जयपुर-अजमेर मार्ग पर स्थित एक गांव के एक घर में ब्याही तीन बहनों की आत्महत्या की घटना हृदयविदारक है। दुखद यह है कि एक नवजात समेत दो बच्चों के भी शव मिले हैं। तीन में से दो बहनें गर्भवती भी थीं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि बहनों ने ऐसा भयावह आत्मघाती कदम क्यों उठाया? निस्संदेह, घटनाक्रम से जुड़ी कई संदिग्ध परिस्थितियां सामने आई हैं, वास्तविकता का पता तो पुलिस की गहन जांच-पड़ताल से ही पता चलेगा, लेकिन प्रथम दृष्टया घटना को आत्महत्या ही बताया जा रहा है। बताया जा रहा है कि तीनों बहनें जीवट वाली थीं और बाल विवाह में बंधने के बावजूद उच्च शिक्षा तक हासिल की थी। एक बहन तो सरकारी नौकरी के लिये परीक्षा तक दे आयी थी। जबकि उनके पति मामूली पढ़े थे। दहेज के भी प्रसंग जुड़े हैं और मारपीट के भी। बताते हैं कि एक बहन ने सोशल मीडिया पर पोस्ट डालकर जीने के प्रति अरुचि दर्शायी थी। संभवत: यदि समय रहते समाज या परिवार की तरफ से बहनों की काउंसिलिंग होती तो शायद ये जानें बचायी भी जा सकती थीं। हो सकता है कि बहनों के मायके की माली हालत घर लौटने की इजाजत नहीं देती होगी। जो परिवार तीन नाबालिग बेटियों को एक ही दिन एक परिवार की चौखट से जोड़ दे, उसकी आर्थिक सीमाएं होंगी। बहुत संभव है कि बेटियां जीवन की दुश्वारियों का इसी वजह से प्रतिकार करने की स्थिति में न रही हों। बहरहाल, घटना बेहद दुखद है। यह भी विडंबना ही है कि कोई क्यों जीने के बजाय मौत को आसान रास्ता मान लेता है। निस्संदेह, पूरे देश व दुनिया में कोरोना संकट ने करोड़ों लोगों के रोजगार छीने, बहुत से लोगों ने अपनों को खोया और महंगाई ने उस त्रासदी को बढ़ाया है। पूरे देश में आत्महत्याओं का ग्राफ बढ़ा है। वैसे भी गरीबी सबसे बड़ा अभिशाप है जो तमाम तरह की विसंगतियों व सामाजिक विद्रूपताओं को जन्म देती है जो दुश्चक्र बनकर जीवन लीलता है। लेकिन घरेलू कलह के चलते आत्महत्याओं का अंतहीन सिलसिला बेहद कष्टकारी है।
यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या तीनों बहनें हालत से जूझते हुए इतनी कमजोर हो गई थीं कि बच्चों समेत कुएं में कूदना ठीक समझ लिया? क्या उन्हें जीवन में कहीं से रोशनी की किरण नजर नहीं आई? आज हमारा समाज इतना संवेदनहीन क्यों हो गया कि उसे आसपास की कराहें सुनाई नहीं देतीं? हम बेटियों को सपने तो दिखाते हैं लेकिन उनको उड़ने के लिये पंख नहीं देते। अशिक्षा व गरीबी सौ समस्याओं को जन्म देती हैं लेकिन पढ़ी-लिखी बेटियां यदि अनपढ़ व शराबी पति द्वारा प्रताड़ित होती हों, तो निस्संदेह उनका जीवन नारकीय हो जाता है। अब मृत बहनों के पतियों व ससुरालियों की गिरफ्तारी हुई है, लेकिन क्या इससे बेटियों को न्याय मिल पायेगा? बहरहाल, हालात जैसे भी हों बेटियों को शिक्षा व परामर्श से इतना मजबूत बनाया जाना चाहिए कि वे आवेश में जीवन न गवांंएं। उन्हें अहसास कराना चाहिए कि ससुराल में हालात कितने ही विकट क्यों न हों, जीवन की कई राहें फिर भी बचती हैं। मायके के रास्ते उनके लिये कम से कम सदा खुले होने चाहिए। उस दकियानूसी सोच का भी प्रतिकार होना चाहिए जो कहती है कि बेटी मायके में ही पड़ी रहती है। निश्चित रूप से जब कोई आत्मघाती कदम उठाता है तो मान लेता है कि बाहर निकलने के रास्ते खत्म हो चुके हैं। निस्संदेह, मुश्किलों से जूझती बेटियों के लिये कुछ रास्ते खुलने चाहिए। उन्हें जीवन रक्षा के उपायों व कानूनी संरक्षण की जानकारी होनी चाहिए। देश में घुटन में जी रही बेटियों के परामर्श के लिये ऑनलाइन हेल्पलाइन के विकल्प खुले रहें। सत्ताधीश ऐसे मामलों में भले ही संवेदनशीलता न दिखाएं, सामाजिक संगठनों को ऐसी बेटियों को बचाने के लिये नई पहल करनी चाहिए। साथ ही मां-बाप को भी बच्चियों को इस बात के लिये मानसिक रूप से तैयार करना चाहिए कि मुश्किल हालात में उसे क्या करना है। स्कूलों में किताबी पाठ्यक्रम के साथ ही बेटियों को व्यावहारिक जीवन का ज्ञान देना शिक्षिकाओं की भी जिम्मेदारी है।