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वक्त की आवाज़

विनय नरवाल की विधवा सद्भाव के पक्ष में
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ऐसे वक्त में जब पहलगाम हत्याकांड के बाद देश में गुस्से और आक्रोश का माहौल है, तब एक विवेक की आवाज का बुलंद होना सुखद ही है। पहलगाम के बैसरन मैदान में हुए आतंकी हमले में नौसेना अधिकारी लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की आतंकवादियों ने निर्मम हत्या कर दी थी। उनकी पत्नी हिमांशी नरवाल ने अपने जीवनभर सालने वाले दुख के बावजूद अपील की है कि इस आतंकी हमले के लिये जिम्मेदार अपराधियों के अलावा किसी को कोई सजा न मिले। विनय नरवाल के जन्मदिन पर आयोजित रक्तदान शिविर में उन्होंने कहा ‘ हम नहीं चाहते कि लोग अल्पसंख्यकों व कश्मीरियों को अपने आक्रोश का शिकार बनाएं।’ बाकायदा, उन्होंने इस मौके पर देश में शांति बनाये रखने और सांप्रदायिक सद्भाव कायम रखने की जोरदार अपील की। जो उस सोच के विपरीत है जो पहलगाम के बैसरन में हुए भयावह आतंकी हमले के बाद देश में उभारी जा रही है। दरअसल, हिमांशी ने उन उग्र सोच के लोगों को स्पष्ट संदेश देने का प्रयास किया, जो इस राष्ट्रीय त्रासदी का लाभ उठाकर सांप्रदायिक प्रतिशोध की सोच को बढ़ावा दे रहे हैं। उल्लेखनीय है कि आगरा में एक परेशान करने वाला मामला प्रकाश में आया, जहां एक बिरयानी विक्रेता की हत्या के बाद सोशल मीडिया पर प्रचारित किया गया कि यह पहलगाम त्रासदी का प्रतिशोध है। निस्संदेह, ऐसी संकीर्ण मानसिकता का राजनीतिक और धार्मिक नेताओं द्वारा विरोध न किया जाना, अक्षम्य ही कहा जाएगा। निश्चित रूप से ऐसी अप्रिय व परेशान करने वाली घटनाएं हमारे धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को ही नुकसान पहुंचाती हैं। खासकर उस ताने-बाने को, जो पहले से ही कमजोर पड़ रहा है। निर्विवाद रूप से कश्मीर के पहलगाम में हुई सांप्रदायिक हत्याओं के जरिये आतंकवादियों का मुख्य मकसद देश में हिंदू-मुस्लिमों के बीच तनाव पैदा करके देश की एकता को कमजोर करना था। ऐसे में यदि हम भी उसी सोच के साथ प्रतिक्रिया देने लगे तो कहीं न कहीं हम परोक्ष रूप से आतंकवादियों के मंसूबों को ही पूरा कर रहे होंगे।

यह निर्विवाद तथ्य है कि हमें इसी समाज में रहना है और बेहतर होगा कि हम तमाम संकीर्णताओं को त्यागकर और मिलजुलकर ही रहें। यदि हम आतंकवादियों की सोच का प्रतिकार उनके एजेंडे के अनुरूप करेंगे तो निश्चिय ही गंगा-जमुनी संस्कृति को नुकसान पहुंचेगा। आतंकवादियों का मंसूबा जम्मू-कश्मीर ही नहीं पूरे देश में शांति को भंग करना था। ऐसी किसी भी संकीर्ण सोच को सामूहिक संकल्प से ही नाकाम किया जा सकता है। इसी तरह की सार्थक व प्रेरक प्रतिक्रिया गुरमेहर कौर की तरफ से आई, जिनके पिता वर्ष 1999 में जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों से लड़ते हुए मारे गए थे। उन्होंने देशकाल-परिस्थितियों के अनुरूप प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि आतंकवाद की असली हार तब ही होती है जब हम हिंसा की प्रतिक्रिया में खुद को विभाजित करने से मना कर देते हैं। निस्संदेह, राष्ट्र के सर्वोत्तम हित में, नागरिकों को उन लोगों को दृढ़ता से दूर करना चाहिए, जो आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को उन तत्वों पर नकेल कसनी चाहिए, जो आतंकवादियों के जघन्य कृत्यों की कीमत निर्दोष लोगों से वसूलने पर तुले हुए हैं। निर्विवाद रूप से हमारी विवेकशील प्रतिक्रिया और एक अखंड भारत की सोच ही आतंकवाद पर करारी चोट कर सकती है। वक्त की मांग है कि हम सीमा पार से चलाए जा रहे विभाजनकारी अभियानों को एकजुटता से विफल कर दें। हमारी किसी भी प्रतिक्रिया से ऐसा संदेश नहीं जाना चाहिए कि हम भारत के विरोधियों के मंसूबों को ही सींच रहे हैं। निस्संदेह, पहलगाम का आतंकी हमला हमारे मर्म पर हमला था, लेकिन जिस तरह की आवाज कश्मीर से आतंक के खिलाफ उठी, वैसे ही बुलंद आवाज हमें संकीर्ण सोच वाले तत्वों के खिलाफ मजबूती से उठानी चाहिए। देश में शांति-सौहार्द के लिये जरूरी है कि हम हिमांशी नरवाल की बड़ी सोच को विस्तार दें। जिन्होंने सब कुछ गंवाने के बावजूद राष्ट्र के सांप्रदायिक सद्भाव व भाईचारे को तरजीह दी। यह समय की मांग भी है कि हम भारतीय संस्कृति की विश्व बंधुत्व की सोच को मजबूत करें।

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