उत्तराखंड के चमोली में तपोवन आपदा के तात्कालिक कारण भले ही कुछ भी बताये जा रहे हों, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अनियोजित विकास और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन भी इसके लिए जिम्मेदार है। हिमालय का यह पूरा क्षेत्र बेहद संवेदनशील है, ऐसे में कुदरत को सहेजने और विकास के साथ-साथ अचानक आने वाली आपदाओं के संबंध में सूचना तंत्र भी विकसित करना जरूरी है ताकि कुदरत का ऐसा रौद्र रूप न देखना पड़े।
अभिषेक कुमार सिंह
क्या आपने कभी अतुल्य भारत या कहें कि इनक्रेडिबल इंडिया की वेबसाइट पर उत्तराखंड स्थित तपोवन के बारे में कुछ खोजबीन की है। अगर हां, तो आपने पाया होगा कि वहां समुद्र तल से करीब 14,640 फुट की ऊंचाई पर स्थित तपोवन यानी तपस्या का वन अपने भीतर चट्टानी रास्ते, विशाल पर्वत और छोटे-छोटे झरनों की खूबसूरती समेटे हुए है। वेबसाइट में है कि यह जगह दिल में उतर जाने वाले अनोखे गंगोत्री-तपोवन ट्रैक के लिए मशहूर है। यह ट्रैक नौसिखिए ट्रैकर्स के लिए वरदान है जो अद्भुत हिमालय को उसके संपूर्ण के साथ देखना चाहते हैं। अब जरा चमोली जिले में पड़ने वाली दिलफरेब नजारों से भरी इस जगह को हाल में (7 फरवरी, 2021 को) ग्लेशियर फटने और उसके बाद पैदा हुए हालात के मद्देनजर देखिए। तपोवन में ही जिस रैणी गांव में ग्लेशियर फटने की यह घटना हुई, वहां सप्तऋषि और चंबा नामक दो पहाड़ हैं। इन दोनों पहाड़ों के बीच के सबसे निचले हिस्से से ही एक बड़ा ग्लेशियर टूटकर ऋषिगंगा नदी में गिरा, जिससे नदी के पानी में एक तरह की सूनामी पैदा हो गई। यह सैलाब इतना तेज था कि जिस जगह पर अब से करीब 50 साल पहले (1970 में) गौरा देवी ने पेड़ और जंगल बचाने का प्रख्यात चिपको आंदोलन शुरू किया था, वहां मौजूद मुरिंडा का जंगल एक झटके में साफ हो गया। इसके बाद बारी आई ऋषिगंगा हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट की, जिसकी सुरंगों और साइट पर काम कर रहे करीब दो सौ लोग फंस गए। इनमें से ज्यादा मजदूर और परियोजना से जुड़े अधिकारी थे। अनेक की मौत की खबर अब तक आ रही है। ध्यान रहे कि इस पावर प्रोजेक्ट के दूसरे छोर पर रैणी गांव है। इस गांव के इर्दगिर्द अन्य कुछ गावों में दो हजार लोग रहते हैं। गनीमत रही कि ये गांव त्रासदी से बच गये। हालांकि सैलाब के आगे बढ़ने से चीन बॉर्डर को जोड़ने वाला पुल बह गया और पावर प्रोजेक्ट के मजदूरों के अलावा घास काटने गई करीब 30 महिलाओं के बह जाने की खबरें भी मिलीं। ऋषिगंगा का यह सैलाब आगे बढ़कर धौलीगंगा नदी में जाकर मिल गया। वर्ष 2013 के केदारनाथ हादसे के बाद उत्तराखंड कैसे एक बार फिर उसी तरह की त्रासदी से दहल गया, जिसने इस बहस को फिर चर्चा में ला दिया है कि क्या यह सिर्फ एक दैवीय आपदा थी या इसमें पूरी तरह इंसानी दखल की भूमिका है।
आखिर कितनी घटनाएं
16-17 जून, 2013 को पवित्र तीर्थ केदारनाथ में ऐसी ही आपदा आई थी। केदारनाथ में प्रकृति ने जो तांडव रचा था, उसके क्या कारण थे- यह रहस्य ही है। लेकिन इतने अरसे में पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और सरकार ने इसके जवाब अलग-अलग ढंग से तलाशने की कोशिश की है। इसी बीच, सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 11 सदस्यीय जो विशेषज्ञ संस्था बनाई थी, वह साल 2014 में अपनी रिपोर्ट दे चुकी है। इसमें उत्तराखंड में मौजूद और निर्माणाधीन जल विद्युत परियोजनाओं को मुख्य रूप से जिम्मेदार