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नगदी और न्याय

न्यायिक व्यवस्था की विश्वसनीयता पर आंच
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दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास के एक स्टोररूम से कथित रूप से बेहिसाब नगदी की बरामदगी ने देश के जनमानस व न्यायिक बिरादरी को झकझोरा है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की एक जांच समिति गठित की है। वहीं पारदर्शिता सुनिश्चित करने और गलत सूचनाओं को दूर करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा प्रस्तुत जांच रिपोर्ट भी सार्वजनिक की है। इस रिपोर्ट ने निष्कर्ष दिया है कि पूरे मामले की गहन जांच की आवश्यकता है। ऐसा जरूरी भी था क्योंकि उच्च न्यायपालिका की ईमानदारी और विश्वसनीयता दांव पर है। हालांकि, न्यायाधीश ने दावा किया है कि उनके या परिवार के किसी सदस्य द्वारा स्टोर रूम में कभी कोई नकदी नहीं रखी गई थी। इस बयान ने भी कई सवालों को जन्म दिया है। सवाल उठाया जा रहा है कि कड़ी सुरक्षा में रहने वाले सरकारी आवास में क्या बिना जानकारी के पैसा रखा जा सकता है? तो क्या किन्हीं आवासीय कर्मचारियों या बाहरी लोगों ने ऐसा कृत्य किया? यदि यह वास्तव में जज को फंसाने की सजिश थी, तो उसमें कौन लोग शामिल थे? निश्चित रूप से ऐसे सवालों का जवाब मिलने में विलंब से अविश्वास की धुंध और गहरी होगी। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1997 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनाए गए ऐतिहासिक- ‘न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्कथन’ में यह निर्दिष्ट किया गया था कि किसी न्यायाधीश द्वारा ऐसा कोई कार्य या चूक नहीं होनी चाहिए, जो उनके उच्च पद और उस पद के प्रति सार्वजनिक सम्मान के अनुरूप न हो।’ निस्संदेह, न्यायपालिका में जनता के विश्वास को कम करने वाले किसी भी विवाद की गहरी जांच होनी चाहिए। साथ यह भी जरूरी है कि जांच निर्धारित समय सीमा में अनिवार्य रूप से पूरी हो। वास्तव में सत्य, न्याय और न्यायिक जवाबदेही के हित में ऐसे मामलों में कार्यवाही को तेजी से आगे बढ़ाने का दायित्व अदालतों और जांच एजेंसियों का है।

बहरहाल,शीर्ष अदालत ने विवादों में घिरे न्यायाधीश के प्रति सख्त रवैया अपनाते हुए उन्हें न्यायिक कामकाज से अलग रखने के निर्देश दिए हैं। सार्वजनिक विमर्श में उनका तबादला इलाहाबाद हाईकोर्ट करने की चर्चा भी रही। इस मामले में शीर्ष अदालत ने जिस तरह तत्परता से कार्रवाई की और पारदर्शिता बनाये रखने के लिये कदम उठाए, उसे सराहा गया। यहां तक कि दिल्ली हाईकोर्ट ने जस्टिस वर्मा के घटनाक्रम से जुड़े कॉल्स सुरक्षित रखने को कहा है। यहां तक कि अदालत ने पिछले छह माह के कॉल रिकॉर्ड भी पुलिस से मांगे हैं। वहीं दूसरी ओर शीर्ष अदालत ने पुलिस द्वारा रिकॉर्ड वीडियो, तस्वीरें व शुरुआती जांच रिपोर्ट भी सार्वजनिक विमर्श में ला दी है। निश्चित रूप से न्याय की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति से बेदाग होने की उम्मीद की जाती है। सोशल मीडिया पर इस प्रकरण से जुड़ी सामग्री के वायरल होने के बाद लोग उम्मीद कर रहे हैं कि इस मामले में निष्पक्ष जांच होगी, ताकि सच सामने आ सके। यदि कोई साजिश है तो उसका खुलासा हो और यदि नहीं तो न्यायिक व्यवस्था की शुचिता अक्षुण बनाये रखने के लिये सख्त कार्रवाई की जाए। यह एक हकीकत है कि अन्याय के विरुद्ध उम्मीद की अंतिम किरण लेकर व्यक्ति न्याय की चौखट पर दस्तक देता है। यदि ऐसे प्रकरण सच साबित होते हैं तो उसके विश्वास को धक्का लगेगा। निस्संदेह, न्याय व्यवस्था का सवालों के घेरे में आना एक गंभीर मुद्दा है। इस घटनाक्रम से न्याय व्यवस्था पर छींटे आए हैं, उन्हें साफ करना जरूरी है। आम लोगों को विश्वास है कि शीर्ष अदालत द्वारा गठित जांच समिति सच को सामने लाने में पारदर्शी व निष्पक्ष कार्रवाई करेगी। लोकतंत्र के आधारभूत स्तंभ की शुचिता बनाये रखने के लिये यह बेहद जरूरी भी है। निस्संदेह, न्यायपालिका का लक्ष्य सिर्फ संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करना ही नहीं है बल्कि सार्वजनिक जीवन में निष्पक्षता, ईमानदारी और विश्वसनीयता के मूल्यों के आदर्शों का प्रतिनिधित्व करना भी है। कमोबेश यहां न्यायिक अस्मिता को अक्षुण्ण बनाये रखना भी अनिवार्य शर्त है। अन्यथा न्यायिक व्यवस्था की विश्वसनीयता पर आंच आ सकती है।

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