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अनुचित और अमर्यादित

बेलगाम बयानबाजी पर अंकुश लगाए भाजपा
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कुछ समय पहले तक उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की सुप्रीम कोर्ट को लेकर की गई टिप्पणियों की चर्चा होती रही है। कहा गया कि इससे न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव सार्वजनिक हुआ है। चर्चा रही कि इससे जनमानस में अविश्वास व भ्रम की स्थिति बनती है। अब इस टिप्पणी से उत्साहित होकर भाजपा के दो सांसदों ने लोकतंत्र के इस महत्वपूर्ण स्तंभ पर अमर्यादित ढंग से निशाना साधा है। उस महत्वपूर्ण स्तंभ पर जिसका कार्य संविधान की गरिमा बनाना और न्याय सुनिश्चित करना है। दरअसल, विधानसभाओं में विधेयकों को मंजूरी देने के लिये समय सीमा तय करने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए उत्तर प्रदेश के पूर्व उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा ने कहा कि ‘कोई भी राष्ट्रपति को चुनौती नहीं दे सकता, क्योंकि राष्ट्रपति सर्वोच्च हैं।’ वहीं दूसरी ओर लोकसभा में झारखंड के गोड्डा निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले सांसद निशिकांत दुबे ने भी चिंताजनक ढंग से तीखा हमला किया है। उन्होंने कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट कानून बनाने का काम अपने हाथ में ले ले तो संसद और राज्य विधानसभाओं को बंद कर देना चाहिए। यहां तक कि उन्होंने देश के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को भी नहीं बख्शा और उन्हें देश को गृह युद्ध की ओर धकेलने वाला बताया। इतना ही नहीं, कुछ समय उपरांत उन्होंने अपने बयान को और हल्का करते हुए कहा कि एक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ‘मुस्लिम आयुक्त’ की भूमिका में रहे हैं। बहुत संभव है कि दोनों भाजपा नेताओं ने पार्टी में अपना कद बढ़ाने के मकसद से ऐसे बयान दिए होंगे। यह भी कि उन्होंने पार्टी के प्रति अपनी निष्ठा को बड़ा करके दिखाने का ही प्रयास किया। उन्हें लगता है कि शायद पार्टी उन्हें उनकी वफादारी के लिये पुरस्कृत करेगी। लेकिन भगवा पार्टी ने उन्हें सिर्फ फटकार ही लगाई है। वहीं दूसरी ओर पार्टी ने खुद को उनकी व्यक्तिगत टिप्पणियों से अलग रखने की बात कही है।

निस्संदेह भाजपा को लोकतंत्र के अभिन्न अंग के रूप में न्यायपालिका के प्रति अपने सम्मान की भी पुष्टि करनी चाहिए। वहीं दूसरी ओर विपक्ष का कहना है कि जब तक दोनों भाजपा नेताओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं की जाती है, तब तक भाजपा का यह दावा अविश्वसनीय ही बना रहेगा। पहले भी भाजपा के शीर्ष नेताओं ने तब भी उस बयानबाजी को प्रश्रय नहीं दिया, जब आक्रामक बयानबाजी करने वाली सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने अनर्गल बयानबाजी की थी। उल्लेखनीय है कि प्रज्ञा ने महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त कहकर हंगामा कर दिया था। तब भी पार्टी ने बस इतना किया था कि उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया था और संसदीय पैनल से हटा दिया था। तब उन्होंने दो बार लोकसभा में माफी भी मांगी थी। कालांतर समय के साथ मामला शांत हो गया था। जैसा कि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार को उम्मीद भी थी। लेकिन इस बार भी यदि ऐसा ही नतीजा सामने आता है तो यह उचित नहीं कहा जा सकता। यह देखते हुए कि दुबे और शर्मा ने मर्यादा की एक सीमा रेखा को पार किया है ,यह स्पष्ट रूप से न्यायालय और संविधान की अवमानना के दायरे में है। जिसके लिये उन्हें क्षमा नहीं किया जाना चाहिए। दरअसल, ऐसे अप्रिय विवादों से जनता में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव का नकारात्मक संदेश जाता है। जिससे अनावश्यक संवैधानिक संकट की स्थिति भी बन सकती है। जनता में लोकतंत्र के आधारभूत स्तंभों को लेकर अविश्वास का भाव पैदा नहीं होना देना चाहिए। दरअसल, ऐसे अनावश्यक विवादों से किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती। बल्कि तल्ख बयानबाजी से बेकार की बहस बढ़ने की आशंका ही बलवती होती है। खासकर संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को तो ऐसी बयानबाजी से परहेज करना ही चाहिए। दरअसल, संविधान ने न्यायपालिका को कुछ ऐसे अधिकार दिए हैं कि जब पूर्ण न्याय के लिये कोई अन्य रास्ता नहीं बचता, तब वह विशिष्ट अनुच्छेदों से मिली शक्तियों का प्रयोग कर सकती है। दूसरे शब्दों में इसे उम्मीद के एक दरवाजे के रूप में ही देखा जाना चाहिए।

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