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निर्ममता और नादानी

किशोरों के भटकाव की गंभीर चुनौती
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चित्रांकन : संदीप जोशी
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कैथल जनपद के गांव धनौरी में दो किशोरों की निर्मम हत्या की हृदयविदारक घटना उद्वेलित करने वाली है। चौदह-पंद्रह साल के दो किशोरों की गला रेतकर हत्या कर देना और वह भी उनके हमउम्र साथियों द्वारा, हर संवेदनशील इंसान को हिला देने वाली घटना है। जाहिर है दसवीं-ग्यारहवीं के छात्रों की क्रूर हत्या हमारे समाज में बढ़ती आक्रामकता और संवेदनहीनता को भी दर्शाती है। बताते हैं हत्या में शामिल युवक गांव के ही थे और कुछ दिन पहले किशोरों को धमकाने उनके घर आए थे। इस बाबत प्रकाशित खबरों के अनुसार मारे गए किशोरों पर हत्या आरोपियों ने आरोप लगाया था कि वे उनकी बहनों से छेड़खानी करते थे। निश्चय ही ऐसे छेड़खानी के कथित आरोप को नैतिक दृष्टि से अनुचित ही कहा जाएगा, लेकिन उसका बदला हत्या कदापि नहीं हो सकती। यह हृदयविदारक है कि एक मृतक किशोर अरमान पांच बहनों का अकेला भाई था। घटना से उपजी त्रासदी से अरमान के परिवार पर हुए वज्रपात को सहज महसूस किया जा सकता है। उनके लिये जीवनभर न भुलाया जा सकने वाला दुख पैदा हुआ है। बहरहाल, किसी परिवार की उम्मीदों का यूं कत्ल होना मर्मांतक ही है। लेकिन सवाल ये है कि चौदह-पंद्रह साल के किशोरों पर यूं किन्हीं लड़कियों को छेड़ने के आरोप क्यों लग रहे हैं? पढ़ने-लिखने की उम्र में ये सोच कहां से आ रही है? क्यों हमारी परिवार संस्था बच्चों को ऐसे संस्कार नहीं दे पा रही है ताकि वे किसी की बेटी व बहन को यूं परेशान न करें? उन्हें क्यों लगता है कि किसी लड़की को छेड़ा जाना चाहिए? क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था में नैतिक शिक्षा का वह पक्ष तिरोहित हो चला है, जो उन्हें ऐसा करने से रोकता है? क्या शिक्षक छात्रों को सदाचारी व नैतिक मूल्यों का जीवन जीने की प्रेरणा देने में विफल हो रहे हैं? हत्या की घटना हत्यारों की मानसिकता पर भी सवाल उठाती है कि उन्होंने क्यों सोच लिया कि छेड़खानी का बदला क्रूर ढंग से गला काटना हो सकता है?

दरअसल, दशकों तक बॉलीवुड की हिंदी फिल्मों ने समाज में जिस अपसंस्कृति का प्रसार किया, आज हमारा समाज उसकी त्रासदी झेल रहा है। आम तौर पर फिल्मों में हीरो हिरोइन से छेड़खानी करता और उसे परेशान करता नजर आता था। बाद में फिल्म की पटकथा में नायिका उसी हीरो के आगे समर्पण करती नजर आती थी। फिर फिल्म की पटकथा इस छेड़खानी को प्रेम कथा और विवाह में तब्दील कर देती है। कालांतर समाज के किशोरवय और युवाओं में यह संदेश गया कि निजी जीवन में यही छेड़खानी उनकी प्रेम कहानी में तब्दील हो सकती है। फिर बची-खुची कसर हमारे टीवी धारावाहिकों की संवेदनहीन व क्रूर-कथाओं ने पूरी कर दी। बॉक्स आफिस की सफलता और टीआरपी के खेल ने मनोरंजक कार्यक्रमों में ऐसी नकारात्मकता भर दी कि समाज में इसे न्यू नॉर्मल मानने की सोच पैदा हुई। कहीं न कहीं पारिवारिक संस्था व शिक्षा व्यवस्था इस सोच को खारिज करने में चूकी है। इंटरनेट के विस्तार और सोशल मीडिया के प्रसार से स्वच्छंद यौन व्यवहार का ऐसा अराजक रूप सामने आया कि जिसने किशोरों व युवकों को पथभ्रष्ट करना शुरू कर दिया। आज संकट ये है कि हर किशोर के हाथ में आया मोबाइल उसे समय से पहले वयस्क बना रहा है। जिस पर न परिवार का नियंत्रण है और न ही शिक्षकों का। कोरोना संकट के दौरान ऑनलाइन कक्षाओं की अपरिहार्यता ने विद्यार्थियों को मोबाइल उपयोग की स्वच्छंदा दी। आज उन्हें प्रभावित करने वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म व एप पश्चिमी अपसंस्कृति से संचालित हैं। इन पर अश्लीलता और यौन-विकृतियों वाले कार्यक्रमों का बोलबाला है। उन कार्यक्रमों की बाढ़ है जिनमें हमारे पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों में स्वच्छंद यौन व्यवहार को हकीकत बताने का खेल चल रहा है। मोबाइल व कथित सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बह रहे नीले जहर से किशोर अराजक यौन व्यवहार की तरफ उन्मुख हुए हैं। किशोरों को समझाने वाला कोई नहीं है कि यह रास्ता आत्मघात का है। आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व ब्रिटेन जैसे देश किशोरों को मोबाइल से दूर रखने हेतु कानून बना रहे हैं। शायद शीर्ष अदालत की तल्ख टिप्पणी से हमारे सत्ताधीशों की आंख खुले।

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