डॉ. मोनिका शर्मा
बात देश-विदेश के किसी कोने में कोई अनहोनी होने और उसमें बड़े होते बच्चों की भागीदारी भर की नहीं है, बच्चों का मन यूं भी आक्रोश से भरा ही दिखता है| खिलखिलाने वाला बचपन का दौर अब खीझ से भरा लगता है| छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा और व्यवहार में अस्थिरता आम सी बात हो गई| न कुछ सुनने की शक्ति है न सहने का साहस| जबकि जीवन का हर पड़ाव मन मुताबिक तो नहीं चलता| ऐसे में ज़िंदगी के शुरुआती दौर में ही खो रहा संयम और ठहराव वाकई चिंता का विषय है| जरूरी हो गया है कि परिवारजन बड़े होते बच्चों के मन-जीवन को थामने के लिए थोड़ी और सजगता एवं सहजता बरतें|
परिस्थितियों को समझना
सबसे पहले तो अभिभावक आज के दौर के हालात को समझें| तकनीक तक आसान पहुंच और वैचारिक खुलेपन के दौर में बड़े हो रहे बच्चों की परवरिश हर मोर्चे पर और मुश्किल हो गई है, खासकर संयत और सधे व्यवहार करने का पाठ पढ़ाना| पेरेंट्स को समझना होगा कि डिजिटल होती इस दुनिया में बच्चों को बांधा नहीं जा सकता| उनके मन को भावनात्मक समझाइश के साथ थामने का प्रयास भर किया जा सकता है| आज के बच्चे अतिसंवेदनशील बन रहे हैं। चिड़चिड़ाहट और अनचाहे आवेग का ऐसा मेल बचपन का हिस्सा बन रहा है, जो मासूम मन की समझ और स्थिरता के लिए घातक है। इन बदलते हालात को समझने की ज़िम्मेदारी अभिभावकों की ही है| हालांकि शुरू से ही मनोभावों को साधने और सही बर्ताव करने का परिवेश बनाया जाए तो यह काम मुश्किल भी नहीं|
अपने व्यवहार की भी परख
पैरेंट्स खुद गुस्से और ऊंची आवाज़ में बात करते हुये बच्चों को शांत-सहज रहने का पाठ नहीं पढ़ा सकते| घर के किशोरवय सदस्य तो इस बात को अच्छे से समझने लगते हैं कि उन्हें समझाने की नहीं बल्कि अपना दबदबा दिखाने की कोशिश की जा रही है| ऐसे में या तो वे आत्मकेंद्रित हो जाते हैं या फिर आक्रोशित| समझना जरूरी है कि बच्चे अकेले- चुपचाप रहने लगें या गुस्सैल बन जाएं, दोनों ही बातें सहज नहीं हैं| ऐसे बच्चों का व्यवहार बहुत अनप्रैडिक्टेबल हो जाता है| अपने ही घेरे तक सिमटे बच्चे बुरी आदतों का शिकार बन जाते हैं | अवसाद की चपेट में आ जाते हैं| गुस्से और आक्रामकता का बर्ताव कई बच्चों को किसी आपराधिक घटना को अंजाम देने के हालात तक ले जाता है| आमतौर पर सारी कोशिशें बच्चों को सुधारने के लिए की जाती हैं जबकि उस पूरे परिवेश में सुधार की जरूरत होती है, जिसमें बच्चे बड़े हो रहे हैं। एक बड़ी गलती यह होती है कि अभिभावक बच्चों को तनाव से बाहर निकालने के बजाय उन्हें अराजक घोषित कर देते हैं। इसीलिए पेरेंट्स के लिए खुद अपने बर्ताव को परखना और समझना भी जरूरी है|
मानसिक संबल की दरकार
आज के बच्चे जीवन से जुड़ी आम सी समस्याओं को भी संभाल पाने में सक्षम नहीं हैं। गुस्सा, चिड़चिड़ापन, आलस और कई तरह के मानसिक तनाव ने उनके भावनात्मक स्वास्थ्य को गहरी चोट पहुंचाई है। सबसे ज्यादा असर ऑनलाइन दुनिया में की जा रही एक्टिविटीज़ का है| स्क्रीन पर खेले जा रहे हिंसक खेल उनकी मानसिकता ही बदल रहे हैं| अजब-ग़ज़ब आभासी संसार में जी रहे किशोरवय बच्चे सोशल मीडिया अपडेट्स के चलते दिखावे की चपेट में हैं| सब कुछ अपने मन-मुताबिक चाहते हैं| इसीलिए नई पीढ़ी या तो हद से ज्यादा गंभीर है या पूरी तरह असहयोगी व्यवहार को अपना रही है| वर्चुअल दुनिया हो या असल संसार कई तरह की असामाजिक गतिविधियों में उनकी भागीदारी बढ़ रही है। बच्चों के मन में उपजा यह बिखराव कुछ ऐसा है कि आने वाले कल में वे ख़ुद को ही नहीं संभाल पायेंगे। ऐसे में बचपन से जुड़े हर पहलू के सही विकास के लिए बड़ों के सहयोग और संवेदनशील समझ की दरकार है जिसका सीधा सा मतलब है कि ख़ुद बड़े उनके साझीदार बनें| कुछ उनके मन की मासूमियत और कुछ अपने मन की समझ के साथ चला जाए| यह सहज और संवेदनशील भागीदारी ही परवरिश के हर मोर्चे पर संतुलन साध सकती है| बच्चों को मानसिक सम्बल देते हुए जीवन के व्यावहारिक पाठ पढ़ा सकती है|