ठहराया गया था। बात चाहे केदारनाथ की हो या तपोवन की, इससे किसी को इनकार भी नहीं है कि बेढंगे विकास की बदौलत ही प्रकृति का स्वरूप बिगड़ा है और आपदाएं बढ़ी हैं। ज्यादातर मामलों को कभी अचानक बादल या ग्लेशियर फटने की प्राकृतिक अवस्था तक सीमित कर दिया जाता है और असली कारकों को प्राय: अनदेखा कर दिया जाता है और आपदाएं फिर आती हैं। केदारनाथ आपदा के संबंध में शुरुआत में कहा गया था कि अचानक हुई भारी वर्षा यानी बादल फटने की घटना इसका अहम कारण थी। पहाड़ी इलाकों में बारिश के दिनों में बादल फटना असामान्य बात नहीं है। छोटे स्तर पर जानमाल का नुकसान भी होता है, पर हजारों जिंदगियां लीलने वाली केदारनाथ त्रासदी में जो कुछ हुआ था, वह बादल फटने से ज्यादा बड़ी घटना थी। इस तबाही की भूमिका काफी पहले से लिखी जा रही थी पर उसकी ओर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा था। ऐसे एक अहम कारण का खुलासा अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी-नासा ने किया था। नासा ने केदारनाथ त्रासदी से करीब 20 दिन पहले 25 मई, 2013 को अपने उपग्रह-लैंडसेट 8 से केदार घाटी के कुछ चित्र लिए थे। उनमें दिखा था कि केदार घाटी के ऊपर स्थित दो मुख्य हिमनदों (ग्लेशियरों) चूराबारी और कंपेनियन की कच्ची बर्फ तेजी से पिघलकर बहने लगी थी और मार्ग में आने वाले चट्टानी अवरोधों के कारण रिसकर आया पानी बड़ी मात्रा में केदारनाथ के ऊपर आकर जमा हो गया था। दावा है कि इन चित्रों से प्राप्त सूचनाएं भारतीय मौसम वैज्ञानिकों के साथ साझा की जाती रही, पर वे यह भांपने में नाकाम रहे कि तेजी से पिघले हिमनदों से इतना भारी विनाश हो सकता है।
क्यों पिघल रहे हैं ग्लेशियर
ग्लेशियर पिघल क्यों रहे हैं। तपोवन त्रासदी में तो यह सवाल और भी मानीखेज हो गया है कि क्योंकि वहां ग्लेशियर फटने या बेहद तेजी से पिघलने की घटना सर्दियों में हुई-जिस वक्त बर्फ पिघलने का कोई मौसम नहीं होता। ऐसे में उत्तराखंड के चमोली में चल रहे हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट को भी त्रासदी की बड़ी वजह माना जा रहा है। पहाड़ी इलाकों में विकास के लिए जब हाइड्रोपावर परियोजनाओं के अलावा जंगल काटकर और नदी-नालों का प्राकृतिक बहाव रोककर सुरंगें, पुल और सड़कें बनती हैं, उन पर वाहनों की लगातार आवाजाही होती है, तो यह कहना मुश्किल हो जाता है कि वहां कोई हिमालय की करुण पुकार वास्तव में सुन पा रहा होगा। ऐसे में प्रकृति अपने तरीके से बदला लेती है। उल्लेखनीय है कि केदारनाथ हादसे के बाद वहां ऑल वेदर रोड प्रोजेक्ट यानी चार धाम परियोजना पर काम शुरू हुआ, जिसके लिए 56 हजार पेड़ों का सफाया करना जरूरी हो गया। एक बार जब पेड़ और जंगल साफ हो गए और कारों- ट्रकों की निरंतर चिल्ल-पौं से लेकर हेलीकॉप्टरों की गर्जना शुरू हो गई तो इस लिहाज पर किसका ध्यान जाता है कि हिमालय का पर्यावरण इतना नाजुक है कि वहां जोर से बोलना या चिल्लाना अपराध है। चमोली आपदा बेशक प्राकृतिक थी जिसमें ग्लेशियर फटा और एक सूनामी पैदा की। लेकिन क्या इससे इनकार किया जा सकता है कि मानव निर्मित कारणों ने इसकी भयावहता को बढ़ा दिया है। कहा जा रहा है कि ऋषिगंगा हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के ऊपर हिमस्खलन या भूस्खलन की वजह से कोई बांध या गहरी झील अचानक बन गई, जिसमें जमा हुई बर्फ, पानी और मलबे को वह प्राकृतिक बांध रोक नहीं पाया और फट गया। इससे पानी-बर्फ-मलबे का वह विशालकाय ढेर विस्फोट करते हुए नीचे की तरफ बह निकला और उसने पावर प्रोजेक्ट समेत तमाम जिंदगियां लील लीं। एक वजह इस इलाके में मौजूद दो ग्लेशियरों-रामणी और हनुमान बांक में हुए हिमस्खलन को माना जा रहा है। इन ग्लेशियरों में हुए तेज हिमस्खलन के कारण बर्फ और मलबे का एक ढेर पैदा हुआ, जो पहले रैणी गांव के बांध (बैरियर) को तोड़ते हुए तपोवन स्थित ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट की सुरंगों में घुस गया।
