दाख, सियाचिन जैसे अनेक ऐसे इलाके हैं जहां हमारे जांबाज बेहद विषम परिस्थितियों में देश की रक्षा के लिए तैनात रहते हैं। यूं तो सरहद पर तैनाती हमेशा ही चुनौतीपूर्ण होती है, लेकिन सर्दियों में हालात और खराब हो जाते हैं। सर्दी के मौसम में सरहद की परिस्थिति पर चर्चा कर रहे हैं अभिषेक कुमार सिंह
पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों में अगर तल्खी हो, तो सर्द से सर्द मौसम में भी सरहदें गर्म रहा करती हैं। यह गर्मी सीमा पर फौजी हलचल से पैदा होती है। लेकिन जब मामला जम्मू-कश्मीर और लद्दाख जैसे भीषण ठंड वाले इलाकों का हो तो वहां सेनाओं को बनाए रखने में सबसे बड़ी मुश्किल बर्फ और ठंड ही पैदा करती है। बर्फ ऐसी कि ऊंचाई वाले इलाकों में जब-तब 30 से 40 फीट तक बर्फबारी हो जाए और ठंड इतनी कि तापमान माइनस 40, माइनस 50 डिग्री सेल्सियस या इससे भी नीचे गिर जाए। हमारे देश में इतनी ज्यादा ठंडक में फौजी तैनाती का ज्यादातर मामला सियाचिन से जुड़ता रहा है, जहां बीते तीन-चार दशकों से भारतीय सैनिक पाकिस्तानी करतूतों का माकूल जवाब देने के लिए तैनात हैं। वहां से लौटने वाले फौजी अक्सर ऐसे जिक्र छेड़ते रहे हैं कि अगर वहां संतरे या मुर्गी के अंडे को कुछ मिनट के लिए खुले में रख दिया जाए, तो वह जमने के साथ इतना सख्त हो जाता है कि फिर उसे हथौड़े से भी नहीं तोड़ा जा सकता। वहां मशीनें तक अपनी क्षमता का एक चौथाई प्रदर्शन कर पाती हैं, चलते-फिरते इंसानों की क्या बिसात है। पर अब इस चर्चा में सिचाचिन के साथ-साथ पूर्वी लद्दाख का नाम भी जुड़ गया है, जहां हमारे 40 से 50 हजार फौजी पाकिस्तान के साथ-साथ चीनी सैनिकों की आंख में आंख डालकर उनकी हरकतों पर सर्दी के इस पूरे मौसम में नजर रखेंगे। सियाचिन के मुकाबले पूर्वी लद्दाख में भारतीय सैनिकों की तैनाती कई गुना ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि सियाचिन में एक वक्त में तैनात भारतीय फौजियों की तादाद अमूमन 2500 से ऊपर नहीं जाती।
सैनिकों की विंटर पोस्टिंग के ये हालात इस साल जून में लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी सैनिकों की घुसपैठ की वजह से पैदा हुए हैं। शुरुआत में लगा था कि दोनों देशों की सरकारों और सैन्य कमांडर स्तर की बातचीत के बाद मामला सुलट जाएगा और बर्फ, बर्फीली हवाओं और शून्य से बेहद नीचे के तापमान वाली स्थितियों में सैनिकों की तैनाती की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन नवंबर, 2020 तक कमांडर स्तर की आठ-नौ दौर की वार्ता के बाद भी लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) पर सैनिकों को अपनी पोजीशन से हटने का आदेश नहीं मिल सका है। चीन के साथ टकराव में कोई कमी नहीं आने की स्थितियों में अब चुनौती यह है कि सर्दी के पूरे सीजन में हजारों सैनिकों के वहां टिके रहने के लिए क्या व्यवस्थाएं की जाएं। निश्चित ही हमारे वीर सैनिकों के मनोबल में कोई कमी नहीं है, पर कुदरत से वे कैसे निपटें। हालांकि सरकार और सेना की पूरी कोशिश है कि हमारे सैनिकों को सियाचिन की तरह ही लद्दाख में भी वे सारी सुविधाएं और उपकरण मिलें, जिनसे पोस्टिंग के इस अरसे में वे दुश्मन के अलावा सर्दी के कहर से भी निपट सकें। लद्दाख में सैनिकों को किन कुदरती चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, इसका अंदाजा सियाचिन में मिले पूर्व अनुभवों से हो जाता है।
