जैसा कि राजग के संख्या गणित को देखकर निश्चित माना जा रहा था, द्रौपदी मुर्मू देश की पंद्रहवीं राष्ट्रपति बन गई हैं। वे जहां राष्ट्रपति बनने वाली पहली अदिवासी हैं, वहीं इस पद को सुशोभित करने वाली दूसरी महिला भी हैं। निस्संदेह, बदलते वक्त के साथ राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के चयन में राजनीतिक समीकरणों की बड़ी भूमिका रहने लगी है। एक समय था जब इस पद के लिये शिक्षा व अन्य मानवीकीय विषयों के मर्मज्ञों को प्रत्याशी बनाने की परंपरा रही है। बहरहाल, यह सुखद ही है कि सदियों से राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग-थलग रहे देश के दस करोड़ अादिवासी समुदाय को पहली बार प्रतिनिधित्व मिला है। मतगणना के तीसरे राउंड के बाद ही साफ हो गया था कि द्रौपदी मुर्मू देश की अगली राष्ट्रपति बनने जा रही हैं। भले ही विपक्ष के साझा उम्मीदवार यशवंत सिन्हा चुनाव हार गये हैं, लेकिन यह चुनाव उनकी योग्यता व क्षमता का नहीं, राजनीतिक समीकरणों का था। कभी भाजपा के थिंक टैंक में शामिल रहे यशवंत पार्टी की कारगुजारियों से क्षुब्ध होकर अलग हो गये थे। विपक्ष के लिये यह अच्छी बात थी कि कई नेताओं के प्रत्याशी बनने से इनकार करने के बाद यशवंत सिन्हा ने चुनाव लड़ने का मन बनाया। यह भी महत्वपूर्ण है कि उत्तर पूर्व में स्थित ओडिशा से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को चुना गया। अन्यथा पहले दक्षिण भारत को प्राथमिकता दी जाती रही है। यही वजह है कि ओडिशा की पटनायक सरकार ने खुलकर द्रौपदी मुर्मू का समर्थन किया। साथ ही कहा कि पहली बार ओडिशा की बेटी राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार है अत: राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठकर उनका समर्थन किया जाना चाहिए। देश के कई राज्यों में भी राजनीतिक मतभेदों से उभरकर मुर्मू को समर्थन दिया गया। खासकर आदिवासी बहुल राज्यों में। इसे लोकतंत्र में सुखद बदलाव के तौर पर देखा जाना चाहिए। वह भी तब जब देश के वंचित समुदाय को यह सम्मान दिया जा रहा हो।
यह भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती ही है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सर्वोच्च संवैधानिक पद पर एक आदिवासी समुदाय की महिला को चुना गया हो। विश्वास किया जाना चाहिए कि इस जीत का महज प्रतीकात्मक महत्व नहीं रहे। इस जीत के मायने हों कि देश की दलित, वंचित महिलाओं व आदिवासी समाज के जीवन में वास्तव में बड़ा बदलाव आये। बहरहाल, उम्मीद है कि जीवटता की धनी व संघर्षों से तपकर निकलीं मुर्मू अपने पद पर रहते हुए बदलाव की वाहक बनेंगी। निस्संदेह, द्रौपदी मुर्मू का जीवन संघर्ष की मिसाल ही रहा है। कौन सोच सकता है कि 1997 में पार्षद का चुनाव लड़ने वाली महिला ढाई दशक के बाद देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन होंगी। जो यह बताता है कि मेहनत, संकल्प व संघर्ष से देश का सर्वोच्च पद भी हासिल किया जा सकता है। झारखंड में राज्यपाल के रूप में उनके सफल पांच साल के कार्यकाल को भी याद किया जाता है। अब जब वे राष्ट्रपति के रूप में 25 जुलाई को पद व गोपनीयता की शपथ लेकर अपनी नई जिम्मेदारी संभालेंगी तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वे नई मिसाल पेश करेंगी। एक टीचर, क्लर्क, मंत्री, राज्यपाल पद की जिम्मेदारी के बाद राष्ट्रपति पद पर उनकी भूमिका से बड़ी उम्मीदें देश के वंचित समाज को हैं। खासकर उनके संथाल समाज में इस जीत को लेकर बड़ा उल्लास है, जिन्होंने उनकी जीत से पहले ही दीये जलाकर अपनी आकांक्षाएं जाहिर कर दी थीं। शांत-शालीन व्यवहार वाली द्रौपदी मुर्मू का व्यक्तिगत जीवन तमाम दुखांत से गुजरा है। पति व दो बेटों को खोने के बाद भी वह टूटी नहीं बल्कि और मजबूती से समाज में बदलाव के लिये सक्रिय रहीं। गरीबों, आदिवासियों व वंचित समाज को न्याय दिलाने के लिये पहल करती हैं। एक व्यक्ति के रूप में उनका संघर्ष हर भारतीय के लिये प्रेरणादायक है। निस्संदेह, देश के जनजातीय समुदाय को इस जीत से नया संबल मिलेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनकी जीत का यह उजाला देश के बेहद पिछड़े व दूरदराज के वन क्षेत्रों में रहने वालों के जीवन में नयी आशा का संचार करे।