संक्रमणकाल से गुजर रहे भारतीय समाज में पति-पत्नी के दरकते रिश्ते समाजविज्ञानियों के लिए चिंता का विषय हैं। आये दिन विभिन्न अदालतों में ऐसे मामलों से जुड़े विवाद मीडिया की सुर्खियां बनते रहते हैं। निस्संदेह, भारतीय समाज में पहले ऐसे मामले कम ही नजर आते थे और विवाह को सात जन्मों का बंधन कहा जाता रहा है। यहां तक कि हिंदू विमर्श में तलाक शब्द का कोई सटीक पर्यायवाची भी नहीं मिलता। लेकिन इधर रिश्तों में लगातार बढ़ता अविश्वास, अलगाव व विवाद वर्तमान समय की हकीकत है। बल्कि पिछले दिनों एक न्यायाधीश को यहां तक कहना पड़ा कि वैवाहिक विवादों के बोझ से न्यायिक प्रणाली पर अतिरिक्त दबाव बढ़ा है। इसी क्रम में पिछले दिनों पति-पत्नी के विवाद में गुप्त रूप से रिकॉर्ड की गई फोन कॉल को साक्ष्य मानने की बात सामने आई है। सुप्रीम कोर्ट ने वैवाहिक विवादों से जुड़े एक अहम फैसले में कहा है कि पति या पत्नी द्वारा गुप्त रूप से रिकॉर्ड की गई टेलीफोन बातचीत अब एक सबूत के तौर पर स्वीकार होगी। शीर्ष अदालत का कहना था कि इस तरह की रिकॉर्डिंग फैमिली कोर्ट में एक अहम सबूत के तौर पर स्वीकार की जा सकती है। दरअसल, इस बाबत पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा दिए गए एक फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के उस फैसले को ही रद्द कर दिया। दरअसल, पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट का इस बाबत मानना था कि किसी पक्ष की जानकारी के बिना उसकी बातचीत को रिकॉर्ड करना उसकी निजता का उल्लंघन होगा। उच्च न्यायालय का तर्क था कि इस रिकॉर्डिंग को फैमिली कोर्ट में साक्ष्य के तौर पर स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। उच्च न्यायालय का कहना था कि आमतौर पर पति-पत्नी सामान्य तौर पर या आवेश में खुलकर बात करते हैं। उन्हें इस बात का भान नहीं होता कि कहीं उनकी बात रिकॉर्ड हो रही है या उनकी बातचीत भविष्य में अदालत में साक्ष्य की तौर पर पेश की जा सकती है।
अपने तर्क के समर्थन में पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट ने कुछ न्यायिक फैसलों का भी जिक्र किया था। खासकर आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के एक फैसले का उल्लेख किया गया था, जिसमें कहा गया था कि पति-पत्नी की सहमति के बिना बातचीत को रिकॉर्ड करना निजता का उल्लंघन है। साथ ही गैर-कानूनी भी है। इस तरह के साक्ष्य को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। वहीं दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने उन दलीलों को अस्वीकार्य किया कि जिसमें कहा गया था कि इस तरह के साक्ष्य की अनुमति देने से घरेलू सौहार्द व वैवाहिक रिश्तों पर आंच आएगी। यह भी कि इससे समाज में पति-पत्नी की जासूसी की प्रवृत्ति को भी बढ़ावा मिलेगा। साथ ही साक्ष्य अधिनियम का भी अतिक्रमण होगा। शीर्ष अदालत की पीठ का इस बाबत कहना था कि अदालत में पहुंचे रिश्ते इस बात का पर्याय हैं कि दोनों के रिश्ते सहज व सामान्य नहीं हैं। जाहिरा तौर पर रिश्तों में अविश्वास के चलते ही वैवाहिक मामले कोर्ट तक पहुंचते हैं। उल्लेखनीय है कि बठिंडा की एक परिवार अदालत ने पत्नी की क्रूरता साबित करने वाली फोन रिकॉर्डिंग को साक्ष्य के तौर पर प्रयोग करने की अनुमति दी थी। जिसे पत्नी ने पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट में चुनौती दी। उसकी दलील थी कि यह रिकॉर्डिंग उसके संज्ञान में लाए बिना की गई थी। जिससे उसके निजता के मूल अधिकार का हनन होता है। जिस पर उच्च न्यायालय ने याचिका को स्वीकार किया, साथ ही फैमिली कोर्ट के आदेश को निरस्त कर दिया था। हाईकोर्ट का कहना था कि बातचीत एक पक्ष ने गोपनीय ढंग से रिकॉर्ड की है, अत: इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह भी कहा कि तय करना कठिन है कि ये बातचीत किन परिस्थितियों व भावनात्मक आवेश के चलते हुई थी। ऐसे में आरोपों की तार्किकता सिद्ध करना कठिन है। साथ ही बहुत संभव है कि रिकॉर्ड करने वाले पक्ष ने सतर्क होकर प्रतिक्रिया दी हो। ऐसे में उसकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक नहीं हो सकती।