मुश्किलें कैसी-कैसी
बात सिर्फ यह नहीं है कि सियाचिन और लद्दाख जैसे सर्द इलाकों में पीने तक के लिए बाल्टी भर बर्फ आग से पिघलाने में तीन घंटे लग जाते हैं और बात करते वक्त आवाज अस्पष्ट हो जाती है, बल्कि अत्यधिक ऊंचाई और ऑक्सीजन की कमी व हवा के कम सघन होने के कारण मनुष्य का शरीर ठीक से काम नहीं कर पाता है और सैनिक बीमार पड़ जाते हैं। सियाचिन या लद्दाख में बर्फ, तेज हवा और ठंड मौसम से होने वाली समस्याओं का अंदाजा मैदानी ठंड नहीं दे सकती है। इसका आकलन करने के लिए देश के रक्षा शोध एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने सेना के 15 डॉक्टरों और तीन वैज्ञानिकों की एक टीम बनाई थी। इस टीम में वर्ष 2012 से 2016 के बीच अध्ययन करके बताया था कि जिस तरह माउंट एवरेस्ट के रास्ते में फ्रॉस्टबाइट पर्वतारोहियों की दिक्कतें बढ़ती है, उसी तरह सियाचिन या अन्य बर्फीले इलाकों में तैनात सैनिक फ्रॉस्टबाइट से जूझते हैं। इन हालात में अगर सैनिक नंगे हाथों से राइफल के बैरल या ट्रिगर को छू लेते हैं, तो उन्हें अपना हाथ भी गंवाना पड़ सकता है। अत्यधिक ठंड से उंगलियां गल जाती हैं, निमोनिया या इन्फेक्शन हो जाता है, गैंगरीन हो सकता है या शरीर का कोई हिस्सा सड़ जाता है।
डॉक्टरों और वैज्ञानिकों की टीम ने यह भी बताया था कि ग्लेशियरों और सर्द इलाकों में तैनात सैनिकों में ब्लड क्लॉटिंग यानी खून का थक्का जमना भी एक अहम समस्या है। यह समस्या फ्रॉस्टबाइट से भी ज्यादा बड़ी और गंभीर होती है। मैदानी इलाकों के मुकाबले ग्लेशियर में ब्लड क्लॉटिंग का खतरा सौ गुना ज्यादा होता है और इसी में जान जाने का सबसे ज्यादा खतरा होता है। चिकित्सा विज्ञान की भाषा में इस बीमारी को थ्रांबोसिस कहते हैं। ठंड से दिल में या मस्तिष्क में खून का थक्का जम सकता है। मौसम की इतनी विपरीत स्थितियों में ज्यादा दिन रहने से भूख और नींद मरने लगती है और वजन घटने लगता है। साथ ही याददाश्त भी कमजोर पड़ने लगती है। कुछ खतरे और हैं। जैसे हाई एल्टीट्यूड पल्मनरी इडीमा, यानी हापे। यह ज्यादा ऊंचाई पर लंबे समय तक शून्य से नीचे के तापमान में रहने के कारण दिल की धड़कनें तेज होने संबंधी बीमारी है। ऐसी स्थिति में दिल तेजी से काम करता है और दिल की धड़कन रुकने का खतरा पैदा हो जाता है। इससे व्यक्ति के फेफड़ों में पानी भी भर जाता है। इसके इलाज के लिए बीमार व्यक्ति को निचले इलाके में स्थित अस्पताल में लाना पड़ता है। लेह में भारतीय सेना का एक आधुनिक अस्पताल है, जहां ऑक्सीजन की प्रचुर उपलब्धता वाले चैंबर है। बीमार जवानों को वहां लाकर ऐसी दवाइयां भी दी जाती हैं, जिनसे फेफड़ों में कोई बदलाव न होने पाए। यह अस्पताल मूलतः सियाचिन में तैनात सैनिकों के लिए बनाया गया था, पर अब लद्दाख में मौजूद सैनिकों की मदद भी करता है।