परियोजनाओं से बढ़ते खतरे की चिंता के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट केदारनाथ त्रासदी के मद्देजर दिसबंर 2014 में इस राज्य की 39 में से 24 जलविद्युत परियोजनाओं पर रोक लगाने का ऐलान किया था। साथ ही, केंद्र सरकार के जल संसाधन मंत्रालय ने सर्वोच्च अदालत में स्वीकार किया था कि उत्तराखंड में खास तौर से गंगा पर कोई भी नया पॉवर प्रोजेक्ट पर्यावरण के लिए खतरा है। उत्तराखंड की इन विद्युत परियोजनाओं पर रोक के मामले में सुनवाई के दौरान 2016 में तत्कालीन जल संसाधन मंत्री उमा भारती की ओर से दायर हलफनामे में केंद्र सरकार के रुख के उलट कहा गया था कि नदियों का रास्ता नहीं रोका जाना चाहिए। उत्तराखंड में अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी और गंगा नदियों पर कोई भी बांध या पावर प्रोजेक्ट खतरनाक होगा। हालांकि तमाम कवायदों के बाद भी उत्तराखंड में बांधों और बिजली परियोजनाओं का काम लगातार जारी रहा। यही वजह है कि पिछले साल 28 फरवरी 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को जारी निर्देश में कहा कि वह चाहे तो इन परियोजनाओं को इको-सेंसेटिव जोन से बाहर दूसरे क्षेत्रों में शिफ्ट करने पर विचार करे ताकि इनके कारण लोगों की जिंदगी खतरे में न आए। लेकिन इस मामले की सुनवाई पूरी होती, इससे पहले ही तपोवन हादसा हो गया।
उल्लेखनीय है कि टिहरी जैसे दानवाकार बांध के साथ ही उत्तराखंड की 17 नदियों पर तकरीबन 558 मझोले और छोटे बांध प्रस्तावित हैं। वैसे ध्यान रखना होगा कि जल संसाधन मंत्रालय से उलट दो मंत्रालयों-पर्यावरण और ऊर्जा मंत्रालय की राय यह रही है कि पहाड़ों में बांध बनाना खतरनाक नहीं है।
हिमनदों का आर्तनाद
हमारे देश में हिमनदों (ग्लेशियर्स) के तेजी से पिघलने या फटने से पहले भी कई हादसे हो चुके हैं। ऐसी एक बड़ी घटना 1926 में हुई थी। उस वर्ष जम्मू-कश्मीर में श्योक हिमनद फट गया था जिससे उसके नजदीक स्थित अबूदान नामक एक गांव पूरी तरह तबाह हो गया था। बताते हैं कि इस हिमनद से आया जल-सैलाब इलाके की 400 वर्ग किलोमीटर की जमीन को लील गया था जिससे भारी जन-धन हानि हुई थी। इसी तरह की कुछ घटनाएं हिमाचल प्रदेश के शौने गरांग हिमनद के इलाके में 1981 और 1988 में हुईं। सवाल है कि आखिर हिमनदों के तेजी से पिघलने का क्या कारण है ? यूं तो दुनिया के कई हिस्सों (जापान, कनाडा, स्विटज़रलैंड, अमेरिका आदि) में नदियों का जलप्रवाह बढ़ाने के लिए हिमनदों को कृत्रिम रूप से पिघलाने की तरकीब अपनाई जाती है। कई बार उन पर जमी बर्फ को हल्के विस्फोटकों के इस्तेमाल से हटाया भी जाता है। लेकिन यह काम उनकी सतत निगरानी के बल पर होता है। लेकिन कई बार ये हिमनद मानवीय गतिविधियों के कारण भी तेजी से पिघलते और सिकुड़ते हैं। बेशक इससे नदियों में पानी का प्रवाह बढ़ जाता है और कई बार जल संकट से भी निजात मिल जाती है। पर हमेशा यह काम नियंत्रित ढंग से नहीं होता है। इस बारे में डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के ग्लोबल क्लाइमेट चेंज प्रोग्राम की निदेशक जेनिफर मॉर्गन ने 2005 में कहा था कि हिमनदों के पिघलने से जाहिर है कि नदियों में ज्यादा पानी आएगा, पर आशंका यह है कि इससे पहले दुनिया में भयानक सैलाब आएंगे जो भारी विनाश का कारण बन सकते हैं। हिमालय के हिमनदों के पिघलने की रफ्तार पर हमारे पड़ोसी नेपाल के सेंटर फॉर इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) की भी नजर रही है। इस सेंटर ने अपनी रिपोर्ट-‘फॉरमेशन ऑफ ग्लेशियल लेक इन द हिंदूकुश-हिमालय एंड जीएलओएफ रिस्क असेसमेंट’ में कहा है कि हिंदूकुश के हिमालय क्षेत्र के चारों तरफ जो आठ हजार हिमनद हैं उनमें से 200 से ज्यादा इस क्षेत्र के लिए वाकई खतरनाक हैं। जून 2019 में जर्नल साइंस एडवांसेज में पब्लिश हुई एक स्टडी बताती है कि 21वीं सदी यानी मौजूदा समय में हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार पिछली सदी के आखिरी 25 साल के मुकाबले दोगुनी हो चुकी है। इस स्टडी के लिए भारत, चीन, नेपाल और भूटान से पिछले 40 साल का सैटेलाइट डेटा लिया गया, जिसके आधार पर पता चला कि तापमान बढ़ने से ग्लेशियरों के निचले हिस्से को नुकसान हो रहा है। ऐसे में पानी की कमी के साथ ही हादसे भी बढ़ेंगे। हमारे देश में करीब 80 करोड़ लोग सिंचाई, बिजली और पीने के पानी के लिए हिमालय के ग्लेशियरों पर निर्भर हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगले कुछ दशकों में यह बंद हो जाएगा, क्योंकि हम बड़े पैमाने पर ग्लेशियर खो रहे हैं।
वैसे हिमनदों के तेजी से पिघलने-सिकुड़ने की समस्या चौतरफा है। जम्मू-कश्मीर का पिंडारी हिमनद 1848 से 1957 के बीच 108 वर्षों में 1350 मीटर सिकुड़ चुका था। इसी तरह, तंजानिया (अफ्रीका) में किलिमंजारो के ग्लेशियर लगभग गायब हो चुके हैं। पेरू की दक्षिणी एंडेस पर्वतमाला में स्थित क्युलस्सया बर्फ टोपियां 1963 के बाद 20 फीसदी पिघल गईं। अमेरिका में ओहियो स्थित बायर्ड पोलर रिसर्च सेंटर के विज्ञानियों ने दो दशकों के दौरान किए गए शोध में पाया कि अफ्रीका के अलावा, दक्षिणी अमेरिका, चीन, तिब्बत, भारत और दूसरी जगहों पर ग्लोबल वार्मिंग आदि अनेक पर्यावरणीय कारणों से हिमनद पिघल रहे हैं। समस्या इनका खतरनाक होना भर नहीं है, बल्कि यह है कि इनके पिघलने की दर पर निगाह रखकर अलर्ट जारी करने वाली कोई माकूल व्यवस्था उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में मौजूद नहीं रही है जबकि यही राज्य इनसे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। गौरतलब है कि उत्तराखंड सरकार ने बीते वर्षों में चारधाम यात्रा के मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में दिलचस्पी ली है। इसी तरह आपदा प्रबंधन के नाम पर सड़कें बनाने, यात्रियों की संख्या सीमित करने, उनका मेडिकल टेस्ट कराने, आपदा की सूरत में बचाव के रास्तों को चिह्नित करने आदि सब काम किए हैं, लेकिन कहीं इसका जिक्र नहीं मिला कि हिमनद के तेजी से पिघलने की जानकारी लेने और उसकी समय पर सूचना देने का प्रबंध भी किया गया हो। यदि हम हिमालय के पर्यावरण से छेड़छाड़ न करें, नदियों का प्राकृतिक प्रवाह न रोकें और सीमित दायरे में रहकर तीर्थयात्रा व पर्यटन करें, तो ही प्रकृति की ये सौगातें वरदान के रूप में मौजूद रहेंगी। कोशिश होनी चाहिए कि हिमनदों के रूप में प्रकृति के इस ठंडे व श्वेतवर्णी वरदान को हमेशा के लिए बचाकर रखा जा सके।