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इंसान जैसी हत्या

कोर्ट बोला, पेड़ों से निर्ममता स्वीकार्य नहीं
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देश में लगातार जारी पेड़ों की अवैध कटाई के खिलाफ सख्त रवैया अख्तियार करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा है कि एक पेड़ का कटना इंसान की हत्या से भी बदतर है। कोर्ट ने आरोपी व्यक्ति को नये पौधे लगाने की अनुमति तो दी, लेकिन काटे गए 454 पेड़ों के बदले प्रति पेड़ एक लाख रुपये के हिसाब से लगाया जुर्माना कम करने से इनकार कर दिया। ऐसा कोर्ट ने अभियुक्त के गलती स्वीकारने और माफी मांगने के बावजूद किया। इसके जरिये कोर्ट ने साफ संदेश दिया कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वालों को कोई रियायत नहीं दी जाएगी। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस उज्जल भुइयां की पीठ ने स्पष्ट संदेश दिया कि संबंधित प्राधिकारी की आज्ञा के बिना पेड़ काटने वालों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई की जानी चाहिए। उल्लेखनीय है कि ताजमहल व अन्य पुरातात्विक इमारतों के संरक्षण के लिये बनाये गए ताज ट्रेपोजियम क्षेत्र में 454 पेड़ कटवा दिए गए थे। दरअसल, कोर्ट ने इस मामले में एमिकस क्यूरी के रूप में सहयोग कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता एडीएन राव के इस सुझाव पर सहमति जतायी कि कोई कानून और पेड़ों को हल्के में न ले। वहीं जुर्माना लगाने के बाबत भी कोर्ट ने मानक तय किया कि इसमें किसी तरह रियायत नहीं दी जाएगी। कोर्ट ने इस बात को लेकर भी चिंता जतायी कि जो पेड़ काटे गए हैं, उसकी जगह नये पेड़ लगाने के बावजूद इसकी क्षतिपूर्ति में सौ साल लग जाएंगे।

उल्लेखनीय है कि पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील संरक्षित ताज ट्रेपोजियम क्षेत्र में अदालत ने पेड़ काटने पर वर्ष 2015 से ही प्रतिबंध लगा रखा था। इसके बावजूद अदालत की अनुमति के बिना सैकड़ों पेड़ काट डाले गए। जिसके बाद न्यायालय ने केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति यानी सीईसी की वह रिपोर्ट स्वीकार कर ली कि बीते वर्ष 454 पेड़ काटने वाले व्यक्ति पर प्रति पेड़ के हिसाब से एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया जाए। कोर्ट ने अभियुक्त की तरफ से पेश वकील वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी की वह दलील ठुकरा दी कि अभियुक्त ने गलती मानते हुए माफी मांग ली है, तो उसे जुर्माना कम करके राहत दी जाए। हालांकि कोर्ट ने पास के किसी स्थान पर पौधरोपण करने की अनुमति जरूर प्रदान कर दी है। ऐसे वक्त में जब पूरी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग के चलते तापमान में निरंतर वृद्धि जारी है, वृक्षों का होना प्राणवायु का जरिया ही है। जो हमें शहरों के कंक्रीट के जंगल से उत्पन्न खतरों से बचाते हैं। खासकर पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण इलाकों में उनकी दोहरी भूमिका है। ऐसे में नीति-नियंताओं को सोचना होगा कि कैसे किसी व्यक्ति को संवेदनशील इलाके में पेड़ काटने की अनुमति दी गई। निरंतर बढ़ते तापमान के दौर में वृक्षों के प्रति संवेदनशीलता शासन-प्रशासन के साथ समाज में भी होनी चाहिए। उत्तराखंड में चिपको आंदोलन और राजस्थान में खेजड़ी वृक्षों को बचाने के लिये लोगों के त्याग व संघर्ष को हमें याद रखना चाहिए। जनता का कड़ा प्रतिरोध भी वृक्षों की रक्षा करने में निर्णायक भूमिका निभा सकता है।

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