लद्दाख, सियाचिन और सिक्किम में नाथुला बॉर्डर जैसे कई इलाके ऐसे हैं, जहां सैनिकों को बेहद ऊंचाई वाले इलाकों में कम तापमान के अलावा कम वायुमंडलीय दबाव और कम ऑक्सीजन के साथ रहना पड़ता है। ऐसे इलाकों के वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा मैदानी इलाकों के मुकाबले सिर्फ 10 प्रतिशत होती है। इसकी वजह से जवानों का रक्तचाप बढ़ जाता है और वे एक्यूट सिकनेस के शिकार हो जाते हैं। उनमें ठीक वैसे ही लक्षण स्थायी रूप से पैदा हो जाते हैं, जैसे आम पर्यटकों को कई बार सिर में दर्द की शिकायत हो जाती है। ये लक्षण ज्यादा ऊंचाई पर ऑक्सीजन कम होने के कारण मस्तिष्क पर दबाव बढ़ने पर पैदा होते हैं।
प्रतिदिन करोड़ों खर्च
सर्दियों में सियाचिन और लद्दाख जैसी जगहों पर सैनिकों की तैनाती के कारण सेना और सरकारों पर आर्थिक दबाव भी पड़ता है। सियाचिन में ही फिलहाल प्रतिदिन पांच-सात करोड़ का खर्च सरकार को वहन करना पड़ रहा था, अब लद्दाख की स्थितियों के कारण यह खर्च दसियों गुना बढ़ गया है। इस खर्च का एक मोटा अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सियाचिन में सैनिकों के लिए भोजन सप्लाई करने में चीता हेलीकॉप्टर की सेवाएं ली जाती हैं जो टिन के कैन में राशन पहुंचाता है। इस व्यवस्था के करण आम तौर पर दो रुपये में मिलने वाली रोटी की कीमत वहां 200 रुपये की हो जाती है। हालांकि सर्दी में सरहद पर मोर्चा ले रहे सैनिकों को हर जरूरी साजोसामान मुहैया कराने में सेना और सरकार कोई कोर-सर नहीं छोड़ रही है। खासतौर से इस बार लद्दाख के सीमाई इलाके में सर्दियों में तापमान की गिरावट को देखते हुए हजारों सैनिकों के लिए आधुनिक आवास की व्यवस्था की गई है जो बीते कई साल से यहां बनाए जा रहे और काम में लिए जा रहे स्मार्ट कैपों से अलग हैं। इन आधुनिक आवासों में बिजली, पानी, हीटिंग फैसिलिटी (कमरे को गर्म करने) के प्रबंध किए गए हैं। सामरिक तैनाती के मुताबिक अग्रिम पंक्ति के सैनिकों की व्यवस्था गर्म टेंट्स में भी की गई है। सियाचिन में इस काम के लिए हर जवान को एक लाख रुपये की एक किट मिलती है, जो पर्याप्त मात्रा में तैयार हो गई होंगी तो भी पूर्वी लद्दाख में कितनी कारगर रहेगी, इसका जवाब इन सर्दियों में ही मिल पाएगा। आपातकाल के लिए पर्याप्त नागरिक ढांचों को भी चिह्नित किया गया है।
जवानों को अत्यधिक ठंड में मोर्चा लेने में कोई दिक्कत नहीं आए, इसके लिए भारत ने अमेरिका से 15 हजार से अधिक एक्सटेंडेंट वेदर क्लोदिंग सिस्टम आयात किए हैं। दावा किया जा रहा है कि भारतीय सेना ने सियाचिन और पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में पश्चिमी मोर्चों सहित पूरे लद्दाख क्षेत्र में तैनात सैनिकों के लिए कड़क ठंड के मौसम के कपड़ों के 60,000 सेट का स्टॉक रखा है। हमें नहीं मालूम कि इस साल ठंड कहां तक जाएगी, लेकिन इतना तय है कि हमारे फौजियों को सरहद पर हर वक्त मुस्तैद रखने के लिए सारे मुमकिन उपाय किए जाएंगे ताकि वे दुश्मन का मुकाबला कर सकें।
कड़ी ट्रेनिंग और उपकरण
