खुद नस्लवाद और असहिष्णुता से घिरे अमेरिका ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के विविधता भरे भारतीय समाज में धार्मिक सहिष्णुता को लेकर सवाल खड़े किये हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर विदेश विभाग की एक रिपोर्ट जारी करते हुए धार्मिक स्वतंत्रता और धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति पर सवाल खड़े किये हैं। जबकि खुद अमेरिका अपने देश में अश्वेतों व लातिनी अमेरिकी मूल के लोगों के साथ होने वाले अन्याय को लेकर हमेशा खामोश रहता है। दि वाशिंगटन पोस्ट द्वारा 2015 के बाद से सावधानीपूर्वक तैयार किये गये आंकड़ों के अनुसार हर साल करीब एक हजार लोग अमेरिकी पुलिस की गोली का शिकार होते हैं, जिनमें पचास फीसदी लोग अश्वेत होते हैं। यह संख्या अमेरिका में रहने वाले अश्वेतों की जनसंख्या के अनुपात में कहीं ज्यादा है। उल्लेखनीय है कि अमेरिका की जनसंख्या में अश्वेतों का प्रतिशत महज 13 फीसदी से कम है, लेकिन पुलिस द्वारा मारे जाने वाले अश्वेतों की संख्या श्वेतों के मुकाबले दुगनी से अधिक है। इसी तरह लातिनी अमेरिकी मूल के लोगों की मौत भी उनकी जनसंख्या के अनुपात से कहीं अधिक है। निस्संदेह, पुलिस के हाथों मारे जाने वाले अश्वेतों व लातिनी अमेरिकी मूल के लोगों की अधिक मृत्यु अमेरिका में जटिल सामाजिक व आर्थिक कारणों की ओर इशारा करती है। जाहिरा तौर पर इसके मूल में नस्लवाद एक बड़ा कारण माना जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि अमेरिका में सामान्य आबादी की तुलना में काले लोगों को बंदूक से मारने की संभावना चार गुना अधिक है और एक गोरे व्यक्ति की तुलना में 12 गुना अधिक आशंका है। ऐसी परिस्थितियों में अमेरिका जैसे देश को कोई नैतिक अधिकार नहीं है कि वह किसी दूसरे देश को सहिष्णुता व धार्मिक-सामाजिक आजादी पर नसीहत दे सके। अपने कूटनीतिक व सामरिक हितों की पूर्ति के लिये नागरिक अधिकारों को ताक में रखने वाले अमेरिका की वैश्विक शांति में खलल में भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
निस्संदेह, जिस व्यक्ति का अपना घर ठीक न हो, उसे किसी दूसरे के घर पर सवाल उठाने का कोई अधिकार नहीं हो सकता। घर में असमानता के अलावा दुनिया के लोकतांत्रिक समाजों को मुश्किल में डालने के अमेरिकी रिकॉर्ड से दुनिया वाकिफ है। ऐसे में खुद को नैतिकता के प्रकाश स्तंभ के रूप में दर्शाने का अमेरिका को कोई अधिकार नहीं है। निस्संदेह भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। इसी तरह आस्थाओं की विविधता का देश भी है। वे धार्मिक सभ्यताएं जो पूरी दुनिया से मिट चुकी हैं, लेकिन भारत में खूब फली-फूली हैं। निस्संदेह, हाल के दिनों में धार्मिक असहिष्णुता के वाकये प्रकाश में आये हैं, जिसके राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। बेशक, कोई भी सभ्य समाज धार्मिक कट्टरता का कतई समर्थन नहीं कर सकता। स्वस्थ आलोचना का स्वागत किया जाना चाहिए जो सही मायनों में मार्गदर्शक हो। लेकिन खुद ही दुनिया की पुलिस बनकर लोकतांत्रिक देशों को हांकने की किसी कवायद को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। विगत में भी अमेरिका दुनिया की लोकतांत्रिक सरकारों पर इस तरह के दबाव बनाकर अपने मंसूबों को पूरा करने का प्रयास करता रहा है। यह जानते हुए भी कि खुद अमेरिका में सामाजिक व धार्मिक असहिष्णुता का दागदार रिकॉर्ड रहा है। निस्संदेह, भारतीय समाज में कई तरह की जटिलताएं हैं, जो औपनिवेशिक शासन की साजिशों की भी देन रही हैं। उसके मूल में ऐतिहासिक कारण भी रहे हैं, जिसके चलते हिंसा की घटनाओं को प्रश्रय मिला है। इस समस्या को जटिल बनाने में हमारे कुछ पड़ोसी देशों की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। निस्संदेह किसी भी सभ्य व लोकतांत्रिक समाज में धार्मिक सहिष्णुता व समतामूलक व्यवहार अपरिहार्य ही है। अमेरिका को उन देशों के बारे में कुछ कहना चाहिए जो अपने देशों में लोकतांत्रिक अधिकारों व धार्मिक आजादी का दमन करते हैं, लेकिन उसके खेमे में होने के कारण वह लगातार खामोश रहता है। निश्चित रूप से एक दुनिया को लेकर दो मापदंड नहीं हो सकते।