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जानलेवा वायु प्रदूषण

बिना धूम्रपान के भी बढ़ा फेफड़ों का कैंसर
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देश की लगातार खराब होती आबोहवा के बावजूद वायु प्रदूषण व्यापक राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा न बन पाना दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। विडंबना यह है कि जन स्वास्थ्य से जुड़ा यह मुद्दा न तो चुनावी घोषणा पत्रों में नजर आता है और न ही नीति-नियंता ही इस विषय पर संवेदनशील नजर आते हैं। नागरिकों के स्तर पर भी हम वह जागरूकता नहीं ला पाए हैं, जिससे वे जनप्रतिनिधियों को वायु प्रदूषण रोकने के लिये कारगर नीति बनाने के लिये बाध्य कर सकें। हाल ही में सामने आए एक शोध का वह निष्कर्ष चौंकाने वाला है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में धूम्रपान न करने वाले लोगों में भी फेफड़े के कैंसर के मामलों में खासी तेजी आई है। एक नया अध्ययन बताता है कि इस संकट की मूल वजह वायु प्रदूषण ही है। हाल ही में ‘लैंसेट रेस्पिरेटरी मेडिसिन जर्नल’ में प्रकाशित अध्ययन में खुलासा किया गया है कि साल 2022 में पच्चीस लाख लोगों में इस बीमारी का पता चला था। हालांकि, इस कैंसर का शिकार होने वालों में ज्यादा संख्या पुरुषों की थी लेकिन महिलाओं की संख्या में भी अप्रत्याशित वृद्धि देखी गई। वहीं दूसरी ओर विश्व स्वास्थ्य संगठन की अंतर्राष्ट्रीय कैंसर अनुसंधान एजेंसी यानी आईएआरसी समेत कई अन्य संगठनों के शोधकर्ताओं ने डेटा विश्लेषण के बाद निष्कर्ष दिया कि एडेनोकार्सिनोमा पुरुषों और महिलाओं में कैंसर का एक मुख्य कारक बनता जा रहा है। यानी ऐसा कैंसर जो बलगम और पाचन में मदद करने वाले तरल पदार्थ उत्पन्न करने वाली ग्रंथियों से शुरू होता है। वर्ष 2022 में दुनिया भर में कभी धूम्रपान न करने वाले लोगों के फेफड़ों के कैंसर के 53 से 70 फीसदी मामले इसी कारक की वजह से सामने आए हैं। यह विडंबना ही है कि जहां एक ओर दुनिया में धूम्रपान का प्रचलन कम होता जा रहा है, लेकिन उसके बावजूद धूम्रपान न करने वालों के फेफड़ों में कैंसर का अनुपात बढ़ रहा है। जो कैंसर से संबंधित मृत्यु का पांचवां प्रमुख कारण माना जाता है।

निश्चित रूप से दुनिया भर में व्याप्त वायु प्रदूषण के संकट से निबटने के लिये सामूहिक प्रयास व सत्ताधीशों की सक्रियता नजर नहीं आती। स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर की साल 2024 में आई एक रिपोर्ट में पूरी दुनिया में 81 लाख लोगों के वायु प्रदूषण से मरने का आंकड़ा सामने आया था। रिपोर्ट में दावा किया गया था कि अकेले भारत में इक्कीस लाख मौतें वायु प्रदूषण जनित विभिन्न बीमारियों से होने की आशंका है। देश की राजधानी दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र समेत विभिन्न बड़े शहरों में वायु प्रदूषण के चिंताजनक आंकड़े अकसर सामने आते रहते हैं। यहां तक कि कई बार देश की शीर्ष अदालत दिल्ली को गैस चेंबर बनाने का आक्षेप लगाती रही है। लेकिन जब वायु प्रदूषण की स्थिति बेहद गंभीर हो जाती है तो विभिन्न ग्रैप मानकों के अंतर्गत कार्रवाई फौरी तौर पर की जाती है। इसके बावजूद सूक्ष्म कणों यानी पीएम 2.5 का स्तर लगातार बढ़ता ही रहता है। सत्ताधीश इसके लिये पराली जलाने वाले किसानों को जिम्मेदार बताकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। हाल में आए एक अध्ययन में बताया गया है कि अक्तूबर-नवंबर में दिल्ली व एनसीआर में होने वाला ज्यादातर प्रदूषण काफी हद तक स्थानीय कारणों से उत्पन्न होता है। आकाश परियोजना के तहत जापान के एक शोध संस्थान द्वारा कराया गया एक अध्ययन शोध पत्रिका ‘एनपीजे क्लाइमेट एंड एटमॉस्फेरिक साइंस’ में प्रकाशित हुआ है। जिसमें वर्ष 2022 और 2023 के सितंबर से नवंबर महीनों के दौरान दर्ज किए गए अति सूक्ष्म कणों के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है। जिसके अंतर्गत पंजाब, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर में तीस सेंसर लगाए गए थे। अध्ययन बताता है कि सूक्ष्म कणों यानी पीएम-2.5 के समग्र स्तर में केवल 14 फीसदी योगदान पराली जलाने के मामलों का था। हालांकि, अध्ययन ने माना कि वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने वाले ग्रैप की प्रभावशीलता नजर आई है। निश्चित रूप से स्वच्छ वायु के लिए सामाजिक परिवर्तनों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। साथ ही स्थानीय प्रदूषण के कारणों की सख्त निगरानी की भी जरूरत है।

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