बात चाहे सियाचिन की हो या लद्दाख की, वहां तैनात करने से पहले जवानों को कड़ी ट्रेनिंग दी जाती है। सेना के नियमों के मुताबिक लेह, कारगिल और सियाचिन जैसी जगहों पर सैनिकों की पोस्टिंग का एक निश्चित कार्यक्रम होता है। सियाचिन और लद्दाख में ऊंची जगहों पर भेजने से पहले सैनिकों को बेस कैंप में स्थित सियाचिन बैटल स्कूल में वैज्ञानिक तरीके से एक महीने की ट्रेनिंग दी जाती है। इस ट्रेनिंग के तहत जवानों को बर्फीले दर्रे पार करने, बर्फ की मोटी दीवार पर सीधी चढ़ाई करने, एवलांच (हिमस्खलन) में आई जमा बर्फ को साफ करने और आपदा के दौरान बचाव-राहत कार्य चलाने के बारे में प्रशिक्षण दिया जाता है। यदि कोई सैनिक एक बार में इस ट्रेनिंग को उत्तीर्ण नहीं कर पाता है, तो उसे एक महीने की ट्रेनिंग और दी जाती है जब तक कि वह लद्दाख या सियाचिन जाने के योग्य नहीं हो जाता। यही नहीं, ट्रेनिंग के दौरान ही सैनिकों को बर्फीले स्थानों पर इस्तेमाल में लाए जाने वाले उपकरण की जानकारी भी दी जाती है। ये उपकरण इन सैनिकों को हर वक्त अपने पास रखने होते हैं। इन उपकरणों में खास किस्म के चश्मे होते हैं। ये चश्मे सौ फीसदी अल्ट्रावॉयलेटरोधी होते हैं, ताकि दिन में सूरज चमकने और उसकी चमक बर्फ पर पड़ने के बाद आंखों में जाए, तो आंखों की रोशनी जाने का खतरा पैदा नहीं हो। सैनिकों को खास कपड़ों के अलावा अल्युमीनियम अलॉय और पॉलीथिन पैड से बने बेहद मजूबत पिठ्ठू-बैग से लैस किया जाता है, जिसमें वे 25 किलोग्राम तक का सामान ढो सकते हैं। सैनिक लकड़ी की चौकियों पर स्लीपिंग बैग में सोते हैं, मगर खतरा सोते समय भी मंडराता रहता है क्योंकि ऑक्सीजन की कमी की वजह से कभी-कभी सैनिकों की सोते समय ही जान चली जाती है। ऐसे में वहां तैनात संतरी उन्हें बीच-बीच में जगाता रहता है। सियाचिन में तैनात सैनिक लंबे समय से ऑस्ट्रेलियाई जैकेट और पैंट का इस्तेमाल करते आए हैं। थर्मल कपड़ों से बनी चार परतों वाली इस जैकेट में बत्तख के पंख भरे होते हैं। ये जैकेट और पैंट सैनिकों को बेहद तेज हवाओं और मौसम के दूसरे प्रभावों से बचाती हैं। सैनिक सबसे ऊपर जो कोट पहनते हैं उसे ‘स्नो कोट’ कहते हैं। सियाचिन, लेह-कारगिल और सिक्किम में तैनात होने वाले जवानों के लिए तीन लेयर वाला एक्सट्रीम कोल्ड वेदर क्लोदिंग सिस्टम होता है। इसी तरह के एक्ट्रीम या एक्सटेंडेंट वेदर क्लोदिंग सिस्टम इस बार अमेरिका से मंगाए गए हैं। इसके हर एक सेट की कीमत 35 से 50,000 रुपये तक होती है। इस क्लोदिंग सिस्टम की बाहरी परत गोरटेक्स नामक कपड़े की बनी होती है। गोरटेक्स वाटरप्रूफ और ब्रीदेबल फैब्रिक होता है। यानी यह तरल पदार्थ जैसे पानी को अंदर नहीं आने देता, मगर भाप को अंदर आने देता है। यह बेहद हल्का होता है। इसी तरह सैनिकों को बर्फ के नुकसान से बचाने वाले दस्ताने मुहैया कराए जाते हैं। इन्हें ऐसे बनाया जाता है ताकि सैनिक राइफल चला सकें। सियाचिन में तैनात सैनिकों को चार किलोग्राम तक वजन वाले फ्रैंच बूट क्रैंपॉन्स पहनने पड़ते हैं। इनके तलों में कीलें लगी होती हैं और ये खास जुराबों से लैस होते हैं जो सैनिकों के पैरों को शून्य से 50 डिग्री नीचे के तापमान में सुरक्षित रखते हैं। हथियार के रूप में इंसास राइफल के साथ-साथ एक सैनिक को रेडियो सेट, बैटरियां और एवलांच में दबे लोगों का पता लगाने में सहायता करने वाले यंत्र, बर्फ काटने वाली कुल्हाड़ी, रस्सी, कार्बाइन आदि को भी हमेशा साथ रखना पड़ता है।