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मेले में अकेला

रिश्तों में खामोशी लीलती लाखों जिंदगी
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विश्व स्वास्थ्य संगठन की वह रिपोर्ट चौंकाती है कि दुनिया में हर छठा इंसान अकेला है। दुनिया के करोड़ों लोग टूटे रिश्तों व संवाद से विलग होकर नितांत खामोशी का जीवन जी रहे हैं। सही मायनों में इंसान के भीतर की ये खामोशी लाखों जिंदगियां लील रही है। विडंबना यह है कि इस संकट का सबसे ज्यादा शिकार युवा हो रहे हैं। निश्चय ही जीवन की जटिलताएं बढ़ी हैं। कई तरह की चुनौतियां सामने हैं। पीढ़ियों के बीच का अंतराल विज्ञान व तकनीक के विस्तार के साथ तेज हुआ है। सोच के भौतिकवादी होने से हमारी आकांक्षाओं का आसमान ऊंचा हुआ है। लेकिन यथार्थ से साम्य न बैठा पाने से हताशा व अवसाद का विस्तार हो रहा है। जिसके चलते निराशा हमें एकाकीपन की ओर धकेल देती है। कहने को तो सोशल मीडिया का क्रांतिकारी ढंग से विस्तार हो रहा है। लेकिन इसकी हकीकत आभासी है। हो सकता है किसी व्यक्ति के हजारों मित्र सोशल मीडिया मंचों पर हों, लेकिन यथार्थ के जीवन में व्यक्ति बिल्कुल एकाकी होता है। आभासी मित्रों का कृत्रिम संवाद हमारी जिंदगी के सवालों का समाधान नहीं दे सकता। निश्चित रूप से कृत्रिम रिश्ते हमारे वास्तविक रिश्तों के ताने-बाने को मजबूत नहीं कर सकते। दरअसल, लोगों में यह आम धारणा बलवती हुई है कि जिसके पास पैसा है तो वह सबकुछ कर सकता है। जिसके चलते उसने आस-पड़ोस से लेकर कार्यस्थल पर सीमित पहुंच बनायी है। यही वजह है कि हमारे इर्द-गिर्द की भीड़ और ऑनलाइन जिंदगी के हजारों मित्रों के बावजूद व्यक्ति एकांत में जीने के लिये अभिशप्त है। सही बात ये है कि लोग किसी के कष्ट और मन की पीड़ा के प्रति संवेदनशील व्यवहार नहीं करते। हर तरफ कृत्रिमताओं का बोलबाला है। हमारे मिलने-जुलने वाले त्योहार भी अब दिखावे व कृत्रिम सौगातों की भेंट चढ़ गए हैं। हमें उन कारकों पर मंथन करना होगा, जिनके चलते व्यक्ति निजी जीवन में लगातार एकाकी होता जा रहा है।

विडंबना यह है कि कृत्रिमताओं के चलते कहीं न कहीं हमारे शब्दों की प्रभावशीलता में भी कमी आई है। कालांतर व्यक्ति लगातार एकाकी जीवन की ओर उन्मुख होना लगा है। हमारे संयुक्त परिवारों का बदलता स्वरूप भी इसके मूल में है। पहले घर के बड़े बुजुर्ग किसी झटके या दबाव को सहजता से झेल जाते थे। सब मिल-जुलकर आर्थिक व सामाजिक संकटों का मुकाबला कर लेते थे। शहरों की महंगी जिंदगी और कामकाजी परिस्थितियों का लगातार जटिल होना संकट को गहरा बना रहा है। उन परिवारों में यह स्थिति और जटिल है, जहां पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं और बच्चे हॉस्टलों व बोर्डिंग स्कूल में रह रहे हैं। धीरे-धीरे यह एकाकीपन अवसाद तक पहुंचता है। जो कालांतर एक ऐसे मनोरोग का रूप ले लेता है, जिसका उपचार कराने में भी पीड़ित व्यक्ति संकोच करने लगता है। इस स्थिति से व्यक्ति की वापसी सहज भी नहीं होती। जब हम डब्ल्यूएचओ के आंकड़े की बात करते हैं कि दुनिया में हर छठा व्यक्ति अकेलेपन की गिरफ्त में है तो उस कुल संख्या का अनुमान लगाना कठिन नहीं है, जो वास्तव में इससे पीड़ित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का वह आंकड़ा चौंकाता है कि अकेलापन हर साल तकरीबन आठ लाख लोगों की जीवन लीला समाप्त कर रहा है। जो यह दर्शाता है कि व्यक्ति न केवल समाज व अपने कार्यालयी परिवेश से अलग-थलग हुआ है, बल्कि वह परिवार से भी कटा है। पिछले दिनों देश के शीर्ष उद्योगपतियों ने कार्यालयों में काम के घंटे बढ़ाने का आग्रह किया था। एक उद्यमी ने तो यहां तक कहा कि क्या जरूरी है कि घर में रहकर पत्नी का ही चेहरा देखा जाए। यह एक संवेदनहीन प्रतिक्रिया थी। पहले ही कार्य परिस्थितियों के दबाव से युवा पीढ़ी में कई तरह की समस्याएं देखी जा रही हैं। नई पीढ़ी मन में आक्रोश, आकांक्षाएं पूरी न होने की कसक व अरुचिकर परिस्थितियों के चलते पहले ही घुटन महसूस कर रही है। उस पर कार्य परिस्थितियों की जटिलता से उपजी कुंठा उन्हें एकाकी जीवन की ओर धकेल सकती है। ऐसे में सामाजिक जुड़ाव, संवाद व संवेदनशीलता ही एकाकीपन दूर करेगी।

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