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निरंकुश नहीं आजादी

संयमित न हुई अभिव्यक्ति तो अंकुश
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कथित सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर एंटी सोशल अभिव्यक्ति के चलते उपजी विभाजनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश की जरूरत बताते हुए देश की शीर्ष अदालत ने आत्म-नियमन की जरूरत बतायी है। दरअसल, जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की पीठ, एक व्यक्ति द्वारा दायर याचिका पर विचार कर रही थी, जिस पर धर्म विशेष के देवी-देवताओं के खिलाफ आपत्तिजनक पोस्ट के चलते कई राज्यों में प्राथमिकी दर्ज की गई थी। अदालत का कहना था कि नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का मूल्य समझना चाहिए। साथ ही इस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए आत्म-संयम बरतना चाहिए। कोर्ट ने चेताया है कि यदि सोशल मीडिया पर विभाजनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश नहीं लगता तो सरकार को हस्तक्षेप करने का मौका मिलता है। जो एक अच्छी स्थिति नहीं होगी। निस्संदेह, समाज में विद्वेष व नफरत फैलाने वाले संदेश समरसता के भारतीय परिवेश के लिये गंभीर चुनौती बने हुए हैं। यही वजह है कि कोर्ट को कहना पड़ा कि वह नियमन के लिये दिशा-निर्देश जारी करने पर विचार कर रही है। दरअसल, अदालत का मानना था कि संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत मिली आजादी असीमित कदापि नहीं है। यदि उससे सामाजिक समरसता में खलल पड़ता है तो सरकार को दखल देने का मौका मिलता है। जो कि एक लोकतांत्रिक देश के लिये अच्छा संकेत नहीं है। कोई नहीं चाहता कि उसकी अभिव्यक्ति की आजादी को सरकार नियंत्रित करे। सही मायनों में लोगों को समझना चाहिए कि देश की एकता व अखंडता बनाये रखना मौलिक कर्तव्य ही है। अदालत ने इस बाबत सवाल भी किया कि नागरिक स्वयं को संयमित क्यों नहीं कर सकते? कोर्ट का मानना था कि लोग तभी अभिव्यक्ति की आजादी का आनन्द ले सकते हैं जब यह संयमित ढंग से व्यक्त की जाए। शीर्ष अदालत की पीठ का मानना था कि नागरिकों के बीच भाईचारा होना चाहिए, तभी समाज में नफरत से मुकाबला किया जा सकता है। तभी हम गंगा-जमुनी संस्कृति के समाज का निर्माण कर सकते हैं।

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वैसे कई राज्यों में स्वतंत्र अभिव्यक्ति के नियमन को लेकर सरकारी कार्रवाई को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। कई जगह विचारों की अभिव्यक्ति व कार्टून आदि बनाने को राजनीतिक दुराग्रह बताते हुए लोगों को गिरफ्तार तक किया गया है। जिसे सत्ताधीशों द्वारा बदले की भावना से की कार्रवाई बताया जाता रहा है। आरोप लगाया जाता रहा है कि सत्तारूढ़ दल की विचारधारा के अनुरूप अमर्यादित अभिव्यक्ति पर कोई एक्शन नहीं लिया जाता। लेकिन दूसरे राज्य में अन्य राजनीतिक दल की सरकार में यही अभिव्यक्ति अपराध बन जाती है। कहा जाता रहा है कि अभिव्यक्ति की आजादी द्वारा किसी मर्यादा को भंग करना घटिया या आपत्तिजनक तो हो सकता है लेकिन इसे अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए। इसे कानून के आलोक में देखा जाना चाहिए। यह निर्विवाद सत्य है कि विभिन्न राजनीतिक दलों व संगठनों द्वारा सोशल मीडिया मंच का जमकर दुरुपयोग किया जाता रहा है। वहीं लोगों का कसूर यह है कि दल विशेष के एजेंडे वाली सामग्री को वे बिना पढ़े, दूसरे लोगों व समूहों में शेयर कर देते हैं। दरअसल,आम नागरिकों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि सोशल मीडिया पर उनका संयमित व्यवहार कैसा होना चाहिए। बहुत से लोगों को यह पता नहीं होता है कि सोशल मीडिया पर शेयर की जा रही सामग्री की कितनी संवेदनशीलता है। कई लोग जाने-अनजाने में ऐसी सामग्री दूसरे व्यक्तियों व समूहों में शेयर कर देते हैं जो समाज विरोधी हो सकती है। दरअसल, वे उसकी मूल सामग्री को बनाने वाले के छिपे एजेंडे को नहीं भांप पाते। कभी-कभी भावावेश में लोग ऐसे कदम उठा देते हैं। निस्संदेह, कोई भी व्यक्ति भावनात्मक दुर्बलताओं से मुक्त नहीं होता, लेकिन फिर भी उसे शेयर की जा रही सामग्री की तार्किकता पर मंथन जरूर करना चाहिए। दरअसल, सोशल मीडिया आज एक ऐसा अस्त्र बन गया है जो जरा सी चूक से घातक साबित हो सकता है। वास्तव में हर नागरिक को इतना सचेत व जागरूक होना जरूरी है कि वह विभिन्न स्रोतों से आने वाली सामग्री से जुड़ी मंशा को समझ सके। निस्संदेह, संयमित, तार्किक व सतर्क प्रतिक्रिया से हम अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का आनन्द ले सकते हैं।

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