Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

तेल का खेल

भारत पश्चिम के दबाव का विरोध करे
  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

रूस-यूक्रेन युद्ध को रोकने के दावों में नाकाम रहने के बाद ट्रंप प्रशासन अपनी खिसियाट उन देशों पर दबाव बनाकर निकाल रहा है, जो रूस से कच्चा तेल खरीद रहे हैं। जिनमें भारत के साथ चीन व ब्राजील भी शामिल हैं। इसके लिये अमेरिका नाटो के दुरुपयोग से भी नहीं चूक रहा है। आखिर शेष विश्व के देशों के व्यापारिक मामलों में नाटो की दखल का क्या औचित्य है? नाटो महासचिव मार्क रूट्टे की रूसी तेल आयात संबंधी धमकी पर भारत द्वारा करारा जवाब दिया गया है। लेकिन इस घटनाक्रम ने एक बार फिर वैश्विक ऊर्जा सुरक्षा पर पश्चिमी देशों के दोमुंहेपन को ही बेनकाब किया है। दरअसल, अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान, रूट्टे ने भारत, चीन और ब्राजील को चेतावनी दी है कि वे रूस पर यूक्रेन युद्ध को समाप्त करने के लिये दबाव बनाएं, अन्यथा दंडात्मक व्यापार शुल्क का सामना करने के लिये तैयार रहें। निश्चित रूप से रूट्टे की यह टिप्पणी अमेरिका के रूसी प्रतिबंध अधिनियम, 2025 की दिशा में बढ़ते समर्थन के साथ मेल खाती है। यह एक विधेयक है, जिसे राष्ट्रपति ट्रंप और 171 सांसदों का समर्थन प्राप्त है। यह वही विधेयक है, जो रूस के तेल, गैस, यूरेनियम या पेट्रोकेमिकल्स का व्यापार करने वाले देशों पर पांच सौ फीसदी तक शुल्क लगाने का प्रस्ताव पेश करता है। उल्लेखनीय है कि भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिये पूरी तरह से आयातित तेल पर निर्भर करता है। देश अपने कच्चे तेल का 88 फीसदी आयात करता है। जिसके चलते ही भारत ने पश्चिमी देशों के दोहरे मापदंड के प्रति ही आगाह किया है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने सीनेटर लिंडसे ग्राहम को नई दिल्ली की चिंताओं से अवगत कराया है। साथ ही भारत की वैध ऊर्जा आवश्यकताओं और अपनी आर्थिक दिशा स्वयं निर्धारित करने के संप्रभु अधिकार पर जोर दिया है। निश्चित रूप से दुनिया के तटस्थ और विकासशील देशों को पश्चिमी देशों की दादागीरी का पुरजोर विरोध करना चाहिए।

उल्लेखनीय है कि फरवरी में रूसी तेल आयात में 14.5 फीसदी की गिरावट आने के बावजूद, मास्को भारत का शीर्ष तेल आपूर्तिकर्ता बना हुआ है। जिसने मुश्किल वक्त में अन्य देशों के पीछे हटने पर भी भारत को रियायती दर पर कच्चा तेल देने की पेशकश की थी। भारत द्वारा पश्चिमी देशों के दोहरे मापदंड अपनाने के विरोध करने का तार्किक आधार है। हकीकत यह है कि यूरोपीय देश अन्य देशों और अपरोक्ष माध्यमों से रूसी कच्चे तेल का आयात जारी रखे हुए हैं। लेकिन चाहते हैं कि ग्लोबल साउथ के देशों पर ऐसा करने पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए जाएं। भारत तथा तुर्की में परिष्कृत रूसी तेल को यूरोपीय संघ को फिर से निर्यात किया जाना पश्चिमी देशों के खोखलेपन को ही उजागर करता है। भारत ने इस दोगली नीति के प्रति अपना मुखर विरोध दिल्ली यात्रा के दौरान नाटो महासचिव के सामने जता दिया था। भारत का स्पष्ट कहना है कि उसके निर्णय अपने राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर लिए जाएंगे। जिसको लेकर वह किसी तरह का बाहरी दबाव स्वीकार नहीं करेगा। इस दिशा में रूस-भारत-चीन वार्ता को फिर से शुरू करने की भारत की पहल बदलते रणनीतिक संतुलन की ओर संकेत करती है। जो वैश्विक व्यवस्था में पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती देता है। निश्चित रूप से यदि ऊर्जा सुरक्षा यूरोप के लिये अपरिहार्य है तो भारत जैसे विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिये भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। लेकिन अपने मंसूबों में विफल होने के बाद पश्चिमी देश चाहते हैं कि यूक्रेन युद्ध बंद करने के लिये रूस पर दबाव बनाने हेतु दुनिया के अन्य देश उसकी हां में हां मिलाएं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2022 में भी रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने पर अमेरिका ने रूस से भारत के तेल खरीदने को लेकर प्रश्न उठाये थे। तब भी भारत ने उसे अहसास कराया था कि हम अपने आर्थिक प्राथमिकताओं के मद्देनजर ही अपने फैसले लेंगे। जाहिर है वैश्विक व्यवस्था में कोई भी देश उसी जगह से अपनी आवश्यकता की चीजें खरीदता है, जहां उसे वे सस्ती मिलती हैं। फिर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रूस हमारा सदाबहार मित्र रहा है।

Advertisement

Advertisement
×