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खेती-संस्कृति का जीवंत उत्सव

द्री फेस्टिवल 5 जुलाई
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अरुणाचल प्रदेश के अपातानी जनजाति द्वारा मनाया जाने वाला द्री फेस्टिवल एक पारंपरिक फसल पर्व है, जो फसल बोने से पहले बेहतर पैदावार, बारिश और सामाजिक सौहार्द की कामना के साथ उत्साह और उल्लास से मनाया जाता है।

धीरज बसाक

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भारत के उत्तर पूर्व में स्थित अरुणाचल प्रदेश के अपातानी जनजाति द्वारा मनाया जाने वाला द्री फेस्टिवल या द्री पर्व एक फसल पर्व है और इसे मनाते हुए पूरा लोकजीवन हर्ष उल्लास से भर जाता है। दरअसल, द्री फेस्टिवल एक कृषि परंपरा का फसल पर्व है। वास्तव में यह फसल के पकने के बाद का पर्व नहीं है बल्कि फसल बोने के पहले ही उसके बेहतर होने की कामना का पर्व है। द्री उत्सव जो कि इस साल 5 जुलाई, शनिवार को मनाया जायेगा। मगर इसकी शुरुआत जून माह के शुरू से ही हो जाती है। अरुणाचल प्रदेश का अपातानी समुदाय इस दिन अपने पारंपरिक देवताओं को प्रसन्न करने के लिए तथा अच्छी बारिश, अच्छी फसल और लोगों के जीवन में सुख और खुशी की कामना के साथ-साथ यह पर्व खेतों में कीट-पतंगों की रक्षा के लिए, अनाज की बेहतर पैदावार के साथ उसके सुरक्षित रखने के लिए, फसलों, जानवरों और मनुष्यों में बीमारियां न फैलें तथा समाज में शांति बनी रहे, इतनी सारी आकांक्षाओं के लिए यह पर्व मनाया जाता है। इससे पता चलता है कि उत्तर पूर्व का जनजातीय समाज अपने लोकविश्वासों और लोकजीवन में कितने गहरे तक जुड़े हैं।

इस पर्व की तैयारियां कम से कम एक महीने पहले से शुरू हो जाती हैं और कभी-कभी स्थान विशेष पर तो इस पर्व के कार्यक्रम कई-कई दिनों तक चलते रहते हैं। मतलब यह है कि यह पर्व निश्चित अवधि का नहीं होता, कई बार पर्व के कार्यक्रम कई-कई दिनों तक चलते हैं, तो कई बार जल्दी खत्म हो जाते हैं। इस पर्व में चार तरह के लोकदेवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनका आह्वान और उनकी पूजा की जाती है। इनमें पहले देवता तामू हैं। ये फसलों को कीटों से बचाने वाले देवता हैं। दूसरे देवता का नाम मेती है, ये फसलों को बीमारियों से बचाने वाले देवता हैं। तीसरे देवता दानयी हैं, जो प्रकाश और उर्वरता के प्रतीक हैं यानी भगवान सूर्य हैं तथा इन देवताओं के साथ एक देवी भी हैं जिन्हें हर्नियांग यानी वर्षा और जल की देवी कहते हैं।

द्री उत्सव मनाने के लिए महीनों पहले अपातानी जनजाति के युवा और वृद्ध जन मिलकर काठ, बांस, फूलों और ध्वजों से उस पूजास्थल को खूब सजाते हैं, जहां ऊपर उल्लेखित देवताओं और एक देवी की पूजा की जाती है। इसकी पूरे गांव में सामूहिक तैयारी होती है और इस पर्व में पहनने के लिए विशेष पोशाकें बनायी जाती हैं। पूजा वाले दिन गांव का स्थानीय पुजारी धान के खेतों में जाकर तीनों देवताओं और देवी की पूजा करता है। यहां बलि देना एक प्रतीक के तौर पर ही होता है। इसमें कद्दू या कुम्हड़ा जैसे फल को बलि के रूप में काटा जाता है। बहरहाल, इस दिन गांव के सारे लोग अपोंग यानी चावल से बनी पारंपरिक बीयर के साथ तरह-तरह के पकवानों का सेवन करते हैं और पूरे दिन तरह-तरह के उल्लास के साथ नाचते गाते हैं।

यह पर्व वास्तव में आपसी मेलजोल और भाईचारे का सामूहिक पर्व है। लोग इस पर्व के साथ आने वाली धान की फसल के ज्यादा से ज्यादा होने की कामना करते हैं और उसका जश्न मनाते हैं। इस जश्न के कई तरीके हैं। लोग नृत्य करते हैं, गाते हैं, खेलकूद का आयोजन होता है, युवा लड़के कुश्ती आदि के जरिये अपना दमखम दिखाते हैं और हां, इस मस्ती में युवा लड़के, लड़कियां अपने लिए योग्य वरों की भी तलाश करते हैं। जो युवा कुश्ती, तीरंदाजी और रस्साकशी जैसी प्रतियोगिताओं में अच्छा प्रदर्शन करता है, उसके लिए खूब सारी लड़कियों से शादी के आॅफर होते हैं। इस कारण युवक इस पर्व पर अपना दमखम दिखाने के लिए महीनों पहले से शुरुआत कर देते हैं ताकि ऐन मौके पर अपनी प्रेमिका को खुश कर सकें या अपने प्रदर्शन की बदौलत मनचाही प्रेमिका और दुल्हन पा सकें।

द्री उत्सव का सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व बहुत ज्यादा है। इसकी बदौलत अपातानी जनजाति के लोग अपनी लोकसंस्कृति का जीवित और जीवंत बनाये रखते हैं। इस पर्व के जरिये पूरा गांव एक सामाजिक तानेबाने का हिस्सा हो जाता है। इस तरह गांव में भरपूर सामाजिक एकता बनी रहती है, जिससे भाईचारा बढ़ता है। इस पर्व से युवा किसान खेती के महत्व को समझते हैं और कृषि करने के लिए प्रेरित होते हैं। इस पर्व में हिस्सेदारी करने के लिए देश-विदेश से हजारों पर्यटक अरुणाचल प्रदेश की जीरो वैली में आते हैं और उत्सव को देखते हैं। इस तरह यह पारंपरिक लोकपर्व आज प्रदेश की आय का भी एक महत्वपूर्ण जरिया बन गया है।

यह पर्व मूलतः अरुणाचल प्रदेश की जीरो घाटी या जीरो वैली तथा लोअर शुबनसिरी जिले के विभिन्न हिस्सों में मनाया जाता है। इस पर्व की जीवंतता और रंगीनियत को देखते हुए अब प्रदेश के बाहर भी कई राज्य मनाने लगे हैं, जहां अपातानी समुदाय रहते हैं। कुल मिलाकर द्री उत्सव उत्तर पूर्व भारत के लोकपर्वों में एक अहम स्थान रखता है और भोले-भाले उत्तर पूर्व के निवासियों की प्रकृति, फसल और प्रेम संबंधों की परंपरा की जीवंतता को दर्शाता है। साथ ही यह पर्व आस्था और कृषि ज्ञान का भी मेल है। इ.रि.सें.

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