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महंगे ईंधन की मार

तार्किक हो पेट्रोलियम पदार्थों में मूल्य वृद्धि
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ऐसे वक्त में जब अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के तुगलकी फैसलों से दुनिया की अर्थव्यवस्था हिचकौले खा रही है, देश में बढ़ी महंगाई के बीच रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि कोढ़ में खाज जैसी ही है। निस्संदेह, सरकार का कोई भी फैसला देश के व्यापक व दूरगामी लक्ष्यों को लेकर होता है। वैसे भी पेट्रोलियम पदार्थों पर लगने वाले विभिन्न कर केंद्र व राज्य सरकारों की आर्थिकी के लिये प्राणवायु जैसे होते हैं। लेकिन सरकारों को राजस्व जुटाने के लिये वैकल्पिक रास्ते तलाशने चाहिए। उन मदों में समय-समय पर वृद्धि करना, जो पहले से ही लोगों पर भार डाल रहे हों, सुशासन की दृष्टि से तर्कसंगत नजर नहीं आता। निस्संदेह, बढ़ती महंगाई के बीच पेट्रोल-डीजल व रसोई गैस की कीमतें लोगों का बजट बिगाड़ रही हैं। सरकार के तमाम मौद्रिक उपाय महंगाई पर काबू पाने में सफल नहीं हो सके हैं। कोरोना संकट के बाद आम आदमी की आय में अपेक्षित वृद्धि भी नहीं हो पायी है। इससे जीवन-यापन कठिन होता जा रहा है। ये तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि लोकसभा व विधानसभा चुनावों के दौरान तेल का खेल होता रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव व उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान केंद्र सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थों पर उत्पाद शुल्क में कमी की थी। हाल में फिर उसमें वृद्धि कर दी गई है। वैसे तो सरकार को भी पता है कि पेट्रोलियम पदार्थों व रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि से महंगाई की एक शृंखला पैदा होती है। लेकिन लगता है कि टैरिफ युद्ध से भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले नुकसान की भरपाई सरकार पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत बढ़ाकर करना चाहती है। यूं तो हम अपने प्रत्यक्ष लाभ-हानि को दृष्टिगत रखते हैं, जबकि सरकार को व्यापक दृष्टिकोण के साथ दूरगामी फैसले लेने होते हैं। वैसे नागरिकों के हित राष्ट्रहित से अलग नहीं हो सकते। लेकिन फिर भी ऐसे फैसले लेते वक्त संवेदनशील दृष्टि अपनाना जरूरी है।

वहीं दूसरी ओर विपक्ष केंद्र सरकार के फैसले को एक अवसर के रूप में देखकर हमलावर हुआ है। उसकी दलील है कि केंद्र का पेट्रोलियम पदार्थों में मूल्यवृद्धि का फैसला तार्किक नहीं है। ऐसे वक्त में जब अंतर्राष्ट्रीय तेल बाजार में कच्चे तेल की कीमतें गिरी हैं, तो इस मूल्य वृद्धि का क्या औचित्य है। यह भी कि सरकार जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि का बोझ जनता के कंधे पर डाल देती है, तो कीमतें घटने का लाभ भी तो उसे मिले। सरकार की दलील है कि पेट्रोल व डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाया तो है लेकिन बोझ जनता पर नहीं पड़ेगा। सरकार के अनुसार पेट्रोल-डीजल की कीमतें नहीं बढ़ेंगी। मगर लोगों की चिंता है कि देर-सवेर सरकार पेट्रोल-डीजल के दामों में पिछले दरवाजे से वृद्धि कर सकती है। तेल कंपनियां भी कब तक बढ़े उत्पाद शुल्क वहन करेंगी। वैसे भी सरकारें अपने बजट को संतुलित करने के लिये गाहे-बगाहे पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बदलाव करती रही हैं। हालांकि, सरकार को पता है कि तेल की कीमतें बढ़ने से महंगाई की नई शृंखला पैदा हो जाती है। माल-भाड़े में वृद्धि से दैनिक उपभोग की वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो जाती है। डीजल के दामों से वृद्धि से खेती की लागत बढ़ती है, जिससे अनाज की महंगाई बढ़ती है। साथ ही विनिर्माण क्षेत्र भी इस वृद्धि से प्रभावित होता है। लेकिन लगता है कि महंगाई की तुलना में टैरिफ प्रभावों को संतुलित करना सरकार की पहली प्राथमिकता है। लेकिन एक बात तो तय है कि सरकार को पेट्रोलियम पदार्थों व रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि को लेकर कोई कारगर रणनीति बनानी ही होगी। देश का विपक्ष भी बार-बार पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि की तार्किकता को लेकर सवाल उठाता रहा है। कुछ लोग इन पदार्थों को जीएसटी के अधीन लाकर मूल्यों को तार्किक बनाने की बात करते हैं। लेकिन विपक्ष शासित राज्य इसे राज्यों के वित्तीय संसाधनों पर केंद्र की दखल के रूप में देखते हैं। लेकिन लगता है कि जब तक दुनिया में आर्थिक अनिश्चितता का वातावरण बना हुआ है केंद्र सरकार पेट्रोलियम पदार्थों को राजस्व जुटाने का जरिया बनाना जारी रखेगी।

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