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न्याय की साख

विश्वसनीयता के लिये सराहनीय संकल्प
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किसी भी लोकतंत्र में न्यायपालिका की साख निर्विवाद रूप से कायम रहनी चाहिए। कामकाज में पारदर्शिता व शुचिता नजर आना संवैधानिक संस्था के लिये अनिवार्य शर्त है। न्यायपालिका की जिन कवायदों को लेकर अंगुलियां उठ सकती हैं, उनको संबोधित करके मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने एक सराहनीय पहल की है। उनका सेवानिवृत्ति के बाद सरकार से कोई पद न लेने का संकल्प संस्थागत ईमानदारी व विश्वसनीयता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम कहा जाएगा। निस्संदेह, उनके और कई सहयोगियों द्वारा दर्शायी गई यह प्रतिबद्धता न्यायपालिका की विश्वसनीयता और इसे स्वतंत्र बनाये रखने की दिशा में एक सार्थक प्रयास है। सीजेआई गवई ने यही साबित करने का प्रयास किया है कि न्यायाधीशों द्वारा सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद सरकारी पद लेना या चुनाव लड़ने के लिये इस्तीफा देना, संवेदनशील नैतिक चिंताएं पैदा करता है। यह भी कि ये प्रवृत्तियां सार्वजनिक जांच को आमंत्रित करती हैं। निस्संदेह, हितों के टकराव या पक्षपात की कोई भी धारणा केवल विश्वास की कमी को ही बढ़ाती है। विश्वास किया जाना चाहिए कि इस मुद्दे पर सीजेआई का साहसिक रुख नैतिक नेतृत्व का एक नया मानक स्थापित करेगा-जिसका अक्षरश: और ईमानदारी की भावना से पालन किया जाएगा। दरअसल, मुख्य न्यायाधीश ने टिप्पणी की है कि न्यायपालिका के भीतर कदाचार के उदाहरण पूरी व्यवस्था के प्रति विश्वास को चोट पहुंचा सकते हैं। इस विश्वास को फिर से बनाने का रास्ता त्वरित, निर्णायक और पारदर्शी कार्रवाई में निहित है। इसमें दो राय नहीं कि न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा से जुड़ा कैश-इन-रेजिडेंस का विवाद न्यायपालिका के साथ-साथ कार्यपालिका और विधायिका के लिये कसौटी पर परखने का मामला है। चर्चा है कि आगामी मानसून सत्र में दिल्ली उच्च न्यायालय के एक विवादित पूर्व न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाया जा सकता है। वहीं कॉलेजियम प्रणाली की बढ़ती आलोचना के बीच सीजेआई गवई का यह कथन कि न्यायिक स्वतंत्रता की कीमत पर कोई समाधान नहीं आना चाहिए, सही है।

हालांकि, न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे की जाती है, यह एक अनसुलझा विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है। गाहे-बगाहे अदृश्य न्यायिक भ्रष्टाचार पर भी गंभीर चिंता जतायी जाती रही है। पिछले दिनों पूर्व सीजेआई संजीव खन्ना का सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की संपत्ति सार्वजनिक करने का कदम सराहनीय था। लेकिन अभी भी इस दिशा में बहुत किया जाना बाकी है। बड़े पैमाने पर लंबित मामलों के मूल में प्रणालीगत विसंगतियां होने की बात कही जाती है। लेकिन हकीकत यह भी है कि राजनीतिक नफे-नुकसान के समीकरणों को साधने के लिये सरकारों ने भी तमाम संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने का प्रयास भी किया है। इसके बावजूद संस्थाओं के भीतर से उभरते शुचिता के संकल्प जन विश्वास को मजबूती देते हैं। ऐसे में मुख्य न्यायाधीश की साफगोई और विसंगतियों को दूर करने का संकल्प न्यायिक व्यवस्था में जनता के भरोसे को बढ़ाने वाला ही कहा जाएगा। हाल के वर्षों में कुछ शीर्ष न्यायिक संस्थाओं के फैसलों के राजनीतिक निहितार्थ को लेकर सार्वजनिक विमर्श में चर्चाएं होती रही हैं। यही वजह है कि सेवामुक्ति के बाद लाभ के पद स्वीकारने और इस्तीफा देकर चुनाव लड़ने के फैसले को नैतिकता की कसौटी पर कसा जाता रहा है। निर्विवाद रूप से किसी राजनीतिक दबाव से मुक्त होकर तथा किसी प्रलोभन को ठुकराकर ही न्याय की साख को बनाया जा सकता है। तभी सही अर्थों में न्यायिक दायित्वों का ईमानदारी से निर्वहन किया जा सकता है। निस्संदेह, न्याय की विश्वसनीयता के लिये न्यायाधीशों का व्यक्तिगत व्यवहार खास मायने रखता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता की निरंकुशता पर लगाम लगाने और संविधान की रक्षा करने का बड़ा दायित्व भी न्यायपालिका के जिम्मे है। देश में तमाम संस्थाओं और व्यवस्था से निराश व्यक्ति अंतिम आस के रूप में न्यायिक व्यवस्था की ओर देखता है। जनता को भरोसा रहता है कि सत्ता की मनमानी पर न्यायिक व्यवस्था ही नकेल कस सकती है। भले ही सत्ताधीश इसे न्यायिक सक्रियता का नाम क्यों न दें। ऐसे में जरूरी है कि हालिया घोषणाएं जमीनी हकीकत भी बनें। वहीं दूसरी ओर वीरवार को मुख्य न्यायाधीश ने तार्किक टिप्पणी की, कि यदि प्रौद्योगिकी को कमान सौंपी गई तो न्यायपालिका के प्रति विश्वास कमजोर होगा। उनका मानना है कि तकनीकी दौड़ में हमें मानवता को नहीं भूलना चाहिए।

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